Sunday, April 15, 2012

अटलांटिक की रुबाई

अटलांटिक की रुबाई

Sunday, 15 April 2012 15:27

मधुकर उपाध्याय 
जनसत्ता 15 अप्रैल, 2012: बड़ी घटनाओं में, तमाम दूसरी खूबियों-खामियों के साथ, अनचाही बदनीयती की अनेक संभावनाएं निहित होती हैं। कई-कई अर्थों में। भले ही ऐसा इरादतन न हो, यह उनकी बुनावट का अहम हिस्सा होता है। फितरत में शुमार होता है। अव्वल तो यही कि उनमें खुद के इतने पहलू होते हैं कि उनकी गिनती या पूरी पड़ताल मुमकिन नहीं हो पाती। अपने में उलझा-उलझा कर रख देती है। हर बार किसी नए जाविए से, कोण से- कि लगता है अब तक की सारी समझ बेमानी थी। लाख कोशिश के बावजूद कोई न कोई सिरा छूट जाता है। कसक बनी रह जाती है कि एक किनारे जरूर पहुंचें, लेकिन कसर रह गई। भरोसा नहीं होता कि अबकी बार सब हाथ आ गया है और अब जो कुछ कहा जाएगा उसके पीछे यकीन की पुख्ता दीवार होगी। कभी न दरकने वाली।
पर ऐसा होता नहीं। दरकना आशंका न हो, दरीचा संभावना बना रहता है। यानी कि तब तक के लिए एक तात्कालिक नतीजे से संतोष करना पड़ता है। यह 'तब तक' भी यकीन के बहुत काबिल नहीं होता। इसकी मीयाद घटती-बढ़ती रहती है। पुराने नतीजों को खिझाती, मुंह चिढ़ाती। यह विवशता भी उसी बदनीयती की देन है कि लोग बड़ी घटनाओं के सीमित अर्थों के साथ जिएं। आगा-पीछा उसी में देखें। जोड़-घटाना, गुणा-भाग करते रहें। यह मान कर कि कुछ नया बाद में पता चलेगा। तब उसके अर्थ खुलेंगे, जब सिरे जुड़ेंगे। तब तक अपनी जिंदगी क्यों होम करें। यह प्रतीक्षा अनंतकालिक हो सकती है, क्योंकि मुकम्मल तस्वीर तो जब आएगी, तब आएगी। या शायद न भी आए। किसी महासागर की गहराइयों में आराम फरमा रही हो और उसे बरामद करने में जिंदगियां सर्फ हो जाएं।
इतना तक हो तो भी गनीमत। दरअसल, बात बड़ी घटनाओं की होती है, सो रुकती नहीं। यह ख्वाहिश भी नहीं होती कि वह रुके और जिंदगी थम जाए। किस्से खत्म हो जाएं। जीने का सहारा जाता रहे। उलटे वह फैलती जाती है। कभी अपने किए, कभी उनकी वजह से, जो बस पूरी नेकनीयती से उसे बेहतर किस्से में तब्दील कर देना चाहते हैं। दुनिया भर के लफ्फू-झन्ना साथ लग लेते हैं। रोज कहानियां बनती हैं। गढ़ी जाती हैं। जो नहीं होता, वह भी जुड़ता चलता है। इस हद तक कि कुछ अरसे बाद फर्क करना मुश्किल होने लगता है। उसमें, जो वाकई था और उसमें, जो ऐसे ही धंसा चला आया। इसलिए भी होती है बड़ी घटनाओं का पूरा सच जानने की बेचैनी, जो हो नहीं पाता और लोग उसी में खपते चले जाते हैं। गहरी असाध्य वीणा को आधा-तिहा समझते। जैसा बने। 
उमर खय्याम की रुबाइयों के अर्थ गहरे हैं और वे अपने आप में एक बड़ी घटना की तरह सामने आई थीं। तकरीबन एक हजार साल पहले। गणितज्ञ, दार्शनिक और कवि उमर खय्याम ने ग्यारहवीं सदी में, संभवत: समरकंद में, रुबाइयां कहनी शुरू की थीं, जो सिलसिला अगली सदी के दूसरे-तीसरे दशक तक जारी रहा। फारसी में होने की वजह से हो सकता है रुबाइयों का विस्तार एक भाषा-भूगोल तक सीमित रहा हो, उनकी गहराई पर सब एक राय थे। किसी को शुबहा नहीं था। उन्हें हमारे साथ बने ही रहना था। गरज यह कि रुबाइयों को कतई दरकार नहीं थी कि अपनी गहराई की पैमाइश के लिए वे डुबकी लगाएं और जाकर अटलांटिक महासागर की तलहटी में बैठ जाएं। या कि मुकाबला दो गहराइयों के बीच रहा हो और हम बेकार तबाह हुए जा रहे हों। उस गहराई तक पहुंचने में। 
अक्सर देखने में आता है कि बड़ी घटनाएं और बड़ी रचनाएं अक्खड़ और भुक्खड़ होती हैं। पूरी हेकड़ी के साथ, जो भी आसपास हो, सब खा जाने वाली। या उस विराट कहावती बरगद की तरह, जिसके नीचे कोई बड़ा पेड़ नहीं पनपता। इसके उलट तर्क हो सकते हैं कि छोटी घटनाएं-रचनाएं जितने तीखेपन के साथ चुभती हैं, असर डालती हैं, बड़े से बड़ा धमाका उनके मुकाबले प्रभाव के स्तर पर सतही साबित होता है। लेकिन यह सिर्फ तर्क है, बल्कि एक मायने में कुतर्क। इतना जरूर होता है कि कई छोटी घटनाएं, चाहे-अनचाहे, क्रमवार मिल कर एक ऐसा प्रभाव क्षेत्र पैदा करें, जो इतिहास की बुनियाद बने। यह तय कर दें कि आगे का रास्ता, टेढ़ा-मेढ़ा जैसा भी हो, वहीं से मुड़ेगा, जहां से वे उसे मोड़ना चाहेंगी। इस प्रक्रिया में वे जाने किस-किस को साथ खड़ा कर देंगी। जिल्दसाज को रचनाकार बना देंगी। गांठ बांध कर जोड़ देंगी। 

