Friday, April 20, 2012

हमने तो ढोर डंगरों से अंग्रेजी सीखी!

हमने तो ढोर डंगरों से अंग्रेजी सीखी!

पलाश विश्वास

हमने तो ढोर डंगरों से अंग्रेजी सीखी! हमारे बच्चों के मुकाबले हम खुशकिस्मत जरूर हैं कि हमें सिब्बल समय में निजी ग्लोबल विश्व विद्यालयों में गरीबों को मिले आरक्षण के भरोसे ​​पढ़ना लिखना नहीं पड़ा।सरकारी स्कूलों का तब कबाड़ा नहीं हुआ था और बिना ट्यूशन, बिना कोचिंग हम लोग थोड़ा बहुत लिख पढ़ गये। वरना हमारे माता पिता की क्या औकात थी कि हमें स्कूल में दाखिला दिला पाते? सर्व शिक्षा अभियान की खिचड़ी जरूर मिल जाती!जब मैं छठीं में पढ़ रहा था, तब उनके अमीन मित्र का बेटा कैलाश चंद्र जोशी शी जरूर दसवीं में पढा़ई के दौरान एक साल हमारे साथ रहा।प्राइमरी में पीतांबर पंत,दिनेशपुर में सुरेश चंद्र शर्मा, महेश वर्मा, प्रेम प्रकाश बुधलाकोटी और जीआईसी में हरीश चंद्र सती, जगदीश चंद्र पंत और तारा चंद्र त्रिपाठी जैसे शिक्षक हमेशा हमें प्रोत्साहित शिक्षित करते रहे।

गरीब बच्चों के हित में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट का सख्त आदेश है कि अब शिक्षा अधिकार कानून नियम हर स्कूल में लागू होगा। ,इसमें प्राइवेट से लेकर सरकारी स्कूल और एडेड स्कूल को भी शामिल किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के देश में सभी सरकारी और गैरसहायता प्राप्त निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटें गरीबों को मुफ्त में देने के प्रावधान पर सहमति के सवाल पर मंत्री ने कहा कि इस मामले में यह विषय बड़े मुद्दों में से एक था। सिब्बल ने कहा, 'इससे जुड़े बड़े मुद्दों में से एक मुद्दा यह था कि निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत आरक्षण लागू होता है या नहीं, जिसको सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा और यह भी कि यह (प्रावधान) अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होता है। यह विवाद भी खत्म हो गया।'यानी निजी स्कूलों में दाखिला मिलने पर ही गरीब बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सकती है। चलिए २५ पीसद सीटें गरीबों के ललिए आरक्षित तो​ ​ हो गयीं।गरीबी की सरकारी परिबाषा  या गरीबी रेखा पर न जाकर यह तो जरूर पूछा जा सकता है कि देशभर में कुल कितने बच्चों को ऐसे महान शिश्क्षा केंद्रों में दाखिले का विशेषाधिकार मिल सकेगा। जिन गरीब बच्चों का आरक्षण के बावजूद दाखिला नहीं होगा, सर्व शिक्षा के अलावा उनके लिए सिब्बल समय में और क्या क्या इंतजामात हैं?फिर दाखिला तो आरक्षण से मिल गया, हो सकता है कि फीस भी माफ हो जाये, लेकिन निजी सकूलों में पढ़ाई के और भी दूसरे खर्चे हैं, यह खर्च क्या सिब्बल साहब देंगे?मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट के शिक्षा का अधिकार कानून की संवैधानिक वैधता बरकरार रखने के आदेश पर खुशी जताई। सिब्बल ने कहा कि इस फैसले ने स्पष्टता लाते हुए सभी विवादों को समाप्त कर दिया है।चौदह साल तक मुफत सिक्षा का अधिकार वाकई ऐतिहासिक है। पर बच्चों को समान शिक्षा का अधिकार है क्या? सरकारी और निजी स्कूलों के भेद क्या इस कानून से खत्म हो जायेंगे? देसी विश्वविद्यालय आईआईटी और आईआईए के समकक्ष होंगे या फिर शिक्षा के अधिकार से लैस बच्चों को आखिरकार लाखों की फीस लेने वाले इन इलीट संस्थाओं में प्रवेश मिलेगा क्या? क्या देशी और विदेशी विश्वविद्यालयों में शिक्षा का तारतम्य का समाधान होगा? अलग अलग पाठ्यक्रम के बावजूद शिक्षा के इस  अधिकार  के क्या मायने हैं, क्या देश के आम नागरिक बाहैसियत से ये सवालात हम पूछ नहीं सकते?

