Monday, April 16, 2012

संघर्ष, प्रतिभा, नैतिकता और सामाजिक मूल्‍यों के प्रथम प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर

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[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1166-2012-04-16-12-13-25]संघर्ष, प्रतिभा, नैतिकता और सामाजिक मूल्‍यों के प्रथम प्रधानमंत्री थे चंद्रशेखर [/LINK] [/LARGE]
Written by अरविंद विद्रोही Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 16 April 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=222c7e626ecd19421014f1f7b78a9949695beb68][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1166-2012-04-16-12-13-25?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
: 17 अप्रैल को जन्‍मदिन पर विशेष : बलिया उत्तर प्रदेश के गाँव इब्राहीम पट्टी में १७ अप्रैल, १९२७ को जन्मे चन्द्र शेखर सिंह विद्यार्थी जीवन से ही समाजवादी विचार धारा से प्रभावित हो गये थे। हाई स्कूल में अपने अध्यापक रूपनारायण जो कि एक अच्छे कवि भी थे, की प्रेरणा से विद्यार्थी चन्द्र शेखर ने कवितायेँ भी लिखी। विद्यालय के एक कवि सम्मेलन के आयोजन के अवसर पे कविता पथ हेतु हलवाहे पे एक कविता लिखी। इस कविता को पढ़ने का दायित्व साथी चेला राम पर था, लेकिन कवि सम्मेलन के दिन मौके पर चेला राम गायब हो गये और इस प्रकार विद्यार्थी चन्द्र शेखर की कविता कवि सम्मेलन में मंच से नहीं पढ़ी जा सकी। ग्रामीण पृष्ट भूमि में जन्मे बालक चन्द्र शेखर का मध्यम वर्गीय परिवार आर्थिक रूप से औरों से बेहतर ही था। जरूरतों की पूर्ति के पर्याप्त साधन ना होने के कारण चन्द्र शेखर ने बचपन से ही ग्रामीण जीवन की बेबसी और गरीबी को बहुत करीब से देखा था।

१९४० में ब्रितानिया हुकूमत के खिलाफ आज़ादी की लड़ाई में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौर में मिडिल के विद्यार्थी चन्द्र शेखर के मन में यह बात आई कि अगर अंग्रेज अपने देश भारत से चले जाएँ तो भारत से विशेष कर ग्रामीण अंचलों से गरीबी चली जाएगी। किशोर चन्द्र शेखर की राजनीतिक सक्रियता के पीछे ना कोई शास्त्र था, ना वेड, ना कोई नेता था और ना ही उनकी पढ़ाई बल्कि जीवन की अनुभूतियों ने ही चन्द्र शेखर को राजनीति में उतारा था। परिवार का जयेष्ट पुत्र होने के कारण परिजनों को अपेक्षा रहती थी कि चन्द्र शेखर नौकरी कर परिवार का आर्थिक सहयोग भी करें। हाई स्कूल की परीक्षा में सफल होने के पश्चात कचहरी में एक नौकरी मिली भी लेकिन उम्र कम होने के कारण नौकरी कर नहीं पाए। अगर उस वक्त उम्र बाधक ना बनी होती तो चन्द्र शेखर का विशाल व्यक्तित्व देश- समाज के सामने आने से रह जाता। शोध करते समय अध्यापक बनने का विचार भी विद्यार्थी चन्द्र शेखर के मन में आया लेकिन यह विचार भी नेपथ्य में ही रह गया।

