Monday, April 23, 2012

हक बनाम हकीकत

हक बनाम हकीकत


Monday, 23 April 2012 11:48

विजय विद्रोही 
जनसत्ता 23 अप्रैल, 2012: सुप्रीम कोर्ट ने अपने ऐतिहासिक फैसले में देश के हर गरीब बच्चे की उम्मीदें जगाई हैं। अब बच्चा तय कर सकता है कि उसे अपने किस पड़ोसी स्कूल में पढ़ना है। यह स्कूल भी पांचवीं कक्षा तक के लिए दो किलोमीटर और आठवीं कक्षा तक के लिए तीन किलोमीटर के दायरे में होना चाहिए। अब छह से चौदह साल के आयु वर्ग का हर बच्चा मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा हासिल करने का अधिकारी होगा। इस पढ़ाई का खर्च केंद्र और राज्य सरकारें मिल कर देंगी। स्कूलों के हालात भी बदल जाएंगे।
पांचवीं कक्षा तक तीस बच्चों पर एक (अभी यह अनुपात लगभग साठ और एक का है) और पांचवीं से आठवीं तक पैंतीस बच्चों पर एक शिक्षक होगा। कम से कम तीन शिक्षक ऐसे होंगे जो विषयों में पारंगत होंगे। स्कूलों का भवन होगा, चहारदीवारी होगी, लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालय होंगे, खेलने का मैदान होगा, दोपहर का भोजन बनाने के लिए रसोई होगी, पीने का पानी होगा। बारहवीं योजना के दौरान यानी अगले पांच सालों में बारह लाख नए शिक्षक प्रशिक्षित करके रखे जाएंगे।
शिक्षा अधिकार कानून को पूरी तरह से कामयाब बनाने के लिए अगले पांच सालों में करीब दो लाख करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। केंद्र और राज्य सरकारें पैंसठ और पैंतीस फीसद के अनुपात में खर्चों को बांटेंगी। खैर, यह सब पढ़ना बड़ा सुखद लगता है। खासतौर से उस देश में जहां छह से चौदह साल के आयु वर्ग के अस्सी लाख बच्चे शिक्षा से वंचित हैं। जहां हर चार में से एक बच्चा पांचवीं कक्षा में पहुंचने से पहले ही स्कूल छोड़ चुका होता है। जहां चार में से दो से ज्यादा बच्चे कक्षा आठ से पहले ही स्कूल से मुंह मोड़ चुके होते हैं; इनमें भी लड़कियों की संख्या ज्यादा है। जहां तीन से छह साल के आयु वर्ग के उन्नीस करोड़ बच्चे बुनियादी शिक्षा से वंचित हैं।
यह अच्छी बात है कि देश में 2003 में स्कूल से वंचित बच्चे ढाई करोड़ थे और अब उनकी संख्या घट कर अस्सी लाख रह गई है। इस दौरान प्राइमरी स्कूलों में नामांकन 13.7 फीसद बढ़ा है। लड़कियों के नामांकन में करीब बीस प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद अब ये सभी बच्चे अच्छे महंगे स्कूलों में भी शान से पढ़ सकेंगे। सवाल उठता है कि क्या यह सब इतना आसान है। 
सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा कि शिक्षा के अधिकार को बच्चों के नजरिए से देखा जाना चाहिए, स्कूल संचालकों के नजरिए से नहीं। निजी स्कूलों के प्रबंधकों की दलील थी कि चूंकि वे कोई सरकारी सहायता नहीं लेते इसलिए उन पर पचीस फीसद सीटें आरक्षित करने का नियम गैर-संवैधानिक है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को खारिज कर दिया और शिक्षा अधिकार कानून को संवैधानिक ठहराया।
