Saturday, April 7, 2012

सौल कठौल : हमार भगतदाक् स्मृति जी रौ लाख सौ बरीस

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सौल कठौल : हमार भगतदाक् स्मृति जी रौ लाख सौ बरीस

(विगत दिसम्बर में हमारा साथ छोड़ गये नन्दकिशोर भगत इस होली के लिये पहले ही अपने हिस्से का सौल कठौल लिख कर छोड़ गये।)

right-to-informationडेमोक्रेसी के नाम पर मिले, सन् सैतालीस के बाद वाले मौलिक अधिकारों ने, उदिया की साफ सुथरी देह को समय से पहले ही बुढ़ा दिया है। जब वह एक बार बीमार पड़ा था, तब एक सरकारी अस्पताल में अपना चैकअप जैसा कुछ करवाने के मनसूबे कर बैठा था। सरकारी डॉक्टर द्वारा सरकारी, वह भी उदार नीति के चलते उदिया का चेकअप हुआ। उसे सरकारी अस्पताल ने कमर दर्द की दवा मुफ्त में दे दी। उदिया कहता रहा कि मुझे कमर दर्द नहीं पेट की ऐंठन है। डॉक्टर ने पारदर्शिता जताते हुए सामने बोर्ड की ओर इशारा किया कि दवाओं का उपलब्ध स्टाक सामने बोर्ड में अंकित है, उसमें लिखे अनुसार आपको दवा दे दी है। आदेश है कि मरीज पर बाजार से दवा लेने का दबाव न डाला जाय। हम कोई सूचना छुपा रहे हैं क्या ? अब फूट लो। लम्बी लाईन है। दूसरी जनता का भी नम्बर आना है।

सरकारी अस्पताल से दुतकारा गया उदिया प्राइवेट नर्सिंग होम गया। वहाँ के लम्बे-चौड़े बिल ने उसकी सेहत पूरी तरह ठीक कर दी। डेमोक्रेसी है, जिसे उदिया झेलता रहा है। वह अपना जिल्दबन्दी से सुरक्षित कार्ड राशन की दुकान पर पेश करता तो सामने सरकार की पारदर्शी नीति के तहत सूचना पट पर इन्सपेक्टर के नाम सहित 'स्टॉक निल' का पारदर्शी विवरण टंगा पढ़ने को मिल जाता। फिर कुछ मीठा-कड़ुवा जैसा कुछ बतियाते हुए लौट आने के अलावा और विकल्प ही क्या हो सकता था उदिया के पास। स्कूल में एडमिशन हो या रेलवे का रिजर्वेशन हो या परिभाषित गरीबों पर सरकारी सबसिडी हो, जहाँ कही उदिया के कदम पड़ते पारदर्शी सूचनाओं से उसका मुकाबला होता और डेमोक्रेटिक जनप्रशासन द्वारा चिढ़ाया गया उदिया घर लौट आता।

इस बार दिल्ली से ऐलान हो गया था कि जनतंत्री व्यवस्था ने उदिया को एटमी हथियार दे ही दिया है। एटमी अधिकार याने सूचना का अधिकार। उदिया नागरिक है। उसे अधिकार है कि वह जाने उसकी सरकार क्या कर रही है। अब उसे टंगा बोर्ड नहीं पढ़ना पड़ेगा। वह अपने इस अधिकार के तहत, अपनी मनमर्जी से जैसी सूचना चाहे अपने घर ही प्राप्त कर सकेगा। वह भी चन्द पैसों में। अदना सा उदिया अब अपने देश, अपने राज्य, अपने जिले, कस्बे के बारे में कुछ भी जानने का हकदार हो गया है। इस अधिकार से वह अब मोटा भी हो सकता है। इस सुविधा के लिये डाइटिंग करने वाले तरसते रहे हैं। अब शहरी नौकरशाह अफसर उदिया उदियाओं में दूगला सकते हैं। नौकरशाही क्या कर रही है उसे यह जानने का हक सरकार ने दे दिया है। उसके चुने प्रतिनिधि उसका इतना ख्याल करते हैं इसकी चर्चा बुश वाले अमेरिका में आज तक है। सूचना अधिकार के चलते उदिया ऊपर, नौकरशाही नीचे। वह इतना उत्साहित हो पड़ा कि उसने दस रुपल्ली के टिकट लगा कर पूछ ही लिया कि उसे फलाँ वर्ष पेट के बदले कमर दर्द की दवा क्यों दी गई?

