Thursday, April 19, 2012

मैं मैं हूं, कोई देश नहीं!

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आमुखसिनेमा

मैं मैं हूं, कोई देश नहीं!

19 APRIL 2012 ONE COMMENT

यस : स्वीकार का विवेक और अस्वीकार का साहस

♦ राहुल सिंह

9/11एक ऐसी वैश्विक परिघटना थी, जिसने न सिर्फ साहित्य और विभिन्न अनुशासनों में अपने लिए जगह बनायी बल्कि सिनेमा समेत विभिन्न कलाओं को भी अपने जद में ले लिया। सैली पोटर की यस भी उसी 'पोस्ट 9/11 ट्रामा' को संबोधित है, लेकिन एक खास अनकहे अंदाज में। वर्चस्व की नीयत किस तरह सह-अस्तित्व की नियति को प्रभावित कर सकती है, राजनीतिक और धार्मिक कारण किस कदर हमारे व्यक्तिगत आचरण में बदलाव ला सकते हैं… सैली पोटर इसे पर्दे पर साकार करने के लिए कैमरे का जिस संजीदगी से इस्तेमाल करती हैं, वह उन्हें हमारे समय के सिनेमाई चेतना की समझ रखनेवाले विरल फिल्मकारों में शामिल किये जाने के लिए काफी है। नेपथ्य से उपजती कमेंट्री और संवाद की लय के साथ कैमरे की जुगलबंदी किस कदर दृश्‍यावलियों से कविता रच सकती है और कैसे कविता को दृश्‍यावलियों में ढाला जा सकता है, सैली पोटर की यस (2004) इसका एक शानदार उदाहरण है।

एक प्रभावशाली और एक अपेक्षाकृत हीनतर पेशेवाले दो जुदा व्यक्तियों के वर्तमान के साथ कहानी आगे बढ़ती है। दोनों का वर्तमान ही हमारे सामने है लेकिन अपेक्षाकृत कमजोर का एक अतीत भी है और उस कमजोर अतीत का एक सिरा उस प्रभावशाली के वर्तमान से जुड़ा है। अस्तित्व को बचाये रखने के लिए बाजदफा इसकी अनदेखी की जाती है लेकिन कभी-कभी ऐसी घटनाएं घट जाती हैं कि आत्मावलोकन के उन क्षणों में स्वयं को जवाब देना होता है। अपनी नजरों में अपने सम्मान को बचाये रख पाना, अपने वजूद को बचाये रख पाने का सवाल हो जाता है। किसी औसत प्रेम कहानी की तरह शुरू होनेवाली 'यस' राफ्ता-राफ्ता भेदती है। धीरे-धीरे हम एक ऐसे संसार में दाखिल हो जाते हैं जो एक साथ हमारे समय के राजनीतिक, धार्मिक, लैंगिक अंतर्विरोधों को अपने में आत्मसात किये हुए है। 'यस' ऐसी फिल्म है जो कंटेंट के धरातल पर तो एक गंभीर दार्शनिक और विमर्शमूलक फिल्म है और फार्म के धरातल पर किसी कविता सरीखी है।

कहानी फकत इतनी है कि आइरिश मूल की जैव वैज्ञानिक अमेरिकी महिला (जान एलेन), जिसका पति एक राजनीतिज्ञ है और जिनकी वैवाहिक जिंदगी बेपटरी और बेरंग हो चुकी है, की जिंदगी में मध्य पूर्व के एक लेबनानी मर्द (सिमोन अब्केरियन) की आमद होती है और उनके बीच गहराती अंतरंगता के साथ फिल्म आगे बढ़ती है। दोनों बिलकुल अलग पृष्‍ठभूमियों से ताल्‍लुक रखने के कारण अपने व्यक्तित्व में अपनी-अपनी विरासत की छाप लिये हैं। एक दूसरे की बांहों में डूबते-उतरते उनकी यह अस्मितामूलक पहचान कुछ पल को गुम-सी हो जाती है लेकिन 9/11 को घटी घटना इस गहराती अंतरंगता को तोड़ने का काम करती है। और अचानक से फिल्म इस कदर पॉलिटिकल हो जाती है कि यकीन करना मुश्किल हो जाता है कि दो मिनट पहले तक हम वही फिल्म देख रहे थे। जब पुरुष अपनी महिला मित्र से यह कहता है कि 'मेरा जिस्म जो कभी मेरा हुआ करता था, इस पर अब तुम्हारा अधिकार हो गया है, और मैं उसे वापस चाहता हूं। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि मैंने तुम्हें जो देवी की तरह पूजा था, वह सब झूठ था। लेकिन यह इतना ही सच है कि वह देवी का दर्जा मैंने तुम्हें दिया था। देवी और उपासक के बीच की रेखा खींचने का अधिकार मेरा है, न कि तुम्हारा। तुम्हें हमारी जमीनें चाहिए, तुम्हें हमारा तेल चाहिए और तुम खुद को सभ्य कहती हो। तुम्हारा देश एक निरंतर आग उगलनेवाला ड्रेगन सरीखा है। जहां सब कुछ भव्य है। तुम हर तरह से मुझसे बेहतर हो तो क्यों मुझे चाहती हो। आखिर ऐसा क्यों है कि मुझे ही अंग्रेजी सीखनी चाहिए? क्या तुम्हें मेरी भाषा का एक भी शब्द याद है? तुम्हारी सरजमीं पर कदम-कदम पर मेरे आत्म सम्मान को ठेस पहुंचायी जाती है।'

