Saturday, 21 April 2012 11:37 |
अरुण कुमार त्रिपाठी अखिलेश सरकार अगर मायावती सरकार के भ्रष्टाचार की जांच करवाती है और उसके गलत फैसलों को पलटती है तो उसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर ऐसा करते समय उन्हें खुन्नस और बदले की भावना के बजाय समाजवाद और डॉ राममनोहर लोहिया की उस महान परंपरा को ध्यान में रख कर काम करना चाहिए, जिसमें डॉ भीमराव आंबेडकर की उपेक्षा और अपमान नहीं, उनका सम्मान और उनसे तालमेल का भाव ही नहीं प्रयास भी रहा है। बाबा साहब शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की जगह सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। इस नजरिए से उनमें और डॉ लोहिया में पत्राचार हुआ था। लोहिया ने 10 दिसंबर 1955 को हैदराबाद से आंबेडकर को पत्र लिखा- प्रिय डॉ आंबेडकर, 'मैनकाइंड' पूरे मन से जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोल कर रखने का प्रयास करेगा। इसलिए आप अपना कोई लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी। आप जिस विषय पर चाहें लिखिए। हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर आप लिखना पसंद करें तो मैं चाहूंगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो, बल्कि आश्चर्य भी करे। मैं चाहता हूं कि क्रोध के साथ दया भी होनी चाहिए ताकि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें, बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के नेता बनें। लोहिया के उस पत्र के बाद उनके दो मित्रों- विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी- ने आंबेडकर से मुलाकात की, जिसका जिक्र आंबेडकर ने लोहिया को लिखे जवाबी पत्र में किया। आंबेडकर ने यह भी आश्वासन दिया कि शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति में वे उनके मित्रों का प्रस्ताव रखेंगे। विमल और धर्मवीर ने डॉ आंबेडकर को कानपुर की लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का न्योता भी दिया था। यह सिलसिला चल ही रहा था और लोहिया ने आंबेडकर से मिलने का समय मांगा था और उसके टलने और फिर तय होने के बीच ही बाबा साहब का निधन हो गया। कहने का मतलब यह है कि आंबेडकरवादियों की परंपरा भले गांधी और उनके अनुयायियों के प्रति आक्रामक रही हो, लेकिन लोहिया की परंपरा आंबेडकर के प्रति बेहद सम्मान की रही है। रहनी भी चाहिए, क्योंकि आंबेडकर, लोहिया से उन्नीस साल बडेÞ थे और उनका जाति संबंधी अध्ययन और चिंतन काफी व्यवस्थित था। सामाजिक समानता पर बेचैनी तो थी ही। उन्होंने दलितों ही नहीं, शूद्रों के बारे में भी विस्तार से विचार किया है और वे उनके शुभचिंतक थे। इसलिए अखिलेश सरकार अगर अपने को समाजवादी आंदोलन और राममनोहर लोहिया की परंपरा से जोड़ती है और उत्तर प्रदेश में मिले इस ऐतिहासिक मौके का बेहतर इस्तेमाल करना चाहती है तो उसे लोहिया पार्क बनाम आंबेडकर पार्क और उसके बहाने लोहिया बनाम आंबेडकर की नकली लड़ाई में नहीं उतरना चाहिए। उनके विचारों में मतभेद हो सकते हैं, उनके अनुयायी भी अलग हो सकते हैं, लेकिन समाजवादी आंदोलन आज जिस नाजुक और महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है उसमें इस झगड़े से वे ही हासिल कर सकते हैं जो या तो पूंजीवादी खेल खेलना चाहते हैं या फिर सवर्णों की फूट डालो राज करो वाली नीति अपना रहे हैं। समाजवादी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सत्ता में आने से समाजवाद की चर्चा फिर से शुरू हुई है। वह कैसा होगा, क्या होगा यह अलग बात है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंदी के दौर में उस शब्द में नया अर्थ डालने का अवसर है। भाकपा और माकपा ने अपने हाल में संपन्न हुए सम्मेलनों में समाजवाद के भारतीय स्वरूप की तलाश भी शुरू की है। संवाद और समन्वय की तमाम संभावनाओं को देखते हुए यह कतई शुभ नहीं होगा कि मूर्तियों और पार्कों के बहाने दलित बनाम पिछड़ा और लोहिया बनाम आंबेडकर का नया विवाद शुरू किया जाए। इसे टालने से ही उत्तर प्रदेश का कल्याण होगा और वहां की समाजवादी सरकार का भी। |
Saturday, April 21, 2012
आंबेडकर बनाम लोहिया की सीमाएं
आंबेडकर बनाम लोहिया की सीमाएं
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