लेकिन यह कानून कई सवाल भी उठाता है, जिनके जवाब सुप्रीम कोर्ट अगर सरकार से ले पाता तो ज्यादा ठीक रहता। सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें शिक्षा से वंचित बच्चों की परिभाषा तो दी गई है लेकिन इसके लिए कोई आर्थिक पैमाना न होना भ्रम फैलाने वाला है। 
कानून के मुताबिक अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के बच्चे पचीस फीसद के कोटे में आएंगे। यहां हैरानी की बात यह है कि क्रीमी लेयर को इससे अलग नहीं रखा गया है। यानी इस वर्ग के संपन्न परिवारों के बच्चे भी अपनी पसंद के किसी भी स्कूल में पढ़ सकेंगे।
इसके अलावा अलग-अलग राज्य सरकारों की तरफ से तय आर्थिक रूप से कमजोर की सीमा को माना जाएगा। यह सीमा पचास हजार रुपए सालाना से लेकर दो-तीन लाख रुपए तक है। यहां यह देखना दिलचस्प है कि हो सकता है सरकारी नौकरी या निजी क्षेत्र में काम करने वाले क्लर्क का बेटा तो शायद इस पैमाने से बाहर हो जाए लेकिन अपना व्यवसाय करने वाला आय का कोई भी सर्टिफिकेट लाकर दाखिले का हकदार हो जाए। आखिर किस आधार पर निजी स्कूल वाले किसी बच्चे को दाखिले लायक समझेंगे इसे कानून में साफ करने की कोशिश नहीं की गई है। स्कूल किस तरह आय के प्रमाणपत्र की जांच कर पाएंगे?
इसके साथ ही, शिक्षा अधिकार कानून केवल छह से चौदह साल के बच्चों की चिंता करता है। यहां दो महत्त्वपूर्ण बातों को सरकार भूल गई है। एक, कानून में तीन से छह साल के बच्चों की चिंता नहीं की गई है। इनकी संख्या उन्नीस करोड़ के लगभग है। ऐसे बच्चों को मुफ्त में बुनियादी शिक्षा मिले ऐसी बस सदिच्छा ही कानून में की गई है।
अगर गरीब घर के बच्चे की सरकार को इतनी ही फिक्र थी तो वह इस आयु वर्ग के बच्चों को भी कानून के दायरे में लाती, उनकी अच्छे प्ले ग्रुप स्कूल में नर्सरी, केजी पढ़ने की व्यवस्था करती ताकि ये बच्चे तीन साल बाद जब पहली कक्षा में अपेक्षया बडेÞ स्कूल में पढ़ने जाते तो किसी से भी कमतर साबित नहीं होते।
इसी तरह, लगता है सरकार यह मान कर चल रही है कि गरीब घर का बच्चा आठवीं तक बडेÞ निजी स्कूल में पढ़ लेगा और उसके बाद या तो वह पढ़ाई छोड़ देगा या फिर इस बीच उसके घरवाले इतने संपन्न हो जाएंगे कि वे उसे आगे की पढ़ाई भी वैसे ही महंगे स्कूल में अपने खर्च से करवा लेंगे। क्या यह संभव है? अगर नहीं, तो आजादी के छह दशक बाद एक ऐतिहासिक कानून बनाते समय सरकार को इस तरफ भी ध्यान रखना चाहिए कि था छह से चौदह साल की आयु सीमा को क्यों न बढ़ा कर अठारह साल कर दिया जाए।

