बुन्देलखंड में खर्च नहीं हो पा रहा मनरेगा का मद
- THURSDAY, 05 APRIL 2012 15:05
मनरेगा सिर्फ योजना ही नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार द्वारा पारित कराया गया 'काम के अधिकार' से निकला अधिनियम भी है. मनरेगा खासकर बुन्देलखण्ड के संदर्भ में फटे हुये कपड़े के ऊपर थिंगरा लगा देने जैसी बात है...
आशीष सागर
प्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मिलकर केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने भले ही उनसे मनरेगा योजना की सीबीआई जांच की मांग की हो, लेकिन बुन्देलखण्ड की तस्वीर इस जांच से भी सुधरने वाली नहीं है. तमाम गाँवों के मजदूरों को मनरेगा में जहां काम नहीं मिल रहा है, हीं प्रशासनिक अमला मनरेगा के करोड़ों रुपयों के पैकेज से काम दिलाने का दम भर रहा है.योजना का भारी भरकम पैसा खर्च न कर पाने के चलते बीते वित्तीय वर्ष 2010-11 में ही मनरेगा योजना से मिले केन्द्र सरकार के 843.67 लाख रुपये में से महज 685.59 लाख रुपये ही खर्च हो पाये हैं.लक्ष्य पूरा न कर पाने के कारण 158 करोड रुपया बुन्देलखण्ड की बंजर जमीन से वापस लौट गया.
ताजा सर्वे के आकड़ों पर गौर करें तो गांव में काम नहीं मिलने के चलते विधानसभा चुनाव 2012 में ही तकरीबन 4 लाख मतदाता शहरों की तरफ पलायन कर चुके हैं.निर्वाचन आयोग के मतदाता जागरूकता कार्यक्रम और सरकारी स्कूलों के माध्यम से निकाली जा रही जनजागरण रैलियां भी परदेशी बाबू को घर लौट आने का संदेश नहीं दे सकी.गरीबी के चलते लाखों की तादाद में बुन्देलखण्ड के किसान परदेश में मजदूर बनने को लाचार हैं.विभिन्न सरकारी योजनायें जहां उनके विकास का दावा करती हैं, वहीं बुन्देलखण्ड का किसान हर सरकारी योजना की मण्डी बनकर रह जाता है.
यहां के अनगिनत गांव ऐसे हैं, जो मनरेगा की गाइडलाइन पर खरे नहीं उतरते.गौरतलब है कि मनरेगा सिर्फ योजना ही नहीं, बल्कि केन्द्र सरकार द्वारा पारित कराया गया 'काम के अधिकार' से निकला मनरेगा अधिनियम भी है.भारत में अगर राजस्थान को छोड़ दिया जाये तो अन्य प्रदेशों में मनरेगा खासकर बुन्देलखण्ड के संदर्भ में विकास की योजनाओं पर फटे हुये कपड़े के ऊपर थिंगरा लगा देने जैसी बात है.
जहां मनरेगा कार्यस्थल पर करवाये जा रहे काम का बोर्ड लगा होना चाहिये, वहीं बोर्ड के ऊपर कुल बजट, कुल मजदूर, जाब कार्ड होल्डर, मैट का नाम, कार्य दिवस की अवधि के साथ-साथ सामग्री और अन्य चीजो पर किये गये पूरा ब्योरा लिखा होना चाहिये.मगर बुन्देलखण्ड के किसी भी जनपद में मनरेगा की गाइडलाइन के दिये गये शासनादेश देखने को नहीं मिलते.जिले में बैठे मुख्य विकास अधिकारी से लेकर मनरेगा के अन्तिम पायदान पर खड़े गांव के दबंग मैट यकीनन मनरेगा योजनाओं को भ्रष्टाचार की भेंट चढा रहे हैं.बानगी के तौर पर जनपद बांदा की ग्राम पंचायत मटौंध ग्रामीण के मजरा पटना को लिया जा सकता है.
हाल ही में सम्पन्न हुये विधानसभा चुनाव में विकास न होने के चलते पटना के वासियों ने सामूहिक रूप से वोटों का बहिष्कार किया. इस गांव के किसान बृजेश सिंह चुन्नू बताते हैं, 'वर्ष 1985 के बाद से मैंने कई बसन्त देखें और कई बार प्रशासन को लिखित रूप से पटना की दास्तान सुनाई, मगर विकास के नाम पर पटना के हिस्से में साल-दर-साल चुने हुये ग्राम प्रधान और विधायक ही आये.जनप्रतिनिधियों ने जहां पटना मजरे के लिये दिये गये विकास के धन पर लूट-खसोट की, वहीं मनरेगा से बनने वाले माडल तालाब, मेडबन्धी, औषधीय पौंधों की बागबानी, सड़क निर्माण कार्य भी नहीं कराये गये.'