6 से 14 साल की उम्र के हरेक बच्चे को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार है। संविधान के 86वें संशोधन द्वारा शिक्षा के अधिकार को प्रभावी बनाया गया है।

सरकारी स्कूल सभी बच्चों को मुफ्त शिक्षा उपलब्ध करायेंगे और स्कूलों का प्रबंधन स्कूल प्रबंध समितियों (एसएमसी) द्वारा किया जायेगा। निजी स्कूल न्यूनतम 25 प्रतिशत बच्चों को बिना किसी शुल्क के नामांकित करेंगे।

गुणवत्ता समेत प्रारंभिक शिक्षा के सभी पहलुओं पर निगरानी के लिए प्रारंभिक शिक्षा के लिए राष्ट्रीय आयोग बनाया जायेगा।

शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के एक वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद भी इसके बुनियादी प्रावधानों पर सरकारी विद्यालयों में भी अमल नहीं हो पा रहा। किसी भी सरकारी विद्यालयों में खचाखच भरे कक्ष में छात्रों को पढ़ाते देखा जा सकता है। जिले में एक भी ऐसे विद्यालय नहीं है जहां शिक्षक छात्र अनुपात कानून सम्मत हो। अधिकारी सरकार के स्तर की समस्या बता अपना पल्ला झाड लेते है।सरकारी विद्यालयों में शिक्षकों की कमी किसी से छुपी नहीं। शिक्षा का अधिकार कानून में इस बात पर प्रमुखता से बल दिया गया है कि स्कूलों में प्रत्येक तीस बच्चों पर एक शिक्षक होंगे। परंतु आज स्थिति इसके विपरीत है। ग्रामीण क्षेत्र के विद्यालयों की बात छोड़ दी जाय तो भी शहर के एक भी विद्यालय ऐसे नहीं है जहां तीस छात्र पर एक विद्यालय कार्यरत हो।

हमारे वक्त तो हालत यह थी कि बसंतीपुर और दिनेशपुर के पूरे इलाके में अंग्रेजी बोलना वाला कोई नहीं था। मेरे डाक्टर चाचा अंग्रेजी के जानकार जरूर थे, पर १९६० में असम में दंगों के बाद पिताजी​ ​ ने उन्हें दंगापीड़िंतों के बीच भेज दिया था। स्कूल में पांचवीं तक हमें अंग्रेजी पढ़ने का कोई मौका नहीं था। खुद ही अभ्यास करना था। हमने इसके​ ​लिए नायाब तरीका  बांग्ला के विख्यात बागी कवि माइकेल मधूसूदन दत्त की प्रेरणा से ईजाद कर लिया।

हमारे चाचाजी साहित्य के शौकीन थे।​​ उनके कारण घर में अंग्रेजी और विश्व साहित्य का छोटा मोटा खजाना जमा हो ही गया था। पिताजी को भी खूब पढ़ने लिखने का शौक था, उनके पास भी तरह तरह का साहित्य था।अंग्रेजी, बांग्ला, हिंदी, संस्कृत, असमिया और मराठी में। हमने बिना भेदभाव प्राइमरी में अक्षर बांचना शुरू करते न करते विश्व साहित्य पढ़ना शुरू कर दिया। माइकेल का विख्यात काव्य मेघनाथ वध की भाषा पल्ले नहीं पड़ती थी। पर हमने पढ़ लिया। टैगोर का साहित्य हो​ ​ या शरत, या प्रेमचंद हो या गोर्की या फिर विक्टर ह्यूगो या पर्ल बक, ये सभी प्राइमरी के दिनों में हमारे साथी बन गये थे। समकालीन साहित्य से भी हम वाकिफ थे। देश बांग्ला में, अंग्रेजी में रीडर्स डाइजेस्ट और हिंदी में उत्कर्ष हमारे यहां आया करते थे।मुरादाबाद से छपने वाली अरुण भी कभी कभार बांचने को मिल जाया करते थे। उन दिनों दिनेशपुर में अखबार नहीं आता था। हमारे घर कोलकाता से बांग्ला अखबार बसुमती आया करता था। नौ मील साइकिल चलाकर रूद्रपुर जाकर अंग्रेजी अखबार के साथ साथ दिनमान, धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं भी उठा लाते थे हम।