हालांकि कुछ शिक्षाविदों का कहना है कि अगर स्कूल का भवन रियायती दर पर मिली जमीन पर बना है तो आठवीं के बाद भी उस बच्चे की   फीस का खर्च राज्य और केंद्र सरकार मिल कर उठाएंगी। कुल मिला कर इस पर भी भ्रम की ही स्थिति बनी हुई है। 
गरीब बच्चों की फीस का खर्च राज्य सरकार उठाएगी। यहां कानून में कहा गया है कि राज्य सरकार की तरफ से स्कूल-विशेष को प्रति बच्चा दिया जाने वाला अनुदान या फिर बच्चे की तरफ से दी गई असली फीस की रकम (जो भी कम हो) स्कूल को दी जाएगी। ऐसे में निजी स्कूल वालों का कहना है कि सरकार की तरफ से भरपाई की जो राशि मिलेगी वह उनकी फीस से बेहद कम होगी और इसका खमियाजा अन्य बच्चों को उठाना पडेÞगा।
उदाहरण के लिए, मध्यप्रदेश में सहायता-प्राप्त स्कूलों को सरकार 2607 रुपए प्रति बच्चे के हिसाब से देती है, लेकिन वहां निजी स्कूलों की फीस इसके तीन गुने से कम नहीं है। ऐसे में भरपाई की साफ व्यवस्था कानून में नहीं की गई है। सरकार का कहना है कि सरकारी स्कूल और केंद्रीय विद्यालय में एक बच्चे पर होने वाले सरकारी खर्च का औसत ही इसका आधार बनेगा। यह खर्च एक हजार से डेढ़ हजार रुपए के बीच है, जबकि निजी स्कूलों का दावा है कि वे हर बच्चे पर दो से तीन हजार के बीच खर्च करते हैं। 
यानी साफ तौर पर अभी से धमकी दी जा रही है कि निजी स्कूल फीस बढ़ाएंगे ताकि एक चौथाई सीटें गरीबों को देने से हुए नुकसान की भरपाई कर सकें । इस संकट से सरकार कैसे पार होगी इसकी कम से कम कानून में तो कोई व्यवस्था नहीं की गई है। अलबत्ता शिक्षा अधिकार कानून में यह जरूर कहा गया है कि सरकार नियमों के विपरीत जाने वाले स्कूलों की मान्यता रद्द कर सकती है।
हमारे यहां स्कूलों को किस तरह मान्यता मिलती है, किस तरह नियमों की अवहेलना होती है, अनुदान का दुरुपयोग होता है या शिक्षकों की तनख्वाह के चैक में जो रकम दर्ज होती है और वास्तव में कितना पैसा उनके हाथ में आता है यह हर कोई जानता है। ऐसे में निजी स्कूल सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तोड़ निकालने की कोशिश करें तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। 
शिक्षा अधिकार कानून को सफल बनाने के लिए देश में स्कूलों का ढांचा सुधारने की भी जरूरत है। आंकड़े यहां भयावह मंजर पेश करते हैं। देश में प्रति स्कूल केवल साढ़े चार कमरे हैं। केवल तैंतालीस फीसद स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था है। और जहां ऐसी व्यवस्था है भी, वहां साठ प्रतिशत स्कूलों में ही लड़कियों के अलग से शौचालय हैं।
आज भले उत्तर प्रदेश, पंजाब आदि में विद्यार्थियों को मुफ्त में कंप्यूटर दिए जाने की बात की जा रही हो, लेकिन देश में केवल 18.70 फीसद स्कूलों में कंप्यूटर हैं। करीब पचपन प्रतिशत स्कूलों में ही चारदीवारी बनी हुई है, सिर्फ तैंतालीस फीसद स्कूलों में बिजली की व्यवस्था है। प्रति स्कूल शिक्षक की उपलब्धता पांच से कम है। इनकी संख्या बढ़ाना यानी छात्र-शिक्षक अनुपात सुधारना बेहद जरूरी है। 
यह कानून कहता है कि देश को करीब बारह लाख प्रशिक्षित शिक्षकों की जरूरत अगले पांच सालों में पडेÞगी। इनके प्रशिक्षण का खर्च केंद्र सर्व शिक्षा अभियान के तहत उठाएगा। यह अच्छी बात है, लेकिन कानून में आगे कहा गया है कि प्रशिक्षित शिक्षक की योग्यता का निर्धारण एक अकादमिक प्राधिकरण करेगा। और कानून लागू होने के पांच साल तक अप्रशिक्षित शिक्षकों का इस्तेमाल होता रहेगा। कानून में अप्रशिक्षित शिक्षकों पात्रता के पैमाने में, उनकी नियुक्ति में नियमों को लचीला बनाए रखने की भी व्यवस्था की गई है। इससे समझा जा सकता है कि सरकार शैक्षणिक तकाजों को लेकर कितनी संवेदनशील या गंभीर है। ऐसे में शिक्षा अधिकार कानून का हासिल क्या होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है। 
इस कानून में बच्चों की स्कूल में अस्सी फीसद उपस्थिति जरूरी बताई गई है, लेकिन बच्चों को स्कूल नहीं भेजने वाले अभिभावकों के खिलाफ क्या कोई कार्रवाई की जाएगी इस पर कानून खामोश है। पहले ऐसे अभिवावकों के लिए 'सोशल सर्विस' करने की बात कही गई थी, लेकिन बाद में इसे हटा लिया गया। ऐसे में शिक्षाविद अनिल सदगोपाल की टिप्पणी सटीक लगती है कि यह कानून न तो मुफ्त में शिक्षा की व्यवस्था करता है और न ही शिक्षा को अनिवार्य बनाता है।

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