Saturday, April 21, 2012

आंबेडकर बनाम लोहिया की सीमाएं

आंबेडकर बनाम लोहिया की सीमाएं


Saturday, 21 April 2012 11:37

अरुण कुमार त्रिपाठी 
जनसत्ता 21 अप्रैल, 2012: बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्मभूमि विवाद से लंबे समय बाद निकला उत्तर प्रदेश अब आंबेडकर और दलित पार्कों के विवाद की तरफ बढ़ रहा है। जिस प्रदेश का भावुक राजनीति का लंबा इतिहास रहा हो, वहां इस तरह के विवाद कितने घातक हो सकते हैं, उसे वहां के लोगों से ज्यादा कौन जान सकता है? इसके बावजूद इसे आंबेडकर बनाम लोहिया, पार्क बनाम अस्पताल, मायावती बनाम मुलायम सिंह बना कर हवा दी जा रही है तो इसमें जरूर कुछ निहित स्वार्थ है। 
जाहिर है, इस विवाद से बसपा नेता मायावती को विशेष तौर पर दलितों में अपना घटता जनाधार समेटने में आसानी होगी, जो इस चुनाव में प्रदेश की पचासी आरक्षित विधानसभा सीटों में सिर्फ पंद्रह पर जीत दिला सका है। उससे ज्यादा आसानी उन लोगों को भी होगी जो विघ्नसंतोषी प्रवृत्ति के होते हैं और जो इसी तरह से विवादों में अपना उल्लू सीधा करते हैं और सत्ता के करीब पहुंचते हैं। ऐसे लोगों में अफसर, राजनेता, पत्रकार और बुद्धिजीवी सभी शामिल होते हैं। 
बाबा साहब आंबेडकर की इसी जयंती पर मायावती ने लखनऊ के सामाजिक प्रेरणा स्थल पर चेतावनी दी कि अगर पार्कों और मूर्तियों से छेड़छाड़ की जाएगी तो कानून और व्यवस्था की समस्या खड़ी हो जाएगी और उसका दायरा महज प्रदेश नहीं पूरा देश होगा। जाहिर-सी बात है कि उत्तर प्रदेश सरकार और उसके मुखिया अखिलेश यादव को इस चेतावनी को हल्के में नहीं लेना चाहिए, क्योंकि आंबेडकर कोई महात्मा गांधी नहीं हैं जिनके अनुयायियों को सहनशीलता और अहिंसा की शिक्षा दी गई है। बाबा साहब के अनुयायियों में एक प्रकार का जुझारू जज्बा है और वे उनके लिए मरने-मिटने को तैयार हो सकते हैं। इसी जज्बे के कारण समाज के दूसरे तबकों में दलितों की समस्या के प्रति एक समझ और चेतना भी आई है और दलित चेतना का सामाजिक और राजनीतिक विस्तार हुआ है। 
इस जज्बे की झलक हम महाराष्ट्र सहित देश के अन्य राज्यों में समय-समय पर मूर्तियों से छेड़छाड़ के सवाल पर होने वाली हिंसक घटनाओं में देख सकते हैं। नब्बे के दशक में उत्तर भारत ने उस चेतना के उभार को तब देखा था, जब महात्मा गांधी के हरिजन को पूरी तरह से नकार कर उसकी जगह दलित शब्द अपना लिया गया था और कांशीराम की रैली से लौटते हुए दलितों ने राजघाट पर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि को अपवित्र भी किया था। जबकि महात्मा गांधी को मानने वालों की तरफ से उसका कोई विशेष प्रतिकार या निंदा नहीं हुई थी। 