बांग्ला, हिंदी और अंग्रेजी अखबारों का संपादकीय हमें चीख चीखकर पढ़ना होता था। आस पड़ोस के दो चार गांव मेरी ऐसी चीखों के अभ्यस्त हो गये थे। हमारे पास पीसी रेन का ग्रामर था और एक इंगलिश टू बेंगली डिक्शनरी!नालंदा वालों की हिंदी टू इंग्लिश और इंग्लिश टू हिंदी डिक्शनरियां भी हमारे पास थीं।

यहां तक तो ठीक था। पर माइकेल के नूस्खे के मुताबिक कोई भाषा सीखने के लिए उस भाषा में बोलना, लिखना,पढ़ना, हंसना. रोना, किलखिलाना और सपने देखना भी जरूरी था। इलाके में पढ़े लिखे न के ​​बराबर थे। जो थे, उन्हें फुरसत न होती थी।बसंतीपुर में ज्यादातर लोग हमें पागल ही समझते थे। बाकी गांवों में भी यही हाल था। मैं उन सबको प्रिय था। पर हमारे पढ़ने लिखने में मदद करने की स्थिति में वे न थे।

उन दिनों हमारे ग्वाल घर में बैलों, गायों, भैंसों और बकरियों की भरमार थी। हमारी जिम्मेवारी उन्हें चराने, घास पानी देने की थी। हमने इसका जमकर फायदा उठाया। हम उनके साथ अंग्रेजी में बोला करते थे और ताज्जुब की बात यह थी कि वे समझ भी लेते थे।

खेत में हल जोतते हुए, पाटा चलाते हुए या बैल गाड़ी हांकते हुए भी मैं तमाम निर्देश अंग्रेजी में देता था। सभी लोगो इस पर एक राय थे कि यह लड़का पगला गया है। पर मुझे इसकी कोई परवाह न थी।

छठीं में दाखिला लेकर दिनेशपुर हाई स्कूल में गया तो वहां सुरेश चंद्र शर्मा जैसे सख्त टीचर मिले , जिन्हें मार मारकर ग्रामर में दुरुस्त करने की​​ आदत थी। जब नौवीं में पढ़ने शक्तिफार्म राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पहुंचे , तब वहां चराने के लिए ढोर डंगर न थे, पर जिस रतन फार्म नंबर दो में मैं लाजिंग में रहकर बच्चों को पढाया करता था, वहां से करीब दो मील दूर घना जंगल था, जहां अंग्रेजी बोलने से मुझे कोई रोक नहीं सकता था।

सारे पेड़ पौधे मेरे दोस्त बन गये थे। इसका नतीजा यह निकला कि जीआईसी नैनीताल में दाखिला मिलने के बाद वहां शेरवूड, बिड़ला मंदिर, सेंट जोजफ से आये बच्चों के मुकाबले खड़ा होने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। डीएसबी में दाखिला लेते ही हम अंग्रेजी माध्यम में चले गये। वहां हमारे साथ कांवेंट में पढ़ी बड़े घरों की बेटियां भी थीं। मैं ही क्या, सरकारी स्कूलें से जीआईसी और डीएसबी में पहुंचने वाले तमाम बच्चों को निजी महंगे स्कूलों में पढ़कर आनेवालों में कोई सुर्खाब के पर लगे नजर नहीं आते थे।​

हाईस्कूल तक गणित और विज्ञान विषयों में मेरी गहरी रुचि थी। पर उसके लिए भी कोई ट्यूशन की जरुरत कभी नहीं पड़ी। बल्कि जिला परिषद स्कूल होने के कारम अक्सर दिनेशपुर हाई स्कूल में इन विषयों के टीचर नहीं होते थे। में सिर्फ एक साल नवीं कक्षा में शक्तिफार्म में था। दसवीं पढ़ने फिर घर लौट आया था। शक्तिफार्म में प्रशिक्षित शिक्षकों के कारण परीक्षाओं की तैयारी करना आ गया था। मेरी किताबें दूसरी थीं। दसवीं में स्कूल में दूसरी किताबें ​​पढ़ाई जाती थीं। हमें इसकी परवाह नहीं होती थी। ज्यादा से ज्यादा सवाल हल करो और भौतिकी एवं रसायन के सारे सम्स का अभ्यास करो।सीधा सा फार्मूला था हमारा मुश्कल आसान करने के लिए।

