Monday, 16 April 2012 10:36 |
नरेश गोस्वामी व्यक्ति और समाज की इस नई दासता के लिए अगर किसी एक घटक को जिम्मेदार माना जाए तो ध्यान सबसे पहले सरकार नामक संस्था पर जाता है। वही सरकार जिसके होने का औचित्य ही यही है कि वह अपने नागरिकों के जीवन को गरिमापूर्ण और सुरक्षित बनाए, अब खुद उस वर्ग की हिमायती बन गई है जिसे स्थानीय से कोई सरोकार नहीं रह गया है। कुछ लोग तर्क देते हैं कि समाज और अर्थव्यवस्था आदि आज जिस जटिल स्थिति में पहुंच गए हैं उसमें स्थानीय और लघु की बात करना बहुत प्रासंगिक और कारगर नहीं हो सकता। लेकिन गौर से देखें तो यह सार्वभौमिक-सा लगता वक्तव्य वास्तव में पूंजीवादी विज्ञान और तकनीक की उस तानाशाही की ओर इशारा करता है जिसमें मनुष्य को निर्माता और उत्पादक के बजाय उपभोक्ता भर बना दिया गया है। यह एक ऐसी त्रासदी है जिसने मनुष्य से उसकी स्वायत्तता छीन ली है। यों कहा यह जाता है कि विज्ञान और तकनीक ने जीवन को आसान बना दिया है, जबकि इसके पीछे छिपाए गए इस बड़े सच पर बात नहीं की जाती कि मनुष्य को किस तरह एक नकली, असहज और अप्राकृतिक जीवन की ओर धकेला गया है। इस स्थिति का भयावह पक्ष यह भी है कि इस केंद्रिकता को लेकर जिस तरह की सहमति बनाई गई है उसमें बाकी के विचारों, जीवन शैलियों और विमर्शों को कमतर, रूमानी या अतीत-मोह के खाते में डाल दिया जाता है। यह बात सिर्फ दार्शनिक और अकादमिक बहसों में ही नहीं बल्कि भारत के किसी नामालूम गांव और कस्बे में चलने वाली रोजमर्रा की आमफहम बातों में भी महसूस की जा सकती है। आज से दसेक साल पहले तक सिर्फ शहरों के आसपास के देहात में जमीन के भाव मायने रखते थे। लेकिन अब तथाकथित रूप से पिछड़े इलाकों में भी जमीन की कीमत वहां पहुंच गई है जिसके दाम करोड़पति और अरबपति ही चुका सकते हैं। कृषि मंत्रालय द्वारा कराए गए एक सर्वेक्षण से पता चला है कि खेती पर आश्रित लोगों में चालीस फीसद इसे मजबूरी का काम मानते हैं और अगर उन्हें विकल्प मिल जाए तो वे खेती छोड़ने को तैयार बैठे हैं। इस स्थिति का एक दूसरा चित्र देखें। देहातों में आज ऐसे युवाओं की संख्या चौंकाने वाली है जिनके लिए प्रॉपर्टी डीलिंग एक मुकम्मल धंधा बन चुका है। यह हालत कहीं न कहीं इसलिए पैदा हुई है कि छोटे काश्तकार को अब यह लगने लगा है कि उसके दुखों और अभावों का मूल कारण खेती है। उसके दम पर न वह बच्चों को पढ़ सकता है न बेटियों का ब्याह-काज कर सकता है। देशभक्ति की सीख देने वाली उस फिल्मी धारणा की तो बात ही छोड़िए, जिसमें देश की धरती को सोना उगलने वाली बताया जाता था। आज स्थिति यह है कि औसत किसान भोजन के रूप में वही सब खाने को मजबूर है जो उसके खेत से बाहर पैदा हो रहा है। गौर करें कि यह सब व्यवस्था निर्मित त्रासदी है। यह कोई प्राकृतिक विधान नहीं है, जिसे उलट कर दुबारा न गढ़ा जा सके। लेकिन असल में यही वह स्थिति है जिससे एक छोटे-से वर्ग को पूंजी के जरिए विज्ञान और तकनीक और अंतत: समाज और मनुष्यता के व्यापक हिस्से पर अपना अधिकार जमाने की ताकत मिलती है। अपने प्रभाव में यह ताकत इतनी मारक हो चुकी है कि उसने जीवन-यापन को एकांगी, जटिल और दुखदायी ही नहीं बनाया है बल्कि अपने ज्ञानशास्त्र के जरिए वह उस विचार को भी बेकार और पिछड़ा साबित कर देती है जो उसके द्वारा निर्धारित असहज और नकली जीवन के विरोध में खड़ा होने की जुर्रत करता है। विचित्र यह है कि हमारी राज्य व्यवस्था एक तरफ तो विकेंद्रीकरण की बात करती है। स्थानीय शासन को पंचायतों को सौंपने की बात करती है। लेकिन जब पूरी व्यवस्था केवल वृहत से संचालित हो रही हो और उसमें लघु और स्थानीय की कोई जगह ही न हो तो फिर ऐसे विकेंद्रीकरण का क्या अर्थ रह जाता है। मसलन, खाद्य सुरक्षा अधिकार की बहस को लेकर कई जन-पक्षधर अर्थशास्त्री इस बात पर जोर दे रहे हैं कि अगर अनाज का भंडारण स्थानीय या पंचायत के स्तर पर किया जाए तो वह खाद्य सुरक्षा की केंद्रीकृत योजना से कहीं ज्यादा कारगर होगा। लेकिन गैर-जरूरी सूचनाओं से बजबजाते हमारे मीडिया में इन पहलुओं पर कभी बहस आयोजित नहीं की जाती। मौजूदा व्यवस्था में जो भी विशाल पूंजी के तंत्र पर विराजमान हो जाता है उसका हित स्थानीय से अलग हो जाता है, क्योंकि स्थानीय और लघु में उतना मुनाफा नहीं है। दूसरे, पूंजी की वैश्विक तानाशाही से लड़ने का एक बडा विकल्प स्थानीय और लघु के विचार को पुन: प्रतिष्ठित करने से भी जुड़ा है। यहां यह भी कहना जरूरी है कि लघु और स्थानीय आर्थिक संदर्भ तक सीमित नहीं हैं। सही मायने में स्थानीय को ही बहुलतावाद की कसौटी माना जा सकता है। यही नहीं, अब मनुष्य के बौद्धिक तंत्र और उसके विश्व-बोध को तभी बचाया जा सकता है जब वह स्थानीय आ्रैर लघु की ओर लौटे। लेकिन समस्या यह है कि विशाल पूंजी के सांस्कृतिक-वैचारिक ढांचे द्वारा स्थानीयता की एक ऐसी छवि गढ़ी गई है जिसमें वह पिछडेÞपन और जड़ता का पर्याय बन गई है।
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Monday, April 16, 2012
नई दासता की कड़ियां
नई दासता की कड़ियां
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