Friday, April 20, 2012

युग के युवा मत देख दाएं और बाएं और पीछे, झांक मत बगलें

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 नज़रिया

युग के युवा मत देख दाएं और बाएं और पीछे, झांक मत बगलें

20 APRIL 2012 ONE COMMENT

♦ कपिल शर्मा

भीकू सातवीं पास है और बिहार के आरा जिले का रहने वाला है। उम्र 17 साल के करीब है। दिल्ली के कई घरों में खाना बनाने का काम करता है। लेकिन गरीबी और बेबसी से सख्त नफरत होने के चलते सपना राजनीति में उतरने का है। यहां तक पहुंचने के लिए अपनी फूड चेन या रेस्टोरेंट खोलकर पैसा जोड़ने और फिर उसी पैसे से चुनाव लड़ने की उसकी योजना है। शायद यही एक सपना है, जो उसे दूसरों के जूठे बर्तन धोने और खाना बनाने जैसे काम से खीझ नहीं होने देता है। उसे लगता है कि सिर्फ कुछ दिनों की बात है। हालात बदल जाएंगे।

भीकू की यह कहानी साफ तौर एक ऐसे युवा की कहानी है, जो अपनी एक अलग पहचान बनाना चाहता है, अपने पूर्वजों से आगे बढ़कर काम करना चाहता है। बदलाव की बयार लाकर अपने हिसाब की दुनिया रचना चाहता है।

देखा जाए, तो ऐसा सुपरमैन हर युवा के मन में बसता है। अब सवाल उठता यह है कि क्या ये सुपरमैन सही में सभी को क्रांतिकारी बना पाता है। असली कहानी यहीं से शुरू होती है। मौजूदा हालातों में देखा जाए तो व्यक्तिगत पहचान की लड़ाई, व्यक्तिगत विकास, भावनात्मक अशंति, अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं को पूरा करने में समाज के नियम-कायदों का पालन और सामाजिक बदलाव करने का चैलेंज युवाओं के सामने यक्ष प्रश्न हैं।

इन सवालों के बीच ही भारतीय युवाओं का आज और कल लटका हुआ है। जब युवा इन सवालों और इनके जवाबों के बीच सही सामंजस्‍य नहीं बैठा पाते हैं, तो वे अपने आपको भटका हुआ पाते हैं। युवाओं के इस भटकाव का खामियाजा देश-समाज को चुकाना पड़ता है और समाज की प्रगति में इसका सीधा खलल पड़ता है।

बात देश के दबे-कुचले वर्ग के युवाओं की की जाए, तो पाएंगे कि इनमें क्रांति और बदलाव का सुपरमैन बमुश्किल ही सामने आ पाता है। होता यह है कि गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी और जाति-पाति का दंश इस वर्ग के युवाओं के अंदर ऐसी व्यक्तिगत क्षमताएं पैदा ही नहीं होने देता है, जो समाज में उन्हें अपनी अलग पहचान बनाने दें या सामाजिक बदलाव की शुरूआत करने दें।

इनके हालात इतने खराब होते हैं कि पारिवारिक गुजर बसर के लिए सामाजिक नियम कायदों के परे जाकर बदलाव की बात आत्महत्या की तरह है। बहुत जल्दी ही इस वर्ग के युवाओं का असलियत से भी सामना हो जाता है, जब हर कदम में उन्हें अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए अपने मान, सम्मान और इच्छाओं से समझौता करना पड़ता है। इसके चलते इनके अंदर का सुपर मैन उड़न छू हो जाता है और बदलाव या व्यक्तिगत पहचान का सपना एक जघन्य मजाक बन जाता है। इस वर्ग के करोड़ों युवाओं में कभी कोई एक करिश्माई व्यक्तित्व का एपीजे अब्दुल कलाम सरीखा निकल जाए, तो लोग सालों साल डंका बजाते रहते हैं।