तब खेती हम लोग खुद करते थे। दर्जनों मजदूर काम करते थे।हर मौसम में खेती का काम रहता था। हमें पढ़ाने लिखाने का उद्देश्य कोई कैरियर बनाना न था। घरवाले चाहते थे कि समाज में चलने लायक पढ़ा लिखा जरूर बनना चाहिए। पर सर्वोच्च प्राथमिकता खेती थी।

चूंकि में हमेशा पढ़ने लिखने में डूबा रहता था दिन दिन भर और रात रात भर सवालों से जूझता रहता था, अक्सर खेती के काम में गलतियां हो जाया करती ती। हमरे ताउजी की राय थी कि में नंबरी कामचोर हूं और काम से बचने के लिए ही किताबों कापियों में डूबने का बहाना करता हूं। इससे कड़ी गरमी में जब उनका मिजाज गरमा जाता था, तो अक्सर वे मुझे पढ़ने लिखने के अपराध में जमकर धुन डालते थे।

मार हजम करने की कला का हमने भी खूब अभ्यास किया था। क्योंकि घर और स्कूल दोनों जगह बेमौसम बरसात की तरह अमूमन पिटाई हो जाती थी। इसलिए मार पीट का हमारी सेहत पर कोई ज्यादा असर होना न था। हम अपनी आदतों से कभी बाज​​ नहीं आये। यहां तक कि डीएसबी में पढ़ते हुए भी नेतीगिरि की साख बन जाने के बावजूद खेती के काम से कोई छुट्टी की गुंजाइश नहीं थी। गरमी और जाड़ों की छुट्टियों में आकर हम घर में बाकायदा खेतिहर मजदूर बन जाते थे। फर्क सिर्फ इतना था कि तब हम ट्रैक्टर भी चलाने लगे थे।

​​लेकिन तब तक हम तारा चंद्र त्रिपाठी चाणक्य के शिष्य बन चुके थे और चंद्रगुप्त मौर्य हमें सपने में आने लगे थे। कपिलेश भोज की युगलबंदी के​ ​ साथ गिर्दा की दुनिया में दाखिल थे हम, जहां दुनिया का कोई पाठ्यक्रम हमें बांध नहीं सकता था। केती बाड़ी के काम से क्यों घबराते?

हमारे बेहद कामयाब मित्र सवाल उठा सकते हैं कि इस तरह पढ़ तिखकर हमने कौन से तीर मार लिये। मेरा बेटा भी यही सवाल करता रहा है , जबभी हमने उसके साथ अपना बचपन शेयर करना चाहा।

यह सही है कि हममें से कुछ लोग बेहद नाकायाब साबित हो सकते हैं। पर हकीकत यह है कि हमसे भी ज्यादा मुश्किलात का सामना करते हुए हमारे समय के लोग कामयाबी के शीर्ष तक पहुंचे और उनकी कामयाबी में निजी स्कूलों का कोई योगदान नहीं ​​रहा। पहाड़ों में रोजाना मीलों पगडंडियों पर सवार होकर बच्चे देश भर में कामयाबी के झंडे गाड़ चुके हैं। यहीं नहीं, इलाहाबाद और वाराणसी हिंदू विश्वविद्योलयों में साधनहीन बच्चों ने हमेशा चमत्कार किया है।

लेकिन तब सिब्बल समय नहीं था और न नालेज इकानामी का कोई वजूद था। जेएनय़ू और तमाम केंद्रीय विश्वविद्यालय तो खैर बाद में बने, पर हमारे लिए काशी, इलाहाबाद और अलीगढ़ विश्वविद्यालय किसी विदेशी विश्वविद्यालय से​ ​ कम नहीं थे।अपने डीएसबी में पढ़ने लिखने का माहौल ऐसा था कि रीडिंग रूम और लाइब्रेरी में हमेशा कतार लगी रहती थी।आज विश्वविद्यालयों और कालेजों के क्या हाल हैं?


