Sunday, April 22, 2012

फ़ैज़ को याद करते हुए

फ़ैज़ को याद करते हुए


Sunday, 22 April 2012 13:31

कुलदीप कुमार 
जनसत्ता 22 अप्रैल, 2012: पिछले पचास सालों में फ़ैज़ अहमद 'फ़ैज़' को जितना हिंदी में पढ़ा गया है, उतना शायद उर्दू में भी न पढ़ा गया हो। देवनागरी लिपि में उनकी गजलें और नज्में पढ़ कर मुझ जैसे हिंदी पाठकों और लेखकों की कई पीढ़ियां बड़ी हुई हैं। वे जीवन भर एक वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता रहे, सैनिक तानाशाह जनरल जिया उल-हक ने उनकी कविताओं के सार्वजनिक पाठ पर पाबंदी भी लगाई, कई वर्षों तक वे जेल में भी रहे, पर इस सबके बावजूद वे जोश मलीहाबादी की तरह 'शायर-ए-इंकलाब' नहीं थे और उनकी कविता में क्रांति की घनगरज भी नहीं है। अगर कुछ है तो एक अति संवेदनशील दिल, नर्म अंदाज में आहिस्ता से हौले-हौले अपनी बात कहने की विलक्षण खूबी, गहरी रूमानियत और परिवर्तन की उत्कट कामना। 
इसलिए आश्चर्य नहीं कि गालिब के बाद हिंदी साहित्यप्रेमियों के बीच फ़ैज़ सबसे अधिक पसंद किए जाते हैं। पाकिस्तान से भी अधिक उत्साह से उनकी जन्मशती भारत में मनाई गई। इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए लगभग दो सप्ताह पहले दिल्ली के इंडिया हैबिटाट सेंटर में एक अनूठे कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें पाकिस्तान के मशहूर वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता और लेखक तारिक अली, जो दशकों से ब्रिटेन में रह रहे हैं, ने फ़ैज़ पर व्याख्यान दिया। इस कार्यक्रम का आयोजन भी एक अनूठे व्यक्ति ने किया था, जिनका पूरा नाम देवीप्रसाद त्रिपाठी अब अधिकतर लोग भूल गए हैं और सब उन्हें डीपीटी कह कर पुकारने लगे हैं। हालांकि मैं उन लोगों में शामिल नहीं हूं, लेकिन फिलहाल मैं भी उन्हें डीपीटी ही कहूंगा। 
तारिक अली की तरह ही डीपीटी भी करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी हैं। दोनों जबरदस्त वक्ता हैं, दोनों ने अपने लंबे राजनीतिक सफर में कई बार पलटी खाई है (मेरे एक पड़ोसी इसीलिए राजनेताओं को पलटीशियन कहते हैं) और इस सबके बावजूद दोनों के प्रशंसकों की तादाद में कोई कमी नहीं आई है। तारिक अली आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष रह चुके हैं तो डीपीटी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्रसंघ के। क्योंकि वे इमरजेंसी के दौरान अठारह महीने जेल में रहे, इसलिए जेएनयू छात्रसंघ के इतिहास में अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल सबसे लंबा था। डीपीटी एक जमाने में कवि हुआ करते थे, और इलाहाबाद के उनके पुराने साथी आज भी उन्हें (उनके तब के उपनाम) 'वियोगी' के रूप में ही जानते हैं। तारिक अली भी अंग्रेजी में उपन्यास और फिल्मों की पटकथाएं लिख चुके हैं। ब्रिटेन की संसद के लिए चुनाव भी लड़ चुके हैं, लेकिन सफल नहीं हुए। डीपीटी अभी-अभी सांसद बने हैं और राज्यसभा में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में सदस्यता की शपथ लेने वाले हैं। 