मध्यम वर्ग के युवाओं की हालत तो सबसे ज्यादा पतली है। मध्यमवर्गीय परिवार और विद्यालय शिक्षा तो बचपन से ही इन्हें बाजारवादी व्यवस्था में फिट बैठाने के लिए ही ट्रेंड करती है। ज्यादा से ज्यादा पैसा और ताकत ही इनके सफलता के मानक बनाये जाते हैं। इनके सामने सबसे बड़ा लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा रुपया-पैसा कमाकर उच्च वर्ग में स्थानांतरित हो जाना होता है। चूंकि परिवार के पूर्वज भी यही करते आये होते है। ऐसे में इस वर्ग के युवा बेहिचक यही रीति अपनाते हैं। जो युवा रुपया, पैसा, ताकत पाने में सफल हो जाते हैं, मध्यमवर्गीय समाज उन्हें सफल और बाकी को असफल घोषित कर देता है। असफल हताशा और निराशा से मारे जाते है। लेकिन खेल यहीं खत्म नहीं होता है, उपभोक्तावाद इस वर्ग के सफल युवा को भी निगल लेता है। जब वे मौकावाद, पैसे और ताकत पर आधारित अपनी सफलता का सामाजिक मानकों, आदर्शों, पारिवारिक जरूरतों, अपनी नैतिकताओं और निष्‍ठाओं से सामंजस्‍य बैठा नहीं पाते। हालात यह हो जाते हैं कि इन युवाओं के लिए जीवन एक द्वंद्व हो जाता है, जिसमें कभी इनका झुकाव भौतिक सफलता, ऐशो आराम, ताकत की ओर होता है, तो कभी बदलाव, क्रांति की ओर। छत्तीसगढ़ के आईपीएस राहुल शर्मा की आत्महत्या इसी जद्दोजहद का एक ताजा उदाहरण है।

उच्च वर्ग के युवा निश्चित तौर पर इस समाज के तथाकथित युवराज होते हैं। वे जो चाहते हैं, करते हैं। जीवन में सफलता की दर भी शत फीसदी होती है। लेकिन पूंजीवादी पालन पोषण व्यक्तिगत स्वार्थ को इतना मजबूत बना देता है कि सामाजिक जिम्मेदारियां और बदलाव इनके लिए यदा-कदा ही मायने रखते हैं। व्यक्तिगत जिदंगी भी ऐशो आराम और नाइट क्लब्‍स के बीच ही सिमट कर रह जाती है। ऐसे में साधन संपन्न होने के बावजूद ये समाज के निष्क्रिय युवा बन जाते हैं। जो समाज के लिए बिना लाभ वाले एक महंगा निवेश साबित होते हैं।

वैसे इस बात की कोई गांरटी नहीं है कि ये बातें सभी व्यक्तियों के लिए सही हों, लेकिन मोटे तौर पर समाज में यही देखने को मिलता है। आत्महत्या के बढ़ते मामले, आपराध, हिंसा, भ्रष्‍टाचार में भागीदारी, बलात्कार, ड्रग सेवन, सेक्सुअल वॉयलेंस, तलाक के मामलों की बढ़ती हुई संख्या दिखा रही है कि भारतीय युवा समाज में कुछ न कुछ गड़बड़ है। कोई न कोई अशांति है, जिसके चलते इस वर्ग की भूमिका समाज के संगठन को जोड़ने की जगह तोड़ने वाले की बनती जा रही है। समय की मांग है कि हम सुधर जाएं और इस समाज में भीकू जैसे पिछड़े युवाओं को भी आगे आकर अपनी जरूरतों के समाज को रचने का मौका दें। हमारे घर और स्कूल इस बाजारवादी सोच को फैलाना बंद कर दें कि बस ताकत और पैसा कमाना ही सफलता के मानक हैं।

यहीं नहीं, उच्च वर्ग के संसाधन संपन्न युवा अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों के प्रति जागरूक हों, समाज में क्रांति के सूत्रधार बनें। अगर ऐसा हो पाया तो हम एक ऐसे युवा समाज को बना पाएंगे, जहां युवा व्यक्तिगत गुणों को पैदा कर अपनी पहचान बना पाएंगे। भावनात्मक तौर पर ज्यादा स्थिर होंगे और व्यक्तिगत जिदंगी, सामाजिक मानकों और सामाजिक बदलाव के बीच ज्यादा मजबूत सामंजस्‍य बिठा पाएंगे। लेकिन बात यहीं खत्म नहीं होती है, इसके लिए हमें एक ऐसे सच्चे लोकतांत्रिक समाजवादी देश को बनाना पड़ेगा, जहां अवसर की समानता और संसाधनों का बराबर बंटवारा एक सच्चाई हो, दूर के ढोल नहीं। इस सपने को साकार करने के लिए सरकार और समाज दोनों को अभी से जागना पड़ेगा। अगर ऐसा नहीं हो पाता है, तो बाजारवाद में रंगे युवाओं की बिना सिर पैर की ऐसी क्रांति के लिए हमें तैयार रहना चाहिए जो समाज का अस्तित्व आज नहीं तो कल अवश्य बिखेर देगी।

(कपिल शर्मा। पेशे से पत्रकार। इंडियन इंस्‍टीच्‍यूट ऑफ मास कम्‍युनिकेशन से डिप्‍लोमा। उनसे kapilsharmaiimcdelhi@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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