पूरी तरह से सक्रिय राजनीति में आने का मन बनाते समय चन्द्र शेखर के मन में जीविकोपार्जन के लिए खाने का ढाबा चलाने का या लेखन का काम करने का विचार आया। ढाबा चलाने के लिए खरीद कर लायी गयी किताब - 'हाउ टू मैनेज ए स्माल होटल' को पढ़ने के बाद चन्द्र शेखर की ढाबा संचालन की योजना समाप्त हो गयी। दरअसल इस पुस्तक में स्विट्जर्लैंड के समुद्र तट पर होटल संचालन हेतु इ मिलियन डॉलर की योजना का विवरण था। १९५१ के दौरान लेखन में संभावनाओं को तलाशते हुये चन्द्र शेखर भी लेखन कार्य में नव लेखकों के शोषण से रूबरू हुये। राजनीति शास्त्र से परा स्नातक चन्द्र शेखर ने राजनीति शास्त्र पर ही पुस्तक लिखने का मन बनाया। राजनीति शास्त्र पर ही लिखने वाले एक स्थापित लेखक से मिलकर चन्द्र शेखर ने लेखन सम्बन्धी अपनी इच्छा बताई। लेखक ने एक विषय पे चन्द्र शेखर से लिखने को कहा। दूसरे दिन चन्द्र शेखर लेख तैयार करके उनके पास गये। लेख की प्रशंसा करते हुये उन स्थापित लेखक ने १००-१५० रुपये प्रति माह पारिश्रमिक देने की बात कही लेकिन एक शर्त भी जोड़ी कि चन्द्र शेखर द्वारा लिखे लेखों-पुस्तकों में चन्द्र शेखर का नाम ना होगा बल्कि उनका नाम होगा। समाजवादी चरित्र के चन्द्र शेखर को अपना यह शोषण कतई गवारा ना था और इस तरह लेखन के माध्यम से जीविकोपार्जन की सम्भावना ने भी दम तोड़ दिया।

लिखने-पढ़ने के शौक़ीन युवा चन्द्र शेखर जब १९५३-५४ में युवा सोशलिस्ट पार्टी के संयुक्त सचिव बन कर मऊ पहुंचे तो वहां पर समाजवादियों के बंद पड़े अख़बार संघर्ष को दुबारा चालू करवाया और उसमें सम्पादकीय के अलावा सम सामयिक विषयों पर, घटनाओं पर, टिप्पणियों पर एक कालम चंचरीक शीर्षक से लिखना शुरू किया। नियमित डायरी लिखने वाले युवा चन्द्र शेखर ने सांसद बनने के बाद भी लिखना जारी रखा। १९७१ में यंग इंडिया के प्रकाशन की शुरुआत करके १९७५ तक चन्द्र शेखर ने यंग इंडिया में नियमित लेखन किया। चन्द्र शेखर के लेखों और भाषणों को संकलित करके डॉयनिमिक्स ऑफ़ सोशल चेंजेस प्रकाशित हुई। आपातकाल में कारगर में निरुद्ध चन्द्र शेखर ने तमाम पुस्तकों का अध्ययन किया। अनवरत अध्ययन से होने वाली नीरसता व उबन से बचने के लिए मन में आने वाले विचारों को चन्द्र शेखर ने लिपिबद्ध करना शुरू किया। धीरे-धीरे सारी अभ्यास पुस्तिकाओं को लिख कर भर डाला चन्द्र शेखर ने। चन्द्र शेखर के मित्र ब्रह्मा नन्द ने जेल में मुलाकात के दौरान इस लेखन कार्य को देखा और किसी तरह कई बार में इस संपूर्ण लेखन सामग्री को जेल से बाहर लेकर गये। आपातकाल के पश्चात जेल से रिहाई के पश्चात चन्द्र शेखर के सामने अपने द्वारा जेल में लिखा गया लेखन अपने मित्र ब्रह्मानंद के द्वारा टाइप करवा के एक पाण्डु लिपि के रूप में मौजूद था। यही लेखन 'मेरी जेल डायरी' के नाम से प्रकाशित हुआ।