हालांकि बहुजन समाज पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार महाराष्ट्र के दलित आंदोलन की तर्ज पर नहीं बनाया और न ही उसने समाज के विभिन्न तबकों की सांस्कृतिक संवेदनाओं को आहत किया। उसने अपने आरंभिक चरण में तिलक तराजू और तलवार के नारों के अलावा प्रतीकवाद का इस्तेमाल कम ही किया। सर्वजन की राजनीति करने के दौरान तो बसपा ने उन्हीं ब्राह्मणों की सभाएं और रैलियां करवार्इं, जिनकी राजनीति से आंबेडकर का सर्वाधिक विरोध था। लेकिन तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद जब मायावती ने बाबा साहब और कांशीराम के साथ अपनी मूर्तियां लगवानी शुरू कर दीं तो यह स्पष्ट हो चला था कि ब्राह्मणों के सम्मेलनों के साथ-साथ वे प्रतीकवाद की ठोस राजनीति कर रही हैं। इसके लिए संसाधन जुटाने में उन्होंने उस लोकतांत्रिक मर्यादा और नियम-कानून को ताक पर रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, जिसे कायम करने के लिए आंबेडकर ने संविधान लिखा था। 
इन स्मारकों के निर्माण में पार्टी और अफसरशाही दोनों को लाभ हो रहा था। धन तो आ ही रहा था, राजनीतिक जमीन भी तैयार हो रही थी। उन्हें मालूम था कि ये स्मारक आगे उनकी राजनीति के लिए भौतिक ही नहीं भावुक आधार बन सकते हैं। उन्हें छेड़ा गया तो उनका एक स्वरूप मंदिर-मस्जिद विवाद जैसा भी हो सकता है और दलित प्रतीकवाद पर एक राष्ट्रीय माहौल भी बन सकता है। मायावती की चेतावनी और अखिलेश यादव की टिप्पणियों से साफ लग रहा है कि कुछ न कुछ टकराव तो होगा ही। क्योंकि अखिलेश यादव ने यह नहीं कहा है कि इन विशाल पार्कों में हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा। बल्कि उन्होंने यह कहा है कि मूर्तियों से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी, पर वहां पड़ी अतिरिक्त जमीन का इस्तेमाल अस्पतालों के लिए किया जाएगा, जिससे औरतों और बच्चों को फायदा होगा। 
ऐसे में अखिलेश को ध्यान रखना चाहिए कि अयोध्या की विवादित जमीन- जिसका भाजपा सांप्रदायिक इस्तेमाल करती रही है- के धर्मनिरपेक्ष इस्तेमाल के तमाम सुझाव परवान नहीं चढ़ सके। मुलायम सिंह ने एक बार वहां बाबरी मस्जिद फिर से बनाने का वादा किया था तो कांशीराम ने सार्वजनिक शौचालय बनवाने का। विडंबना देखिए कि उत्तर प्रदेश में आंबेडकरवाद के उदय का दौर भी वही है, जब वहां हिंदुत्व के मंदिर निर्माण का प्रचंड आंदोलन चल रहा था। अयोध्या में राम मंदिर के लिए खंभे गढ़े जा रहे थे और शिलापूजन के नाम पर चंदा इकट्ठा किया जा रहा था।
परोक्ष तौर पर मायावती ने अपने समर्थकों की उसी भावना पर सवार होकर इन स्मारकों का निर्माण करवाया है और मायावती की प्रशंसा करने वाले तमाम पत्रकार और बुद्धिजीवी तो यहां तक कहते हैं कि भाजपा और संघ परिवार मंदिर नहीं बनवा पाया, पर मायावती ने उसे कहीं ज्यादा भव्य स्मारक खडेÞ कर दिए। कुछ लोग तो यह तक कहते हैं कि मंदिर निर्माण भी मायावती ही करवा सकती हैं।   