मैं डीपीटी से पहली बार अगस्त 1973 में और तारिक अली से दिसंबर 1973 में मिला था। दरअसल, मैंने अगस्त 1973 में इतिहास में एमए करने के लिए जेएनयू में प्रवेश लिया था और डीपीटी ने राजनीतिशास्त्र में। माकपा नेता सीताराम येचुरी इसी समय अर्थशास्त्र में एमए करने आए थे और हम सब कावेरी छात्रावास की एक ही विंग में रहते थे। उन दिनों तारिक अली ट्रॉटस्कीवादी हुआ करते थे, चौथे इंटरनेशनल की कार्यकारिणी के सदस्य थे और घनघोर क्रांतिकारिता की बातें करते थे। उनकी वक्तृता मंत्रमुग्ध कर देने वाली थी। जेएनयू के ट्रॉटस्कीवादियों के निमंत्रण पर वे दिसंबर 1973 में यहां आए और तभी मेरा उनसे परिचय कराया गया। चार-पांच दिन जब तक वे यहां रहे, लगभग हर रोज उनसे मिलना होता था, पर हमेशा अन्य लोगों की उपस्थिति में। यों भी मैं उस समय कमउम्र और अंतरराष्ट्रीय वामपंथ की पेचीदगियों से अपरिचित था। मेरे लिए ये सब बिलकुल नई बातें थीं और मैं चुपचाप ध्यान देकर सिर्फ सुनता रहता था। कभी बहुत हिम्मत हुई तो छोटा-सा सवाल पूछ लिया। 
जिस दिन तारिक अली का फ़ैज़ पर व्याख्यान होना था, उसी दिन सुबह मेरे अनन्य मित्र और सहपाठी प्रोफेसर सुदर्शन सेनेवीरत्ने का भारत और श्रीलंका की साझा सांस्कृतिक-ऐतिहासिक विरासत पर आॅब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में एक व्याख्यान हो रहा था, जिसकी अध्यक्षता हमारी गुरु और प्रसिद्ध इतिहासकार प्रोफेसर रोमिला थापर कर रही थीं। सुदर्शन इस समय श्रीलंका के शीर्षस्थ पुरातत्त्वविद और इतिहासकार हैं। वे पूर्व विदेशमंत्री लक्ष्मण कादिरगमार के वरिष्ठ सांस्कृतिक सलाहकार भी रह चुके हैं। 1973 में तारिक अली के जेएनयू में रहने-सहने की व्यवस्था करने और उनके व्याख्यानों के लिए विश्वविद्यालय प्रशासन से अनुमति और स्थान प्राप्त करने के लिए उन्होंने ही सबसे ज्यादा भागदौड़ की थी। 
जब मैंने व्याख्यान के बाद उन्हें और प्रोफेसर थापर को शाम के कार्यक्रम के बारे में बताया तो दोनों ने ही आने की इच्छा प्रकट की और वे आए भी। हालांकि कार्यक्रम इंडिया हैबिटाट सेंटर में था, लेकिन जेएनयू के पुराने मित्र-परिचित इतनी अधिक संख्या में आए थे कि लग रहा था जैसे गया वक्त लौट आया हो। और जब तारिक अली ने बोलना शुरू किया तो दिसंबर 1973 के वे दिन बेसाख्ता याद आ गए। किसी भी तरह के नोट्स के बिना तारिक अली ने फ़ैज़ पर जैसा गंभीर और अर्थगर्भित व्याख्यान दिया और उनकी कविता को विश्व में हो रहे परिवर्तनों के परिदृश्य में रख कर उसकी जिस तरह की व्याख्या की, वह उनके ही बस की बात थी। पाकिस्तान के बारे में उनकी सटीक टिप्पणियां सोने में सुहागे का काम कर रही थीं। 