उदिया को विकास चाहिये था, जिसमें रोटी, रोजगार, पेड़, खेती, हरियाली, बच्चे और बच्चों की खुशहाली की कल्पना थी। उसने अलग राज्य माँगा। वह आंदोलित हुआ। आन्दोलन की राह में वह कभी कभार भूखा भी रह पड़ा। उसकी मेहनत रंग लायी। राज्य बना पर बगैर मूँछ के, बिना राजधानी वाला राज्य। राजधानी के लिये आयोग बने। एक दशक बाद आयोग ने चुप्पी तोड़ी। आयोग बोला तो सरकार को सुनना ही था। बेवकूफ प्रूफ उदिया के एक नुमाइन्दे ने ताली पीट दी। उदिया को अपनी राजधानी की चाहत थी। अब भी है। उदिया के खर्चे पर आयोग बना। उदिया की जेब तीन जगह से कट गयी है। आयोग ने उदिया के हित में घिसटते-घिसटते दस साल तक का खर्चा किया। अब जाकर उदिया की सरकार को जुर्माना हुआ है, यह उसका बोनस है। चाहे राजधानी बने न बने, गरीब उदिया की फटी जेब अपने सूचनाधिकार पर गौरवान्वित हो रही है। का मसला छिपे का छिपा ही है।

उदिया ने सुना था सैंतालिस से पहले भी सूचना मिलती थी और सैंतालिस के बाद भी। उसे सूचना सम्पन्न बनाने के लिये केन्द्र और राज्य सरकारों के सूचना विभाग बने। जिलाधिकारी अपने दायित्व का निर्वहन करते पत्रकार सम्मेलन आयोजित करते। पत्रकार उदिया के विकास के बारे में कुछ पूछते कि उससे पहले ही उनके पास सरकारी दालभात का ऑफर आ जाता। इसी तरह उदियाओं की चिन्ता मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री पत्रकारों के साथ मिल कर करते रहे। खाने के बाद कुछ पत्रकार चलते बनते तो अधिकांश खुशी का इजहार करते वहीं माननीय जी के कॉटेज में पड़े रहते। उदिया के बारे में छापने के लिये किसी के पास कुछ नहीं था। जिला योजना, राज्य योजना, राष्ट्र योजना- उदिया को सूचनासम्पन्न बनाने वाली अखबारनवीस की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, दालभात के मोल बिक गई। आजकल उदिया का मन बेचैन है कि वह अपने सूचना अधिकार के तहत उदिया के नाम पर चली इन दालभाती दावतों के कुल खर्च का हिसाब पूछे।

उदिया अपने घर में पिटा, बाहर भी पिटता रहा। कुछ साल पहले यूटीआई के 3 रुपये कीमत वाले शेयर को सत्ताधिकारियों ने 900 रु. का बताकर खरीद दिया और उदिया के निवेश को जालसाजी में फँसा दिया। उदिया के लाखों रु. एक रात में ही खाक हो गये। सत्ताधारी अरबपति बन गये। ऐसे ही महान चाराधीश के चाराघास के बंडल बिहार से चले, झारखंड के हो गये। सूचना के अधिकार के बावजूद उदिया कभी नहीं जान पाया कि किस गौमाता ने इस चारे का भोग किया। इधर सरकार ने तमाम विदेशी सैनिक हथियार सप्लाईकर्ताओं को केवल इस सूचना के आधार पर कालीसूची में डाला है कि उन्होंने सैन्य अधिकारियों को करोड़ों करोड़ की रिश्वत दी है। जो सैनिक उदिया के देश की सुरक्षा का जिम्मा लिये है वे कभी शराब घोटाले के कारण चर्चा में आते हैं तो कभी राशन खरीद के बहाने। इस तरह की आम सूचनायें उदिया के लिये केवल रोचक कहानियाँ बनती रही हैं। उदिया का महामहिम मान्यवर प्रतिनिधि रुपये के एवज में संसद में सवाल कर, अपनी चिन्ता जताने का दायित्व पूरा करते दिख रहे हैं। अपने उदिया विरोधी करिश्मों से संसद विधान सभा को भी अपनी गिरफ्त में लिये हैं।

उदिया की इन तमाम चिन्ताओं को हमारी न्यायिक संस्थाओं के प्रमुख अपनी प्रखर न्यायिक अधिकारों के रहते अदालतों में भी नहीं पकड़ पा रहे हैं। उदिया समझ नहीं पा रहा है कि सूचना के अधिकार से उदिया उन्हें पहचान भी लेगा तो क्या हो जायेगा ? उदिया ने तो ऐसे अधिकार की कल्पना की थी जिसका भय हर चुने जन प्रतिनिधि को हो। इसके विपरीत ये तमाम प्रतिनिधि उदिया को चिढ़ाने की नियत से धमकी दे रहे हैं कि वह यदि वास्तव में ईमानदार नागरिक है उन्हें किसी न्यायिक संस्था में अपराधी सिद्ध होने का प्रमाण प्रस्तुत करे। फिर भी उदिया की गैरजिम्मेदाराना सोच के बावजूद उदिया की चुनी सरकार हमेशा उस पर दया करती रही है। अब यह उदिया पर है कि वह अपने वोट की औकात का अंदाजा लगा सके।

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