सवाल उठता है कि मायावती ने दलित प्रतीकों के नाम पर अंधाधुंध निर्माण और अपनी मूर्तियां लगाने की जो अंधेरगर्दी मचाई है उसका क्या किया जाए? निश्चित तौर पर उसके विरुद्ध जनभावनाएं भी हैं और समाजवादी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं में एक तरह का गुस्सा भी। सपा के जनाधार के एक हिस्से के साथ-साथ झगड़ा और टकराव पैदा करने वाले सवर्ण भी चाहते होंगे कि इन पार्कों पर कुछ कार्रवाई हो। इसी तरह मायावती सरकार के तमाम फैसलों को भी पलटने का दबाव सपा सरकार पर होगा और बहुमत होने के कारण उनमें से कुछ निर्णयों को पलटना शुरू भी कर दिया गया है। उदाहरण के लिए, सरकारी ठेकों में अनुसूचित जाति और जनजाति को आरक्षण देने का जो फैसला मायावती सरकार ने 2009 में किया था, उसे रद्द कर दिया गया है। तरक्की में आरक्षण का मामला भी इसी तरह विवादों है। इससे पढ़े-लिखे दलितों में नाराजगी पैदा होना शुरू हो गई है।
अखिलेश सरकार अगर मायावती सरकार के भ्रष्टाचार की जांच करवाती है और उसके गलत फैसलों को पलटती है तो उसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए। पर ऐसा करते समय उन्हें खुन्नस और बदले की भावना के बजाय समाजवाद और डॉ राममनोहर लोहिया की उस महान परंपरा को ध्यान में रख कर काम करना चाहिए, जिसमें डॉ भीमराव आंबेडकर की उपेक्षा और अपमान नहीं, उनका सम्मान और उनसे तालमेल का भाव ही नहीं प्रयास भी रहा है। 
बाबा साहब शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की जगह सर्वजन समावेशक रिपब्लिकन पार्टी बनाना चाहते थे। इस नजरिए से उनमें और डॉ लोहिया में पत्राचार हुआ था। लोहिया ने 10 दिसंबर 1955 को हैदराबाद से आंबेडकर को पत्र लिखा- प्रिय डॉ आंबेडकर, 'मैनकाइंड' पूरे मन से जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोल कर रखने का प्रयास करेगा।
इसलिए आप अपना कोई लेख भेज सकें तो प्रसन्नता होगी। आप जिस विषय पर चाहें लिखिए। हमारे देश में प्रचलित जाति प्रथा के किसी पहलू पर आप लिखना पसंद करें तो मैं चाहूंगा कि आप कुछ ऐसा लिखें कि हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो, बल्कि आश्चर्य भी करे। मैं चाहता हूं कि क्रोध के साथ दया भी होनी चाहिए ताकि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें, बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के नेता बनें। 
लोहिया के उस पत्र के बाद उनके दो मित्रों- विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी- ने आंबेडकर से मुलाकात की, जिसका जिक्र आंबेडकर ने लोहिया को लिखे जवाबी पत्र में किया। आंबेडकर ने यह भी आश्वासन दिया कि शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की कार्यसमिति में वे उनके मित्रों का प्रस्ताव रखेंगे। विमल और धर्मवीर ने डॉ आंबेडकर को कानपुर की लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने का न्योता भी दिया था। यह सिलसिला चल ही रहा था और लोहिया ने आंबेडकर से मिलने का समय मांगा था और उसके टलने और फिर तय होने के बीच ही बाबा साहब का निधन हो गया। 
कहने का मतलब यह है कि आंबेडकरवादियों की परंपरा भले गांधी और उनके अनुयायियों के प्रति आक्रामक रही हो, लेकिन लोहिया की परंपरा आंबेडकर के प्रति बेहद सम्मान की रही है। रहनी भी चाहिए, क्योंकि आंबेडकर, लोहिया से उन्नीस साल बडेÞ थे और उनका जाति संबंधी अध्ययन और चिंतन काफी व्यवस्थित था। सामाजिक समानता पर बेचैनी तो थी ही। उन्होंने दलितों ही नहीं, शूद्रों के बारे में भी विस्तार से विचार किया है और वे उनके शुभचिंतक थे। इसलिए अखिलेश सरकार अगर अपने को समाजवादी आंदोलन और राममनोहर लोहिया की परंपरा से जोड़ती है और उत्तर प्रदेश में मिले इस ऐतिहासिक मौके का बेहतर इस्तेमाल करना चाहती है तो उसे लोहिया पार्क बनाम आंबेडकर पार्क और उसके बहाने लोहिया बनाम आंबेडकर की नकली लड़ाई में नहीं उतरना चाहिए। उनके विचारों में मतभेद हो सकते हैं, उनके अनुयायी भी अलग हो सकते हैं, लेकिन समाजवादी आंदोलन आज जिस नाजुक और महत्त्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है उसमें इस झगड़े से वे ही हासिल कर सकते हैं जो या तो पूंजीवादी खेल खेलना चाहते हैं या फिर सवर्णों की फूट डालो राज करो वाली नीति अपना रहे हैं। 
समाजवादी पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि उसके सत्ता में आने से समाजवाद की चर्चा फिर से शुरू हुई है। वह कैसा होगा, क्या होगा यह अलग बात है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मंदी के दौर में उस शब्द में नया अर्थ डालने का अवसर है। भाकपा और माकपा ने अपने हाल में संपन्न हुए सम्मेलनों में समाजवाद के भारतीय स्वरूप की तलाश भी शुरू की है। संवाद और समन्वय की तमाम संभावनाओं को देखते हुए यह कतई शुभ नहीं होगा कि मूर्तियों और पार्कों के बहाने दलित बनाम पिछड़ा और लोहिया बनाम आंबेडकर का नया विवाद शुरू किया जाए। इसे टालने से ही उत्तर प्रदेश का कल्याण होगा और वहां की समाजवादी सरकार का भी।

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