Sunday, 22 April 2012 13:31 |
कुलदीप कुमार क्या आज किसी भी हिंदी कवि की जनता के बीच ऐसी लोकप्रियता है जैसी फ़ैज़ की थी और है? फ़ैज़ की पहली बरसी पर लाहौर में एक मेले का आयोजन किया गया था। पाकिस्तान में जनरल जिया का शासन था और फ़ैज़ की रचनाओं के सार्वजनिक पाठ पर पाबंदी लगी हुई थी। इसके बावजूद मेले में लाखों लोग जमा हुए और इकबाल बानो ने प्रतिबंध की परवाह किए बगैर फ़ैज़ की नज्में और गजलें गार्इं। जब उन्होंने यह पंक्ति गाई-'सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे', तब लोगों ने जैसी कर्णभेदी तालियां बजार्इं उनसे सैनिक तानाशाह की नींद हराम हो गई। लेकिन कविता के सामने तानाशाही भी बेबस साबित हुई। क्या हिंदी में कोई कवि है, जिसकी कविता में वह कशिश और ताकत हो कि गायक-गायिकाएं उसे गाने के लिए तानाशाही से भी टकरा जाएं और जिसे सुनने के लिए लाखों की तादाद में लोग जमा हों? तारिक अली ने कविता की शक्ति के बारे में बोलते हुए व्यंग्य में कहा कि तानाशाह उस पर पाबंदियां लगाते हैं, इसी से जाहिर है कि वे कविता समझते हैं और उन्हें उसकी ताकत का अहसास है। उन्होंने बताया कि लोकप्रिय कवियों के इराक छोड़ कर चले जाने के बाद बगदाद के सांस्कृतिक जीवन में आई शून्यता को भांप कर सद्दाम हुसैन ने उनसे वापस आने का आग्रह किया था। तारिक अली मई 1968 के छात्र आंदोलन में भी सक्रिय थे। उस समय जब दार्शनिक लेखक ज्यां पॉल सार्त्र ने कानून तोड़ कर प्रतिबंधित अखबार को पेरिस के चौराहों पर बेचने का काम किया तो उनकी गिरफ्तारी की अनुमति लेने गए अधिकारियों को राष्ट्रपति द गॉल ने यह कह कर रोक दिया कि फ्रांस अपने वोल्तेयर को कैसे गिरफ्तार कर सकता है? हमारे देश में है कोई ऐसा लेखक, जिसे यह गौरव प्राप्त हो? बहुत लोग सोचेंगे कि फ़ैज़ से डीपीटी का ऐसा क्या रिश्ता, जो उन्होंने पिछले वर्ष अपनी अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका 'थिंक इंडिया' का फ़ैज़ विशेषांक निकाला और अब यह कार्यक्रम आयोजित किया? 1981 में जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र पढ़ा रहे थे, तब उनके कहने पर कुलपति उदितनारायण सिंह ने विश्वविद्यालय की ओर से फ़ैज़ को आमंत्रित किया था। यह डीपीटी ही थे जो फ़ैज़, फिराक और महादेवी वर्मा को एक ही मंच पर ले आए थे। राजनीति में इतने लंबे अरसे से सक्रिय रहने के बावजूद डीपीटी के भीतर का कवि अक्सर जोर मारता रहता है। हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकारों से उनका इलाहाबाद में भी निकट का परिचय था और दिल्ली में भी है। पिछले साल ही शमशेर, नागार्जुन और अज्ञेय की जन्मशती थी। अगर वे ऐसी ही दिलचस्पी इनमें भी दिखाते तो और भी अच्छा लगता। श्रीकांत वर्मा के बाद राज्यसभा में पहुंचने वाले वे संभवत: पहले व्यक्ति हैं, जो हिंदी साहित्य और साहित्यकारों के इतना निकट हैं। क्या उनसे उम्मीद की जाए कि वे संसद में साहित्य-संस्कृति से जुड़े सवालों को उठाएंगे? |
Sunday, April 22, 2012
फ़ैज़ को याद करते हुए
फ़ैज़ को याद करते हुए
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