Sunday, April 1, 2012

भाषा और सामाजिक भेदभाव

भाषा और सामाजिक भेदभाव

Sunday, 01 April 2012 14:27

तुलसी राम 
जनसत्ता 1 अप्रैल, 2012: चार मार्च को एम्स के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली। मीडिया में खबर आने लगी कि अंग्रेजी भाषा के चलते उस छात्र का अकादमिक प्रदर्शन ठीक नहीं था, इसलिए उसने अपनी जान दे दी। भारत में भाषाई भेदभाव बहुत पुराना है। सदियों तक अशिक्षा के दौर में संस्कृत माध्यम वाले 'गुरुकुल' में या तो ब्राह्मण पढ़ते थे या राजघराने के लोग। इसमें स्त्रियों की शिक्षा वर्जित थी, भले ही वे उच्च कुल की क्यों न हों। प्राचीन काल की गार्गी, लोपामुद्रा जैसी कुछ महिलाओं का इतिहासकार बहुत उदाहरण देते हैं कि वे वेद-पारंगत थीं और संस्कृत में शास्त्रार्थ करती थीं। इस सच्चाई के पीछे भ्रम ज्यादा फैलाया जाता है। हकीकत यह थी कि उस समय उन्हीं महिलाओं को शिक्षित होने का अधिकार था, जो अपने पिता या भाई से शिक्षा प्राप्त कर सकती थीं। गार्गी या लोपामुद्रा इसी श्रेणी में आती थीं। दूसरी तरफ संस्कृत को देववाणी कह कर इसे पवित्र घोषित कर दिया गया। ऐसी स्थिति में दलित या अन्य शूद्र जातियां न सिर्फ अशिक्षित रह गर्इं, बल्कि संस्कृत जानने वालों द्वारा सामाजिक भेदभाव की शिकार भी हो गर्इं। 
संस्कृत ग्रंथों को छिपा कर रखा जाता है। यहां तक कि शूद्रों के उन्हें देखने, सुनने या छूने पर कठिन दंड का प्रावधान था। यह बात और है कि संस्कृत की पवित्रता ही उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बन गई। नतीजतन, यह मात्र कर्मकांड की भाषा बन कर रह गई। इस कड़ी में सुल्तानों और मुगलों के समय शिक्षा गुरुकुल से बाहर आई, पर मस्जिदों में सिमट कर रह गई। यानी मदरसा प्रणाली का विकास हुआ, जिसमें सिर्फ मुसलमान शिक्षित हो सके। दलितों या शूद्रों को यहां भी कोई अवसर नहीं प्राप्त हुआ। 
एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि गुरुकुल में जहां संस्कृत थी, मदरसों में उसका स्थान अरबी, फारसी और उर्दू ने ले लिया। ऐसे ही जब ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का शासन आया, आधुनिक शिक्षा की नींव तो अवश्य पड़ी, पर इन शिक्षण संस्थाओं में भी उच्च जातियों का ही वर्चस्व स्थापित हो गया। यहां अंग्रेजी का वर्चस्व हो गया। परिणामस्वरूप यह देखा गया कि शिक्षा की प्रणाली चाहे जो भी रही, दलित सदियों तक उससे वंचित रहे। आजादी के पहले डॉ आंबेडकर को बड़ी मुश्किल से सिर्फ पांच दलित स्नातक यानी ग्रेजुएट मिले थे। इसलिए दलितों के बीच जो भी शिक्षा आई वह 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर होने के बाद आई। विशेष रूप से 1950 में जब भारत का नया संविधान लागू हुआ, तो आरक्षण व्यवथा के चलते शिक्षा के क्षेत्र में धीरे-धीरे दलित आने लगे। 
कुल मिलाकर यह स्पष्ट है कि शिक्षा का भाषाई माध्यम चाहे जो भी रहा, वह दलितों के लिए पराया सिद्ध हुआ। इसलिए भेदभाव एक आवश्यक प्रक्रिया का अंग बन गया। भारतीय समाज जाति-व्यवस्था पर आधारित है और जाति-व्यवस्था धर्म की देन है। इसलिए जातीय भेदभाव भी धर्म पर ही आधारित है। यहां तक कि भाषा को भी धर्म से जोड़ दिया गया। इस संदर्भ में भाषाओं का सांप्रदायीकरण भी हुआ। इसमें भी दलित कहीं फिट होते नहीं दिखे। ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली आधुनिक तो थी, पर अंग्रेजी माध्यम ने इसे औपनिवेशिक बना दिया। कुल मिलाकर यह देखा गया कि भारत में शिक्षा प्रणाली चाहे जो भी रही हो, उसमें उच्च जाति या उच्च वर्गों का ही वर्चस्व रहा। 
चूंकि शिक्षा का संबंध सीधे-सीधे रोजगार से है, इसलिए शिक्षण संस्थानों में दलितों के साथ भेदभाव अंतर्निहित-सा हो गया है। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से पता चलता है कि भाषाई कमजोरी सामाजिक भेदभाव को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती है। इस यथार्थ को देखते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने वर्षों पहले एक अनोखी नीति अपनाई थी, जिसके तहत सभी विश्वविद्यालयों से कहा गया था कि वे अपने यहां 'ईक्वल अपार्चुनिटी आॅफिस' (ईओओ) यानी समान अवसर कार्यालय खोलें और दलित तथा आदिवासी छात्रों को रेमेडियल कोचिंग प्रदान करें। रेमेडियल कोचिंग का सुझाव दो तरह का था- एक, भाषाई कोचिंग यानी अंग्रेजी की कोचिंग, और दूसरा, विषय संबंधी कोचिंग।