बेरी गांव में शामिल तमाम छोटे मजरों के ग्रामीणों ने भी अपनी दास्ताँ सुनाई. इन्द्रपुरी, बिन्दपुरी, बरौली आदि ग्रामीणों की मानें तो इस गांव में भी पटना गांव की तरह ही बुनियादी समस्यायें सिर उठाये खड़ी हैं.पानी, सड़क, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं के अभाव और बेरोजगारी के कारण युवा पलायन की मार झेल रहा है.गांव के राजेश सिंह, विजय सिंह, आदित्य तिवारी, संगम शिवहरे, भरत सिंह, नफीस, निहाल खान आदि का कहना है कि पिछले वर्षों के चुने हुए और विधायकों ने उनके हिस्से में विकास की एक किरण नहीं लिखी.
बेरी गांव में आज भी ढिबरी (दिये) की रोशनी में बच्चे पढ़ाई करते हैं.गांव की पगडण्डियों से चलकर मजलूम किसान काम से खाली तसलों को देखकर सिहर उठता है.ग्राम प्रधान से परेशान गांव के जागरूक मतदाता राजेश सिंह दो टूक कहते हैं, 'जब सबकुछ हमें ही करना है तो इन नेताओं को वोट क्यों दिया जाय? क्या हम मतदाता पांच वर्ष के चुनावों में सम्पन्न हुए वोटों की मण्डी हैं? अगर विकास नहीं मिलता है तो हम वोट क्यों करें?' कुरारा के एसडीएम एचजीएस पुंडीर, एएसपी एसपी उपाध्याय, एसडीएम सदर प्रबुद्ध सिंह की काफी जद्दोजहद और मान मनौव्वल के बावजूद ग्रामीणों ने वोट नहीं डाले और अधिकारियों को बैरंग लौटा दिया.
चालू वर्ष 2011-12 में मनरेगा से बांदा जनपद को कुल 6310 लाख रुपये मिले, इसमें से 197 लाख प्रशासनिक व्यय, 1925 लाख सामग्री व्यय, 36 लाख कुशल मानव श्रम, 4151 लाख अकुशल मानव श्रम पर और शेष 192 लाख रुपये आवर्ती व्यय मदों पर खर्च किया गया है.आकड़ों में मनरेगा के रुपये की बन्दरबांट देखकर मशहूर जमीनी शायर अदम गोंडवी की पंक्तियां याद आती हैं 'तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है.'
सदर विधायक बांदा एवं कांग्रेस के प्रदेश मीडिया प्रभारी विवेक सिंह ने कहा कि केन्द्र सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट को प्रदेश की बसपा सरकार ने जमकर लूटा है. वहीं बांदा के जिला ग्राम विकास अभिकरण में नियुक्त परियोजना निदेशक कहते हैं कि बुन्देलखंड की जलवायु में किसान के अंदर काम करने की शारीरिक क्षमता ही नहीं है.यहां रहने वाले वाशिंदों को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे कितना काम कर सकते हैं.
परियोजना निदेशक के अनुसार मनरेगा में अन्य कामों को छोड़कर माडल तालाब की खुदाई के लिये मजदूरों के साथ साथ जेसीबी मशीन का भी इस्तेमाल किया जाना चाहिये.मजदूर के तसलों से भरी हुयी मिट्टी से कहीं अधिक जेसीबी की मशीन में मिट्टी निकालने की कूबत होती है, ये बात और है कि मनरेगा अधिनियम के तहत मशीन से काम करवाये जाने पर प्रतिबंध है.
जनपद बांदा में नरैनी क्षेत्र के सामाजिक कार्यकर्ता राजाभइया यादव कहते हैं 'बुन्देलखण्ड में मनरेगा से हर साल करोड़ों के वारे न्यारे होते हैं, मगर कामगार को काम नहीं मिलता और जरूरतमंदों को जाबकार्ड नहीं मिलता.यहां तक की मुर्दों के भी जाब कार्ड बना दिये जाते हैं.नरैनी क्षेत्र के कोलावल रायपुर, शहबाजपुर, पुकारी, गोबरी, निहालपुर जैसे सुदूरवर्ती गांव विकास की मुख्य धारा से अछूते हैं.केन्द्र सरकार के ग्रामीण विकास राज्यमंत्री प्रदीप जैन आदित्य बुन्देलखण्ड की सरजमीं से आते हैं.
ashishsagar.dikshit@janjwar.com
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