अब शिक्षा के अधिकार कानून के तहत सभी सरकारी, वित्तीय सहायता प्राप्त व गैर वित्तीय सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में गरीब विद्यार्थियों के लिए 25 प्रतिशत स्थान सुरक्षित रहेगा। यूं तो यह कानून 2009 में ही पारित हो गया था, लेकिन तब निजी स्कूलों ने इसके खिलाफ याचिका दायर करके कहा था कि यह धारा 19 (1) के तहत कानून निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन करता है। उनका तर्क था कि धारा 19 (1) निजी संस्थानों को बिना किसी सरकारी हस्तक्षेप के अपना प्रबंधन करने की स्वायत्तता देता है। कहना न होगा कि जब से देश में शिक्षा का निजीकरण प्रारंभ हुआ, शिक्षा को एक वर्ग विशेष तक सीमित रखने के षडयंत्र भी प्रारंभ हो गए। दरअसल शिक्षा को निजी हाथों में सौंपने की सोच उस पश्चिमी, विशेषकर अमरीकी मानसिकता से प्रभावित है, जो अपनी जरूरत के मुताबिक आम जनता को शिक्षा उपलब्ध कराती है। इसी सोच का नतीजा है कि आज अमरीका में विद्यालयों में बीच में पढ़ाई छोड़ देने वाले बच्चों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। स्नातक या उससे आगे की उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों का प्रतिशत बहुत कम है। कुछ दशकों पूर्व तक अश्वेत बच्चों को शिक्षा आसानी से उपलब्ध नहींथी। यही स्थिति आज भारत की दिख रही है। संविधान में घोषित प्रावधानों के बावजूद दलितों, पिछड़ों, अति गरीबों के लिए शिक्षित होना आकाशकुसुम तोड़ने की तरह है। एक वर्ग को शिक्षा से वंचित रखने का मुख्य कारण यही है कि वह चुपचाप दमित होता रहे, शोषण सहता रहे और शारीरिक श्रम के अतिरिक्त उसके पास कोई विकल्प न रह जाए। जब अमरीका में कार्यालयों में कार्य करने योग्य प्रशिक्षित लोगों की कमी होने लगी, और श्रमिकों की संख्या बढ़ गई, तब वहां स्कूली शिक्षा से आगे की शिक्षा को प्रोत्साहित करने की योजना सरकार की प्राथमिकता में आयी। दुर्भाग्य यह है कि भारत में शिक्षा का व्यापार करने वाले अमरीकी सोच से ही प्रभावित दिखते हैं।

कानून के प्रावधान
इस कानून के अनुसार राज्य सरकारों को बच्चों की आवश्यकता का ध्यान रखते हुए लाइब्रेरी, क्लासरुम, खेल का मैदान और अन्य जरूरी चीज उपलब्ध कराना होगा।
15 लाख नए शिक्षकों की भर्ती, जिसे एक अक्टूबर तक ट्रेन करना जरूरी है।
स्कूल में प्रवेश के लिए मैनेजमेंट बर्थ सर्टिफिकेट फिर ट्रासंफर सर्टिफिकेट आधार पर प्रवेश से मना नहीं कर सकता।
सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश
सत्र के दौरान कभी भी प्रवेश
इस कानून के तहत स्कूलों में कुछ निश्चित न्यूनतम सुविधाएं होनी चाहिए, जैसे - पर्याप्त संख्या में शिक्षक, खेल के मैदान और बुनियादी ढांचा।  

अब प्रश्न यह उठता है शिक्षा के अधिकार का यह कानून क्या व्यवाहरिक रूप में इस देश में लागू हो पायेगा ? क्या वास्तव में इस देश के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए बच्चो को यह अधिकार शिक्षा दिला पायेगा ? क्या उन्हें कभी यह पता चल पायेगा कि उनके पास भी शिक्षा पाने का संवैधानिक अधिकार है? क्या वास्तव में प्राइवेट स्कूल जिनकी महीने की फीस पांच -पांच हजार रूपये है गरीब बच्चो को अपने स्कूल में दाखिला देंगे जिनके माँ – बाप ५००० तो दूर ५०० रूपये की भी फीस दे पाने में असमर्थ है ?कहने का तात्पर्य यह है कि जिस देश में लाखो बच्चे आर्थिक विषमता के चलते बाल श्रम करने को मजबूर हो उस देश में ऐसे अधिकार का क्या मतलब है ?

