कस्तूरी अब कहां बसै?
कस्तूरी अब कहां बसै?
यह आपकी फिल्मों की जलेबी बाई नहीं है। यह कस्तूरी बाई हैं। साठ साल की कस्तूरी बाई दक्षिणी राजस्थान के सामंती प्रभाव वाले चित्तौड़गढ़ जिले के कपासन ब्लॅाक के बालारड़ा गांव की निवासी है। जबसे कस्तूरी बाई ने होश संभाला वे और उनका परिवार एक कच्चे झोंपड़े में अमानवीय स्थिति में रहता है। मरे हुए जानवरों का चमड़ा उतारना उसका पुश्तैनी काम रहा है। इस पुश्तैनी काम ने कभी घर में इतना धन नहीं आने दिया कि वह अपने लिए पक्का आशियाना बना सके। अब जबकि मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत बीपीएल में चयनित कस्तूरी के परिवार को एक आवास स्वीकृत हुआ और उसने अपना पुराना कच्चा झोंपड़ा गिरवा दिया और तिरपाल तले रहने लगे तो सवर्ण और दबंग उसपर कहर बनकर टूट पड़े हैं।
नया घर बनवाना था इसलिए कस्तूरी बाई ने नीवें खुदवाई, ईंटे डलवाई, वह खुश थी कि अब उसके पास एक कमरे का ही सही एक पक्का मकान तो होगा, मगर वह गांव के सवर्णों की घृणित मानसिकता का अंदाजा नहीं लगा पाई। यह गांव के दबंग लोगों को बर्दाश्त नहीं हुआ कि हमारे गांव के मृत पशु उठाने वाले तथा उसका चमड़ा उतारने वाली कौम के लोग अब हम जैसे मकान बनाकर रहे।
14 मार्च 2012 को बालारड़ा गांव में स्थित चारभुजा मंदिर के पास स्थित चौपाल पर कस्तूरी व उसके परिजनों को बुलाकर पूछा गया कि - तुमने मरे पशु उठाना और चमड़ा उतारना क्यों बंद कर दिया। कस्तूरी का जवाब था कि -उसके बच्चे ऐसा काम नहीं करना चाहते है, समाज ने भी पाबंदी लगा दी है। इस पर ग्रामीण भड़क गए। उन्होंने कहा- तुम भांबियों को मृत पशु उठाने होंगे और उनका चमड़ा भी उतारना पड़ेगा, क्योंकि तुम्हारे बाप-दादा भी इस गांव में रहकर यही काम करते थे, इसीलिए उनको इस गांव में बसाया गया था कि वे गांव के मृत पशु उठाए और चमड़ा उतारे, अगर तुम यह काम नहीं करोगे तो तुम्हारी इस गांव को जरूरत नहीं है, न ही यहां रहने देंगे है, हम तुम्हें पक्का मकान नहीं बनाने देंगे।
हालांकि कस्तूरी का परिवार 60 वर्षों से इस भूखंड पर निवास कर रहा है, उसके पास अपने पुश्तैनी भूखंड का बापी-पट्टा भी है और ग्राम पंचायत द्वारा मुख्यमंत्री आवास योजना की स्वीकृति भी है, इस हेतु 25 हजार रुपए की राशि भी उसके खाते में आ गया है मगर इन कानूनी दस्तावेजों के होते हुए भी ग्रामीण कस्तूरी को यहां बसे रहने देने के लिए तैयार नहीं है, उनकी एकमात्र शर्त यही है कि - ''अपना काम जारी रखो, मरे जानवर उठाओ, चमड़ा उतारो, खालें फाड़ों, वर्ना गांव छोड़ दो।'' ग्रामीणों ने कस्तूरी के भूखंड के चारों तरफ से कांटेदार तारबंदी कर दी है, रास्ता भी बंद कर दिया है। आज वह बंदी की तरह रह रही है, नीवें खुदी पड़ी है, ईंटे बिखरी हुई है, कानूनन सब कुछ कस्तूरी के पक्ष में है, मगर बालारड़ा की भीड़ उसके खिलाफ है, गांव के लठैत इस दलित महिला के खिलाफ है।