इस मद में आने वाले सारे खर्चों की जिम्मेदारी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने अपने ऊपर ली थी। 
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय देश का पहला संस्थान था, जिसने लगभग पंद्रह वर्ष पहले रेमेडिअल कोचिंग शुरू की थी। मैं खुद 'ईओओ' का तीन टर्म इंचार्ज था। इस संदर्भ में मेरा अनुभव अत्यंत निराशाजनक था। तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र रिमेडियल कोचिंग में अनुपस्थित रहते थे। धीरे-धीरे यह व्यवस्था धराशायी हो गई। यहां मेरा एक अनुभव यह रहा है कि लगभग सारे छात्र दाखिला पाने के साथ ही संघ लोकसेवा आयोग और प्रदेश लोकसेवा आयोग (पीसीएस) की परीक्षाओं में शामिल होने की तैयारी में व्यस्त हो जाते हैं। नतीजतन, कक्षा में उनकी प्रगति संतोषजनक नहीं हो पाती। अधिकतर छात्र न इधर के होते हैं न उधर के। इस कारण अनेक छात्र-छात्राएं सामाजिक भेदभाव की शिकायत दर्ज करा चुके हैं। 
जांच के दौरान मैंने पाया कि कई मामलों में जातीय भेदभाव न होकर व्यक्तिगत स्तर पर आपसी समझ की कमी थी। ईओओ के अनुभव से यह भी पता चला कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी होने के कारण छात्र रेमेडियल कोचिंग में रुचि नहीं लेते थे। इससे यह सिद्ध होता है कि शिक्षा प्रणाली ही दोषपूर्ण और भेदभाव वाली है। अगर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो, तो बहुत हद तक भाषाई भेदभाव कम किया जा सकता है। जब तक मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम नहीं बनाया जाएगा, छात्रों के समक्ष अनेक समस्याएं खड़ी होती रहेंगी। विश्व समुदाय का उदाहरण है कि अपनी मातृभाषा   अपनाने वाले देश ही ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे निकले। रूस, चीन, जापान, फ्रांस, जर्मनी, इटली, स्पेन, इंग्लैंड, अमेरिका आदि इसके ज्वलंत उदहारण हैं। इन सारे देशों में शिक्षा का माध्यम आज भी मातृभाषा है। 
डॉ आंबेडकर ने कभी कहा था कि अंग्रेजी शेरनी का दूध है, इसे जो पीएगा, वह दहाड़ेगा। ब्रिटिश राज में यह बात एकदम सही थी और भारतीय राज में भी तब तक सही जान पड़ेगी, जब तक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रहेगी। असली ज्ञान अपनी भाषा में उत्पन्न होता है, विशेष रूप से  साहित्य विदेशी भाषा में कभी पनप नहीं सकता। 
आजादी के बाद अगर आंकड़े इकट््ठा किए जाएं तो पता चलेगा कि अधिकतर छात्र अंग्रेजी में विफल होकर अपना भविष्य नष्ट कर चुके हंै। कुछ अच्छी अंग्रेजी जानने वाले छात्र आगे अवश्य निकल जाते हैं, जिसके कारण अंग्रेजी के महत्त्व को लोग स्वीकार करने लगते हैं। वास्तविकता यह है कि मातृभाषा की उपेक्षा के कारण अंग्रेजी का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। एक वैकल्पिक भाषा के रूप में अंग्रेजी का अध्ययन ठीक है, पर शिक्षा का माध्यम हमेशा मातृभाषा ही होनी चाहिए। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि मातृभाषा में शिक्षा का माध्यम होने से ही सामाजिक भेदभाव समाप्त हो जाएगा। 
इधर कुछ वर्षों से शिक्षण संस्थानों में भेदभाव की घटनाएं बड़ी तेजी से सामने आ रही हैं। कई आत्महत्याएं भी हुई हैं। इसका मूल कारण है कि पिछले दो दशकों के दौरान भारत की राजनीति में बड़े स्तर पर जातीय ध्रुवीकरण हुआ है, जिसके कारण सांप्रदायिक और क्षेत्रीयतावादी ध्रुवीकरण भी तेजी से बढ़ा है। इसका परिणाम यह हुआ है कि हर जाति का जातीय गौरव चरम सीमा पार कर गया है। जाति-विरोधी जागरूकता एकदम समाप्त हो गई है। इसलिए राजनीति में जातीय सोच धीरे-धीरे सामाजिक सोच बनता जा रहा है। परिणामस्वरूप जातीय भेदभाव बड़ी तेजी से उभरने लगा है। अब पार्टियां नहीं, बल्कि जातियां सत्ता में आ रही हैं। ऐसी स्थिति में भारतीय जनतंत्र जातीय जनतंत्र में बदलता जा रहा है। 
इसलिए जरूरत इस बात की है कि शिक्षा प्रणाली में आमूल परिवर्तन करके जाति-विरोधी मानसिकता तैयार की जाए। साथ ही जरूरत है फिर से जाति-विरोधी सामाजिक आंदोलनों को जीवित करके सामाजिक जागरूकता पैदा करने की। जब तक राजनीतिक सत्ता जाति पर आधारित रहेगी, जातीय भेदभाव भी जारी रहेगा। जातीय भेदभाव दूर करने में छात्रों की भूमिका सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। इसलिए स्कूली शिक्षा को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष बनाना पड़ेगा, अन्यथा सामाजिक भेदभाव जैसे अब तक रहा है, आगे भी जारी रहेगा।

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