प्यारी मिस ब्राइट हम पादते नहीं, हम लिखते हैं!
♦ व्यालोक पाठक
जाने से पहले मुझे बताओ
तुम पादते क्यों नहीं?
क्या सचमुच नहीं पादते?
जवाब
प्यारी मिस ब्राइट
हम पादते नहीं,
हम लिखते जो हैं!
…
खुशवंत सिंह ने अपने उपन्यास दिल्ली में इस कविता का जिक्र किया है। अभी जब माननीय विष्णु खरे और अभिषेक श्रीवास्तव के बीच पत्रों (या मेल) के आदान-प्रदान के बीच जो बात निकल कर आयी (?) या आ रही है, उस पर मुझे बरबस ही हंसी आयी और याद आ गयी यह कविता। मैंने हालांकि श्रीवास्तव जी के पोस्ट पर अपनी त्वरित प्रतिक्रिया में यह शंका जतायी भी है कि मार-तमाम वामपंथी बुद्धिजीवी इस मौके पर चुप्पी साधने और कन्नी काटने में ही भलाई समझेंगे।
मैं जेएनयू का पढ़ा हूं और इसी वजह से इन तथाकथित वामपंथियों को बेहतर ढंग से देखने और जानने की गलतफहमी भी पालता हूं। वह एक ऐसा टापू था, जहां वामपंथ के खिलाफ खड़ा होना गूदे का काम था और हमारे वामपंथी भाई इसी गपड़चौथ में लगे रहते थे कि मैं ज्यादा रैडिकल या तू ज्यादा रैडिकल (तर्ज इसकी कमीज, मेरी कमीज से उजली कैसे?)। हालांकि, वहीं के ढाबा सेशन, चुनावी चकल्लस और चाय की चुस्कियों के बीच वामपंथी भाइयों (और इनके सीनियर्स की भी, बुजुर्ग कहने पर बुरा मान जाते हैं) की असलियत भी उतरते देखी।
आज, विष्णु खरे जी का प्रलाप किसी खिसियाये दक्षिणपंथी की तरह अगर लग रहा है, तो उसमें उनकी कोई गलती नहीं। वामपंथी धुरंधर अमूमन अपना पाला इसी अंदाज से बदलते रहे हैं। हमारे वक्त सोवियत संघ का पतन हुए ज्यादा देर नहीं हुई थी, (सच पूछिए तो एक दशक पूरा होने में भी दो-तीन साल बाकी थे) लेकिन कई भाई लोग अपनी लाइब्रेरी जला चुके थे। तो मॉस्को या लेनिनग्राद में बारिश होने पर छाता खोलने की फिर बात ही क्या करें।
शब्दवीर वामपंथी हमेशा से रहे हैं और इसमें इन्हें कोई जीत कर दिखा दे। याद कीजिए मंगलेश डबराल का वह स्यापा, वह विलाप (हा हंत, हम न हुए) जो इन्होंने योगी आदित्यनाथ के साथ उदय प्रकाश के मंच साझा करने पर मचाया था। आज बड़ी शिद्दत और मजे से वह राकेश सिन्हा के हमसफर हैं। बाकी जानकारी तो श्रीवास्तव जी ने ही चस्पां कर दी है कि किस कदर वह उनकी कविताओं पर बैठे रहे और कोयला माफिया की गोद से उठे ही नहीं।
भागी हुई लड़कियां लिखने वाले आलोकधन्वा वर्धा भाग गये। विभूति नारायण की शरण में। हालांकि, अब दो साल बाद वह लौट आये हैं और पाटलिपुत्र की पावन धरती में फिर से लाल-लाल हो रहे हैं। वैसे विभूति की शरण में बहुतेरे लोग आये, गये और फिर जाएंगे। राजकिशोर जैसे समाजवादी से लेकर अशोक मिश्रा जैसे साम्यवादी तक। हां, जनपक्षधर पत्रकार अनिल चमड़िया भी वहां साल भर गुजार आये हैं, बाद में जब लगा कि अब नौकरी जाने वाली है, तो अचानक से विरोध करने लगे। विमलकुमार से लेकर और भी कई नामचीन हैं, जो समय-समय पर वर्धा को पवित्र करते हैं।
बाबा नामवर का ठाकुरवाद किसे पता नहीं। उन्होंने तो भाई आनंद मोहन सिंह की पत्नी द्वारा लिखित किताब का विमोचन कर ही दिया होता, पता नहीं अंत समय में किस चेले ने उनको सावधान कर दिया और बाबा कट लिये। पंकज बिष्ट जीवन भर सरकारी नौकरी कर, उसके पैसे खा समयांतर कर रहे हैं और पंकज सिंह का खेल किसे पता नहीं। वह एक साल बीबीसी की नौकरी कर आज तक उसके नॉस्टैल्जिया से ही मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। हरेक को लंदन की चाय ही पिलाते हैं।
सूची अंतहीन है और कारनामे अनंत। यह बस एक झांकी थी, हमारे स्वनामधन्य वामपंथी बगुलाभगतों में से कुछेक की। इसलिए न तो यह कारनामा नया है, न ही अंतिम।
♦ एक कविता, जिसने इजराइल को बेनकाब कर दिया!
♦ आप मुंह के अलावा और कहां कहां से बोलते हैं विष्णु खरे?
♦ नाम्या का कुछ भरोसा नहीं, सबको चूत्या बनाता फिरता है!
…
(व्यालोक पाठक। जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय और भारतीय जनसंचार संस्थान से डिग्रियां। कई मीडिया संस्थानों के अलावा साप्ताहिक चौथी दुनिया और दैनिक भास्कर के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता। फिलहाल बिहार में सामाजिक कामों से जुड़े हैं। उनसे vyalok@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)
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