बहरहाल मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने आरटीई को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए राज्यों को दस सूत्री एजेंडे पर काम करने का सुझाव दिया है।14 साल की उम्र तक बच्चों को निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार (आरटीई) को सर्वोच्च न्यायालय से संवैधानिक रूप से उचित ठहराए जाने के बाद मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्यों को पत्र भेजकर इस कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने का सुझाव दिया है।केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने बुधवार को कहा कि संसद में राजनीतिक स्वार्थ राष्ट्रीय हित पर हावी हो रहे हैं। सिब्बल ने यह बात संसद में कई महत्वपूर्ण शिक्षा विधेयकों के लम्बित होने के मद्देनजर कही।

भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के एक कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए सिब्बल ने कहा, 'राजनीतिक इच्छाशक्ति यदि हो तो सबकुछ हो जाएगा..भारत को सशक्त बनाने के हितों पर सत्ता में बने रहने के राजनीतिक दलों के स्वार्थ हावी हो रहे हैं।' केंद्रीय मंत्री ने बताया कि देश में विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसर खोलने से सम्बंधित उन्हें नियंत्रित करने वाला विधेयक, उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान पर राष्ट्रीय आयोग (एनसीएचईआर) के गठन के लिए एक विधेयक और शैक्षिक कदाचार पर रोक लगाने से सम्बंधित विधेयक सहित कई शिक्षा विधेयक संसद के समक्ष लम्बित हैं।

उन्होंने बताया कि 14 से अधिक विधेयकों के मसौदे लम्बित हैं और इनमें से ज्यादातर मसौदों को स्थायी समिति की मंजूरी मिल चुकी है। सिब्बल ने कहा कि विधेयक तैयार करने में मुझे एक वर्ष का समय लगा और विधेयक दो वर्षों से संसद में लम्बित है। यह तब है जब स्थायी समिति ने इसे अपनी मंजूरी दे दी है। इस स्थायी समिति में सभी राजनीतिक दलों के सदस्य हैं..और समिति के 80 से 90 प्रतिशत सुझावों को स्वीकार कर लिया गया है।

उन्होंने कहा, 'शिक्षा एवं स्वास्थ्य को राजनीतिक एजेंडे से अवश्य ऊपर रखा जाना चाहिए।' सिब्बल ने कहा कि उच्च शिक्षा की जरूरतों को देखते हुए इन विधेयकों को पारित करना जरूरी है। इन विधेयकों के पारित होने से विदेशी विश्वविद्यालयों के परिसरों का खुलने का रास्ता साफ होगा और शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार होगा। सिब्बल ने शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर भी जोर दिया।

सिब्बल की ओर से 17 अप्रैल को सभी राज्यों (जम्मू एवं कश्मीर छोड़कर) के मुख्यमंत्रियों व शिक्षा मंत्रियों को भेजे पत्र कहा गया है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने इस कानून की संवैधानिक मान्यता को और मजबूती प्रदान की है।

हमें अब आठ साल तक (पहली से आठवीं कक्षा तक) के बच्चों को गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के लिए प्रतिबद्धता दिखानी चाहिए। इस लक्ष्य को पाने के लिए दस सूत्री एजेंडे पर काम करना होगा।

सिब्बल के अनुसार सभी राज्य नेबरहुड स्कूल के तहत सभी क्षेत्रों में पर्याप्त स्कूल की उपलब्धता सुनिश्चित करें। साथ ही स्कूलों में छात्र व शिक्षक अनुपात को उचित बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में प्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती व तैनाती करें।

सभी स्कूलों में पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं, जिनके लिए सर्व शिक्षा अभियान में व्यवस्था दी गई है। राज्यों से यह भी अपेक्षा की गई है कि वे स्कूली बच्चों के पाठ्यक्रम में सुधार करें तथा इसका सतत मूल्यांकन भी सुनिश्चित करें।

पत्र में दस सूत्री एजेंडा के तहत शिक्षकों को नए पाठ्यक्रम के अनुसार प्रशिक्षत करने, सभी स्कूलों में बच्चों को किताबें, यूनिफार्म आदि भी समय से उपलब्ध कराने पर जोर दिया गया है। इस कानून के तहत गरीब व वंचित तबके के बच्चों के लिए आरक्षित सीटों पर उन्हें प्रवेश दिलाना भी राज्यों की जिम्मेदारी है।

आरटीई कानून मुख्यत: बच्चों के हितों को संरक्षित करती है। इसलिए इसके तहत बच्चों को स्कूल में दंडित करने, स्कूल से निकालने तथा फेल करने पर भी पाबंदी है। सरकार को इसे प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए निगरानी करने को भी पत्र में सुझाव दिया गया है।

