Monday, April 9, 2012

भीड़ है, एडजस्‍ट है, बुलंदी की थर्स्‍ट है, रास्‍तों में कष्‍ट है…

http://mohallalive.com/2012/04/09/positive-approach-about-mumbai/

 मोहल्ला मुंबई

भीड़ है, एडजस्‍ट है, बुलंदी की थर्स्‍ट है, रास्‍तों में कष्‍ट है…

9 APRIL 2012 NO COMMENT

♦ स्नेहवीर गुसाईं

ल शाम अपने जिम के दरवाजे से सड़क पर जाती हुई झांकी को देख रहा था। मैंने जानते हुए भी अपने ट्रेनर अनीस से सवाल किया कि ये लोग हर चौथे दिन झंडे लेकर सड़क पर क्यों निकल पड़ते हैं? अनीस ने तो कोई जवाब नहीं दिया, मगर उसके साथ खड़े एक आदमी ने बड़ी श्रद्धा से जवाब दिया। कल हनुमान जयंती है न, इसीलिए ये रैली निकाल रहे हैं। सजधज कर सड़क पर नंगे पांव नाचती हुई युवतियों को देख कर मैं सोचने लगा कि आखिर वो कौन सी बात है, जो इन्‍हें इतना पागल बना देती है। तीन साल हो गये मुझे इस शहर में, मगर मैं आज भी इस शहर के असली चरित्र से अनभिज्ञ ही हूं। एक गीत सुना था इस शहर के बारे में … ये मुंबई शहर हादसों का शहर है। (माफ कीजिएगा, इससे ज्यादा हादसे दिल्ली में होते हैं – मगर उसे दिल वालों की दिल्ली ही कहा जाता है दिल्ली वाले माफ करें।)

कभी-कभी मैं सोचता हूं कि उन गीतकारों की समझ कितनी सीमित है, जो ऐसे गीत लिख देते हैं। ये शहर भी बाकी शहरों की तरह ही है, जहां एक ओर संपन्नता के टापू हैं, तो दूसरी ओर गरीबी का महासागर है। वो एक बात जो इस शहर को दूसरों से अलग करती है, वो संघर्षों को सहर्ष स्वीकार करने की जिजीविषा। या फिर इसे यों भी कह सकते हैं यहां एक वर्ग विशेष ने अपनी नियति को स्वीकार कर लिया है। ये लोग जानते हैं कि इस सपनों के शहर उनका छोटा सा ख्वाब कभी पूरा नहीं हो सकता। हर चौथे दिन के उल्लास और सड़क पर झूम-झूम के नाचने के पीछे कौन-सी घुटन है? वे जानते हैं भागदौड़ और कमरतोड़ मेहनत के बाद भी उनका स्तर वही रहेगा, इसलिए जिंदगी जिस रूप में उनके सामने आती है, वे उसे स्वीकार कर लेते हैं। दरअसल ये झांकियां, ये धार्मिक रैलियां मुंबई के मध्यवर्ग और निम्न वर्ग को अपने अपने जीवन की कड़वी सच्चाइयों को भुलाने का एक मौका देती हैं। मुंबइया भाषा में एक शब्द है, बिंदास। मेरे हिसाब से बिंदास शब्द का सही अर्थ है, परेशानियों से न लड़ पाने की सूरत में उनसे बेपरवाह हो जाना। मैं ये भी मानता हूं कि सामाजिक पीड़ा एक नयी तरह की संवेदनशीलता को जन्म देती है। मुंबई का आम आदमी एक दूसरे के प्रति संवेदनशील है। दूसरे शब्दों में यों भी कह सकते हैं कि यहां आम आदमी की कीमत है। एक परदेसी होने के नाते मैं इस बात को अच्छी तरह से महसूस कर सकता हूं। मैं देखता हूं कि फिल्मी गानों (जो दुर्भाग्य से संप्रेषण का तीव्रतम माध्यम बन गये हैं) में मुबंई को हादसों का शहर और सपनों का शहर और न जाने क्या क्या बताया गया है। इन सभी गानों में मुझे एक प्रकार की नकारात्मकता की बू आती है। किसी ने कभी ये नहीं लिखा कि मुंबई एक अटूट जिजीविषा का शहर है। यहां की हवाओं में गर्मजोशी है और लाख परेशानियां होने के बावजूद भी जिंदगी को हंस कर गले लगाने का जज्बा है। इस शहर की सकारात्मकता पॉपुलर मीडियम में शायद ही कभी जाहिर हुई हो।

मैं भी अपने पूर्वाग्रहों के साथ यहां आया था, लेकिन मेरे अपनाने से पहले इस शहर ने मुझे अपना लिया। दुर्गम रेगिस्तानों और ठंडे पहाड़ों की तरह यहां भी जीवन अंतहीन संघर्ष एक सिलसिला है। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां युद्ध अपने आप से है। आपको अपनी निराशाओं और असफलताओं से लड़ना होगा। इन कड़वी सच्चाइयों को स्वीकार करना और उससे लड़ना इस शहर का चरित्र बन गया है। आखिर में अपनी लिखी हुई चंद पक्तियों से लेख को खत्म करना चाहूंगा।

भीड़ है एडजस्ट है
बुलंदी की थर्स्‍ट है
रास्तों में कष्ट है
फिर भी मुंबई मस्त है

 मैंने अपने लेख में अनावश्‍यक डिटेलिंग से परहेज किया है क्योंकि मुंबई की चॉल झोपड़पटि्टयां आप फिल्मों में बहुत देख चुके हैं।

(स्नेहवीर गुसाईं। पेशे से सिनेमाकर्मी। पत्रकारिता और फोटोग्रफी से भी जुड़े रहे हैं। कविता, गजल और लेखों के माध्यम से अपनी बात समाज तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। उनसे snehveer23@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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