उमर खय्याम की रुबाइयों की एक दुर्लभ प्रति सौ साल पहले मार्च के महीने में लंदन में नीलाम हुई। उसमें मोती, मूंगा, पन्ना और डेढ़ हजार से ज्यादा रत्न जड़े हुए थे। हाथीदांत का बारीक काम था। सोने के पत्तर से उसकी जिल्द बनाई गई। पर कुल मिला कर भी वह बेशकीमती किताब से हल्की ही ठहरी। लंदन के सबसे मशहूर जिल्दसाज 'संगोर्स्की ऐंड सटक्लिफ' ने कई महीना उस पर काम किया। खास मयूरपंखी डिजाइन तैयार किया। जिल्दसाजों को पचास साल पहले किए गए रुबाइयों के फिट्जेराल्ड के बेहतरीन अंग्रेजी अनुवाद की वजह से अंदाजा था कि वे किसी मामूली किताब की जिल्द नहीं बना रहे हैं। रुबाइयों की संगीतात्मकता का भान था कि उन्होंने जिल्द पर वाद्ययंत्र चित्रित किए। ऐसा बनाने की पूरी कोशिश कि उनकी रचना सदियों बनी रहे। रुबाइयों को तो बचा रहना ही था। जिल्दसाज उसे अपने ढंग से सजा-संवार रहे थे। 
इसके बावजूद नीलामीघर 'सद्बी' की बोली में किताब की कीमत बहुत ऊपर नहीं गई। खरीदारों ने उसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई। बोली के अंत में किसी अनाम अमेरिकी नागरिक के प्रतिनिधि   गैब्रियल वीस ने उसे लगभग चार सौ पाउंड स्टर्लिंग में खरीद लिया। रुबाइयों को न्यूयार्क ले जाया जाना था और इसका इंतजाम साउथैम्प्टन से दस दिन बाद रवाना होने वाले जहाज में हुआ। यह रुबाइयों की इज्जत के अनुकूल भी था। आखिर वह जहाज दुनिया का सबसे बड़ा, महंगा, नफीस और चर्चित जलपोत 'टाइटैनिक' था। उसके इर्द-गिर्द सपनों की दुनिया का ताना-बाना बुना गया था। एक ऐसी दुनिया में ले जाने का ख्वाब, जो हकीकत से दूर गाढ़ी अंधेरी रात में बिछी पानी की पतली चादर पर बनी हो।
फ्रांस में रहने वाले लेबनानी लेखक अमीन मालूफ ने अपने उपन्यास 'समरकंद' में तो कल्पना के सहारे यहां तक कह दिया कि 'टाइटैनिक' से यात्रा करने वाली वह किताब दरअसल, उमर खय्याम की हस्तलिखित प्रति थी- रुबाइयों की मूल पांडुलिपि, जो न जाने कहां-कहां से होती हुई ईरान के शाह के पास पहुंची। ईरान की क्रांति के बाद शाह की नवासी और उसके अमेरिकी प्रेमी 'ओमर' उसे तेहरान से लेकर लंदन आए थे। 'ओमर' के लिए रुबाइयों की पांडुलिपि और अपनी प्रेमिका को न्यूयार्क ले जाने का इससे बेहतर तरीका शायद हो भी नहीं सकता था। उसने मूल रचना पढ़ने के लिए फारसी सीखी थी, प्रेम किया था, खतरे उठाए थे और वह 'टाइटैनिक' के डेक पर प्रेमिका के साथ रुबाइयां पढ़ते हुए अपनी यात्रा पूरी करना चाहता था। उसी 'टाइटैनिक' से, जिसे चार दिन की यात्रा के बाद पंद्रह अप्रैल को एक विशालकाय हिमखंड से टकरा कर डूब जाना था। अनंत प्रेम की अनंत यात्रा। 
जाहिर है, यह किस्सा अमीन मालूफ की कल्पना का हिस्सा था। पर इससे रुबाइयों की उस अलभ्य प्रति की कीमत कम नहीं होती। उसे संजो कर, संभाल कर जहाज में रखा गया, एक कीमती सामान की तरह। ऐसे खाने में, जिस पर किसी हादसे के समय पानी का असर न हो। 'टाइटैनिक' हादसे में जलपोत और उस पर सवार हजार से ज्यादा लोगों के साथ रुबाइयों की किताब ने भी जलसमाधि ले ली। अटलांटिक सागर की अतल गहराइयों में। इस बड़ी घटना और उसकी आपाधापी में किताब की मौजूदगी एक हफ्ते तक अलक्षित रही। बीस अप्रैल को 'न्यूयार्क टाइम्स' में एक छोटी-सी खबर छपी, तब दुनिया को पता चला कि उमर खय्याम की रुबाइयों की एक बेशकीमती प्रति समुद्र में डूब गई है। सौ साल में यकीनन उसके पन्ने समुद्री पानी के खारेपन में गल-खप गए होंगे। हो सकता है उसकी जिल्द बची हो, पर उसके भी मिलने की संभावना बहुत कम बची होगी। 
बड़ी घटनाएं फिर भी बची रह जाती हैं। अच्छा-बुरा वक्त झेलते। वे डूब नहीं जातीं बल्कि बूड़ कर उतराती हैं। रह-रह कर पानी से सर उठाती। 'टाइटैनिक' के डूबने की बड़ी घटना ने, एक पल को लगा कि, उमर खय्याम को भी अपनी अवांछित बदनीयती में लपेट लिया है। एक हजार साल तक अपनी सर्जनात्मक ऊर्जा और संगीत की धुनों पर तैरने वाली रुबाइयां डूब कैसे सकती थीं। किसी विलक्षण तैराक की तरह लंबा गोता लगा कर वे निकल आएंगी। बहुत देर पानी के अंदर रहने के बाद। उस समय, जब किनारे खड़े लोगों की सांसें थम गई हों। सतह पर पानी थिर हो गया हो। आशंका घर करने लगी हो। तभी वे अचानक एक हलचल के साथ सतह पर आती हैं। उथले साहिल की ओर बढ़ती हैं। पूरी गहराई अपने में समेटे।

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