चन्द्र शेखर का मानना था कि उन्होंने गंभीरता पूर्वक पुस्तक लिखने की कोशिश नहीं की लेकिन नामवर सिंह जैसे आलोचक की प्रशंसा लेखन की उत्कृष्टता को प्रमाणित करती है। कवि भवानी प्रसाद मिश्र के अनुसार -- जेल डायरी जैसी कोई कृति हिंदी साहित्य में नहीं है और अगर मैं निर्णायक होता तो इसको साहित्य अकादमी का पुरस्कार अवश्य देता। समाजवादी राजनीति में पढ़ने को एक आवश्यक काम मानने वाले चन्द्र शेखर की रूचि संस्मरणात्मक साहित्य में ज्यादा रही। आपातकाल में हिटलर, स्टालिन से सम्बंधित पुस्तकों ने चन्द्र शेखर के मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। शरद चन्द्र का पथ का दावेदार, सत्यार्थ प्रकाश, श्याम नारायण पाण्डेय की लिखी हल्दी घाटी चन्द्र शेखर की मनपसंद रचनायें रहीं। चन्द्र शेखर राजनीति में संघर्ष की वो मिसाल हैं, जिन्होंने राजनीति में कोई कदम राजनीतिक लाभ के लिए सोच समझ के नहीं उठाया। परिस्थितियों ने चन्द्र शेखर को आगे बढ़ने पर विवश किया। राजनीति में आगे बढ़ने के लिए चन्द्र शेखर ने कभी भी किसी से मदद नहीं ली। यहाँ तक कि आचार्य नरेन्द्र देव और जय प्रकाश नारायण तक से कोई निवेदन नहीं किया। बड़े नेताओं के बुलावे पर ही चन्द्र शेखर उनसे मिलने जाते थे। ग्रामीण परिवेश के चन्द्र शेखर शहरी नेताओं से अपने को अलग रखते थे।

उनका खुद का सोचना था कि ---- मुझे उनसे क्या मतलब, वह अपने दायरे में रहे और मैं अपने दायरे में। अपने इसी जिद और अहंकार के चलते चन्द्र शेखर को राजनीतिक उपलब्धियां नहीं मिली और जो मिली भी तो देर से और आधी अधूरी सी। चन्द्र शेखर का साफ कहना था कि - मुझे इसका कोई पछतावा नहीं है क्यूंकि जो व्यक्ति अपने स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकता, वह मानवता की भलाई क्या करेगा? मैं इस बात का सिद्धान्तता विरोधी हूँ कि देश या समाज के निर्माण के लिए किसी प्रकार का समझौता कर लिया जाये। चन्द्र शेखर का साफ़ कहना था कि जिसके मन में समाजवाद के प्रति थोड़ी सी भी आस्था होगी, वह दूसरों के विचारों का आदर जरुर करेगा। व्यक्तिवादी सिर्फ अपने व्यक्तित्व के उत्थान को लेकर चिंता करते हैं लेकिन जिनमें स्वाभिमान होता है, वह दूसरे के स्वाभिमान की रक्षा करना भी जानते हैं। चन्द्र शेखर के व्यक्तित्व पर सर्वाधिक प्रभाव आचार्य नरेन्द्र देव का पड़ा। चन्द्र शेखर के ही शब्दों में --- आचार्य नरेन्द्र देव को देख कर ऐसा लगता था कि उनके जैसा बन पाना संभव नहीं है। उनके अलावा कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं जिसको मैं बहुत महत्वपूर्ण मानू।

राजनीतिक जीवन में चन्द्र शेखर का तमाम नेताओं से वास्ता पड़ा। चन्द्र शेखर की नजरों में जयप्रकाश नारायण एक सरल और ममत्व भरे व्यक्तित्व के धनी व्यक्ति थे। इतने मृदु स्वाभाव के किसी की आलोचना भी नहीं करते थे लेकिन जयप्रकाश नारायण के व्यक्तित्व में खामी यह थी कि वे अपनी आलोचना भी सह नहीं पाते थे। जयप्रकाश निर्णय लेने के मामले में पक्के थे। डॉ. लोहिया को सादगी की प्रतिमूर्ति मानने वाले चन्द्र शेखर के अनुसार डॉ. लोहिया के मन में नए नए समाजवादी विचार आते रहते थे, वे विचारों के धनी थे। डॉ. लोहिया में संवेदनशीलता की कमी थी और वे जिससे रुष्ट हो जाते थे उसकी भर्त्सना कहीं भी, किसी के भी सामने कर देते थे। इंदिरा गाँधी को गरीबों की पीड़ा समझने वाली लेकिन सत्ता के बिना ना रह सकने वाली नेता मानते थे चन्द्र शेखर। अटल बिहारी बाजपेयी को बेहतर इन्सान और नेता, राजीव गाँधी को कमजोर आधारों पे देश को आगे ले जाने की कोशिश करने वाला नेता तथा विश्वनाथ प्रताप सिंह को दोहरे चरित्र व आचरण का नेता मानते थे चन्द्र शेखर। संजय गाँधी में समझ का अभाव लेकिन कुछ कर गुजरने की और निर्णय लेने की छमता वाला, नरसिंह राव को व्यवहार कुशल लेकिन ढुलमुल रुख वाला मानते थे चन्द्र शेखर। कांशी राम को सीमित व एकांगी व्यक्तित्व, मुलायम सिंह को सीमित दायरे में रहने वाला तथा लालू यादव को संघर्षशील लेकिन नया कुछ ना सीखने वाला नेता मानते थे।