कस्तूरी संपूर्ण जहांन का दर्द अपनी आंखों में समेटकर अपनी पीड़ा यूं बयान करती है-''15 मार्च की सुबह हम धूप से बचने के लिए तिरपाल लगाकर छाया की व्यवस्था कर रहे थे, तभी गांव के कई लोग जबरन मेरे भूखंड में घुसे, मुझे व मेरे बेटे-बेटियों को मां-बहन की गालियां दी, जातिसूचक गालियां निकालने लगे तथा बाद में हमें घसीटते हुए बाहर निकाल दिया और चारों तरफ कांटेदार तार लगाकर हमें बंदी बना दिया, तब से ही हम बेघर हो गए है।''
बेघर करके भी जब बदले की आग शांत नहीं हुई तो 16 मार्च को गांव के पुजारी ऊंकारदास वैष्णव के जरिए कस्तूरी और उसके बेटों के विरुद्ध मारपीट करने व जान से मारने की धमकी देने का झूठा मुकदमा दर्ज करवा कर पुलिस से प्रताडि़त करवाया गया। कस्तूरी के बेटे पृथ्वीराज और मोहनलाल का कहना है कि- ये घटनाएं इसलिए हो रही है क्योंकि हमने गांव के मृत पशु उठाने से मना कर दिया है। हम यह काम नहीं करना चाहते है, हम अच्छी जिंदगी जीना चाहते है, हम सम्मानपूर्वक रहना चाहते है। कस्तूरी का एक बेटा हीरोहोंडा कंपनी में मैकेनिक बन गया है जबकि दूसरा आइसक्रीम की लॉरियों पर जाने लगा है, वे जीवनयापन करने लायक कमा रहे है, उनके पास इसी गांव में 10 बीघा खेती लायक जमीन भी है, मगर सम्मान और स्वाभिमान की उन्हें दरकार है।
कस्तूरी बाई ने अजा जजा आयोग राजस्थान को भी गुहार की है, जिसके उपाध्यक्ष दिनेश तरवाड़ी इसी संभाग के है, वे अक्सर इसी क्षेत्र में लालबत्ती में घूमते रहते है, डाक बंगलों में बैठकर दलितों की पीड़ा हरते है और दलित सामाजिक कार्यकर्ताओं को बेइज्जत करना अपना परम कर्तव्य समझते है, आज तक किसी भी पीडि़त दलित तक आयोग के उपाध्यक्ष नहीं पहुंचे है, कस्तूरी द्वारा यह पुकार उनके आयोग से 17 मार्च को की गई थी जिसे 30 दिन बीत चुके है मगर कोई सुनवाई नहीं हुई है। कपासन का यह विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है, यहां से शंकरलाल बैरवा विधायक है, सरपंच कैलाशी देवी बुनकर है जो कि स्वयं भी दलित है। मगर चलती इनकी नहीं है, चलती तो दबंग जाटों की ही है। गांव में गैर दलितों की दबंगई तो इतनी है कि हाल ही में एक दलित संत बालकनाथ की शोभायात्रा इन्हीं दबंगों ने नहीं निकलने दी, जबकि कहा जाता है कि उस वक्त दलित विधायक और एसडीएम व थानाधिकारी इत्यादि सब कोई वहां मौजूद थे। मगर नहीं निकल सकी शोभायात्रा।
अब जहां की सरपंच दलित है, एसडीएम दलित समाज से आते है, विधायक दलित है बावजूद इसके भी कस्तूरी जैसी दलित महिला को सम्मानजनक जिंदगी जीने की लड़ाई अकेले ही लड़नी पड़े तो किससे उम्मीद की जाए और सारे दस्तावेजी प्रमाणों के होते हुए भी बालारड़ा गांव में कस्तूरी को मकान नहीं बनाने दिया जाए तो बताइए कस्तूरी अब कहां बसे?
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