बच्चों को किसी भी देश के सर्वोच्च संपत्ति हैं. वे संभावित मानव संसाधन है किहै करने के लिए दृढ़ता से जानकार और देश की प्रगति सक्षम पुण्य किए जाने हैं. शिक्षा एक आदमी के जीवन में ट्रान्सेंडैंटल महत्व का है. आज, शिक्षा, संदेहके एक कण के बिना, एक है कि एक आदमी के आकार है. RTE अधिनियमविभिन्न विशेषताओं के साथ जा रहा है, एक अनिवार्य प्रकृति में है, इसलिएसच के रूप में, लंबे समय लगा और सभी के लिए शिक्षा प्रदान करने कीआवश्यकता सपना लाने के लिए में आ गया है. भारत 66 प्रतिशतक के एकगरीब साक्षरता दर, के रूप में अपनी रिपोर्ट 2007 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक,वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन द्वारा दी गई और जैसा कि संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट, 2009 में शामिल के साथ विश्व साक्षरता रैंकिंग में149, स्थान है.

वास्तव में, शिक्षा जो एक संवैधानिक अधिकार था शुरू में अब एक मौलिक अधिकार का दर्जा प्राप्त है. अधिकार की शिक्षा के लिए विकास इस तरह हुआ है: भारत के संविधान की शुरुआत में, शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 41 के तहत राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत मान्यता दी गई थी जिसके अनुसार,

"राज्य अपनी आर्थिक क्षमता और विकास की सीमाओं के भीतर, शिक्षा और बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी और विकलांगता के मामले में सार्वजनिक सहायता करने के लिए काम करते हैं, सही हासिल करने के लिए प्रभावी व्यवस्था करने, और नाहक के अन्य मामलों में चाहते हैं ".

मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का आश्वासन राज्य के नीति निर्देशक अनुच्छेद 45, जो इस प्रकार चलाता है के तहत, सिद्धांतों के तहत फिर से किया गया था, "राज्य के लिए प्रदान करने का प्रयास, दस साल की अवधि के भीतर होगा मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के लिए इस संविधान के सभी बच्चों के लिए प्रारंभ से जब तक वे चौदह वर्ष की आयु पूर्ण करें." इसके अलावा, शिक्षा प्रदान करने के साथ 46 लेख भी संबंधित जातियों अनुसूची करने के लिए, जनजातियों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों अनुसूची. तथ्य यह है कि शिक्षा का अधिकार 3 लेख में किया गया है साथ ही संविधान के भाग IV के तहत निपटा बताते हैं कि कैसे महत्वपूर्ण यह संविधान के निर्माताओं द्वारा माना गया है. 29 लेख और आलेख शिक्षा के अधिकार के साथ 30 समझौते और अब, हम अनुच्छेद 21A है, जो एक मजबूत तरीके से आश्वासन अब देता है.

2002 में, संविधान (अस्सी छठे संशोधन) अधिनियम शिक्षा के अधिकार के माध्यम से एक मौलिक अधिकार के रूप में पहचाना जाने लगा. लेख 21A इसलिए सम्मिलित होना जिसमें कहा गया है आया, "राज्य राज्य के रूप में इस तरीके से, विधि द्वारा, निर्धारित कर सकते में छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा.we should punish those teachers who just sitv in the classes not teaching the students यह अंततः उन्नी कृष्णन जेपी वी. राज्य आंध्र प्रदेश की कि शिक्षा को एक मौलिक अधिकार में लाया जा रहा में दिया निर्णय किया गया था. इस के बाद भी, यह शामिल संघर्ष की एक बहुत अनुच्छेद 21A के बारे में लाने के लिए और बाद में, शिक्षा का अधिकार अधिनियम. इसलिए, RTE अधिनियम के लिए एक कच्चा मसौदा विधेयक 2005 में प्रस्ताव किया गया.

बच्चों के अधिकार को नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम, लोकप्रिय शिक्षा का अधिकार अधिनियम के रूप में जाना अप्रैल, 2010 के 1 को प्रभाव में आया था. RTE अधिनियम के 4 अगस्त, 2009 को भारत की संसद द्वारा 2 जुलाई 2009 और निधन पर कैबिनेट मंत्रालय द्वारा 20 वीं जुलाई, 2009 को राज्य सभा के अनुमोदन के बाद पारित किया गया था. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने इस विधेयक को मंजूरी दे दी है उसके और इस के राजपत्र में नि: शुल्क बच्चे के अधिकार पर और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम के रूप में अधिसूचित किया गया सितम्बर, 2009 3. 1 अप्रैल, 2010 पर, यह भारत के जम्मू और कश्मीर राज्य को छोड़कर, पूरा करने के लिए लागू के रूप में अस्तित्व में आया.

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