तारिक अली ने आम लोगों की काव्य-चेतना और   साहित्यिक समझ को रूपाकार देने में मुशायरों की भूमिका पर विस्तार से प्रकाश डाला और कवि तथा उसके श्रोता-पाठक समुदाय के बीच के गहरे रिश्ते की चर्चा की। जब वे इस बिंदु पर धाराप्रवाह बोल रहे थे, तब मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठ रहा था कि उर्दू परंपरा के बरक्स हिंदी में इस समय अच्छी कविता और आमजन के बीच का रिश्ता लगभग पूरी तरह टूट चुका है। नागार्जुन इस अर्थ में सबसे अलग थे, क्योंकि उनका और उनकी कविता का आमजन के साथ आत्मीय संबंध अंत तक बना रहा। हिंदी कविता और वाचिक परंपरा के बीच चौड़ी होती जा रही खाई ने क्या एक कृत्रिम किस्म की कविता को जन्म नहीं दिया है, जिसे कवि ही लिखते और कवि ही पढ़ते हैं? साहित्य का आम पाठक भी कविता को कितना पढ़ता है, यह कविता संग्रहों की बिक्री की हालत देख कर ही स्पष्ट हो जाता है। 
क्या आज किसी भी हिंदी कवि की जनता के बीच ऐसी लोकप्रियता है जैसी फ़ैज़ की थी और है? फ़ैज़ की पहली बरसी पर लाहौर में एक मेले का आयोजन किया गया था। पाकिस्तान में जनरल जिया का शासन था और फ़ैज़ की रचनाओं के सार्वजनिक पाठ पर पाबंदी लगी हुई थी। इसके बावजूद मेले में लाखों लोग जमा हुए और इकबाल बानो ने प्रतिबंध की परवाह किए बगैर फ़ैज़ की नज्में और गजलें गार्इं। जब उन्होंने यह पंक्ति गाई-'सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे', तब लोगों ने जैसी कर्णभेदी तालियां बजार्इं उनसे सैनिक तानाशाह की नींद हराम हो गई। लेकिन कविता के सामने तानाशाही भी बेबस साबित हुई। क्या हिंदी में कोई कवि है, जिसकी कविता में वह कशिश और ताकत हो कि गायक-गायिकाएं उसे गाने के लिए तानाशाही से भी टकरा जाएं और जिसे सुनने के लिए लाखों की तादाद में लोग जमा हों? 
तारिक अली ने कविता की शक्ति के बारे में बोलते हुए व्यंग्य में कहा कि तानाशाह उस पर पाबंदियां लगाते हैं, इसी से जाहिर है कि वे कविता समझते हैं और उन्हें उसकी ताकत का अहसास है। उन्होंने बताया कि लोकप्रिय कवियों के इराक छोड़ कर चले जाने के बाद बगदाद के सांस्कृतिक जीवन में आई शून्यता को भांप कर सद्दाम हुसैन ने उनसे वापस आने का आग्रह किया था। तारिक अली मई 1968 के छात्र आंदोलन में भी सक्रिय थे। उस समय जब दार्शनिक लेखक ज्यां पॉल सार्त्र ने कानून तोड़ कर प्रतिबंधित अखबार को पेरिस के चौराहों पर बेचने का काम किया तो उनकी गिरफ्तारी की अनुमति लेने गए अधिकारियों को राष्ट्रपति द गॉल ने यह कह कर रोक दिया कि फ्रांस अपने वोल्तेयर को कैसे गिरफ्तार कर सकता है? हमारे देश में है कोई ऐसा लेखक, जिसे यह गौरव प्राप्त हो? 
बहुत लोग सोचेंगे कि फ़ैज़ से डीपीटी का ऐसा क्या रिश्ता, जो उन्होंने पिछले वर्ष अपनी अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका 'थिंक इंडिया' का फ़ैज़ विशेषांक निकाला और अब यह कार्यक्रम आयोजित किया? 1981 में जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ा रहे थे, तब उनके कहने पर कुलपति उदितनारायण सिंह ने विश्वविद्यालय की ओर से फ़ैज़ को आमंत्रित किया था। यह डीपीटी ही थे जो फ़ैज़, फिराक और महादेवी वर्मा को एक ही मंच पर ले आए थे। राजनीति में इतने लंबे अरसे से सक्रिय रहने के बावजूद डीपीटी के भीतर का कवि अक्सर जोर मारता रहता है। हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों से उनका इलाहाबाद में भी निकट का परिचय था और दिल्ली में भी है। पिछले साल ही शमशेर, नागार्जुन और अज्ञेय की जन्मशती थी। अगर वे ऐसी ही दिलचस्पी इनमें भी दिखाते तो और भी अच्छा लगता। श्रीकांत वर्मा के बाद राज्यसभा में पहुंचने वाले वे संभवत: पहले व्यक्ति हैं, जो हिंदी साहित्य और साहित्यकारों के इतना निकट हैं। क्या उनसे उम्मीद की जाए कि वे संसद में साहित्य-संस्कृति से जुड़े सवालों को उठाएंगे?

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