प्रतिभा, सिद्धांत, नैतिकता और समाजवादी मूल्यों से परिपूर्ण चन्द्र शेखर का व्यक्तित्व साफ गोई का ज्वलंत उदाहरण रहा है। चन्द्र शेखर का संपूर्ण जीवन एक खुली किताब की तरह रहा है। इनके करीबी और पूरे भारत यात्रा के दौरन साथ रहे बाराबंकी के निवासी कुंवर रामवीर सिंह - पूर्व अध्यक्ष, लखनऊ विश्वविद्यालय के अनुसार चन्द्र शेखर जी अपने करीबी, अपने समर्थकों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखते थे। वे करुणा के सागर और गाँव गरीब के हित चिन्तक थे। युवाओं को राजनीति में स्वाभिमान व सिद्धांत से जुड़े़ रहने व जनहित के कामों में बगैर राजनीतिक हानि-लाभ के जुटे रहने की सलाह देने वाले चन्द्र शेखर जी के दिल में सूर्य देव सिंह से लेकर धीरू भाई अम्बानी तक सबके लिए जगह थी, लेकिन देश हित की कीमत पर उन्होंने कभी भी व्यक्तिगत रिश्तों को महत्व नहीं दिया था। अपने अल्प काल के प्रधानमंत्रित्व में अम्बानी से १२ सौ करोड़ रुपये का जुर्माना वसूला था। यह चन्द्र शेखर का ही व्यक्तित्व था कि मंडल, मंदिर और भूमंडलीकरण के मुद्दों पर उन्होंने कभी भावनात्मक उभार की राजनीति ना करके समन्वय और सामंजस्य की अनवरत चेष्टा करी।

चन्द्र शेखर ने अपने अल्प प्रधानमंत्रित्व काल में मंदिर-मस्जिद मामले में लोगों के बीच की दूरियां पाटने की कोशिश करी। मंडलवाद का फायदा लालू-मुलायम ने और मंदिर मुद्दे का फायदा भाजपा ने उठाया, लेकिन चन्द्र शेखर बिना इसकी परवाह किये हुये एवं के दिलों की दूरियों को कम करने की चिंता और चेष्टा में लगे रहे। स्वदेशी के सवाल पर चन्द्र शेखर सक्रिय हुये, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यक्रमों में भी भागीदार रहे। चन्द्र शेखर ने राजनीतिक लाभ व संगठन की मजबूती की जगह विचारों के प्रचार व दृठता को महत्व दिया। समाजवादी लेखक- पत्रकार मस्तराम कपूर के अनुसार ---- चन्द्र शेखर सदाबहार वृक्ष नहीं थे। वे ऐसे पेड़ थे जो पतझड में अपने पत्ते निर्विकार भाव से छोड़ देता है और फिर नए पत्ते और कोपलों के लिए अपने को तैयार कर लेता है। लेकिन इसी व्यावहारिकता में राजनीति के इस अजातशत्रु की राजनीतिक विरासत विलीन हो गयी।

[B]लेखक अरविंद विद्रोही पत्रकारिता से जुडे हुए हैं. [/B]

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