इसके जवाब में वह कहती है कि 'मैं मैं हूं कोई देश नहीं।' यकायक वे दोनों न सिर्फ अलग अस्मिताओं में तब्दील हो जाते हैं बल्कि वे हमारे समय के कई मेटाफर में बदल जाते हैं। ईसाइयत बनाम इस्लाम, अमेरिका बनाम मध्य पूर्व, विकसित देश बनाम तीसरी दुनिया, अंग्रेजी बनाम अन्य भाषाएं, वर्चस्व बनाम प्रतिरोध के इतने आयाम एक साथ हमारे सामने प्रकाश की गति से चलायमान हो जाते हैं। अगर आपने एडवर्ड सईद की 'ओरियंटलिज्म' नामक किताब पढ़ी है, तो इन संवादों को सुनते हुए उसकी याद जरूर आएगी। फिल्म की एक खास मंथर गति के बीच लगायी गयी यह असंभावित छलांग भीतर एक शोर को जन्म देती है, जो बाहर के शोर को सन्नाटे में तब्दील कर देता है। फिल्म में भी अंतर्मन की आवाज को सुनने के लिए बाहर के शोर को पॉज करने का अनूठा प्रयोग किया गया है। रूमानियत के क्षणों में संवादों के काव्यत्व को महीन सुरलहरी के आवरण में लपेटकर कैमरे की गति से नियंत्रित किया गया है। संवाद अदायगी के दौरान अचानक से बैकग्राउंड स्कोर का खामोश हो जाना या संवाद का दोहरानेवाले अंदाज में सामने आना, मनोदशा को उभारने के लिए प्रयोग में लाया गया एक सिनेमाई कौशल है। सैली पोटर अपनी रचनात्मकता और नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के बल पर सिनेमा के व्याकरण को समृद्ध करने का काम करती हैं।

एक नियमित अंतराल पर जान एलेन की नौकरानी (शर्ले हैंडरसन) की दार्शनिक टिप्पणियां अलग से इस फिल्म के आकर्षण और विचार का केंद्र है। फिल्म की शुरुआत ही उसके इस दार्शनिक वक्तव्य से होती है कि 'साफ-सफाई एक तरह का भ्रम है। हम जो पेशेवर सफाईकर्मी हैं, वे इस बात को भली भांति जानते हैं कि धूल का खात्मा नहीं किया जा सकता है, वह बस एक जगह से उड़ कर दूसरी जगह जा बैठती है। जब तक जीवन है, तब तक न तो धूल से बचा जा सकता है और न उसका खात्मा किया जा सकता है। इससे निपटने की जिम्मेदारी हम जैसों पर होती है इसलिए हमें या तो कास्मेटिक आर्टिस्ट या फिर डर्ट कनसल्‍टेंट कहा जाना चाहिए।'

सैली पोटर ने 9/11 के बाद अमेरिका के द्वारा अरब देशों के किये जानेवाले खलनायकीकरण और अरब देशों में अमेरिका के प्रति पनपनेवाली घृणा और भय के माहौल में एक फिल्मकार होने के नाते इस स्थिति पर रिस्पोंड करने की नीयत से इस फिल्म का निर्माण किया था। वे इन दो छोरों के साथ न्याय कर सकीं, इसका बड़ा कारण स्वयं उनका ब्रितानी मूल का होना रहा। भय और घृणा के दौर में प्रेम से बेहतर माध्यम क्या हो सकता था। अस्मितागत अंतरों के बावजूद आखिरकर भावना के स्तर पर हम समान तौर पर मनुष्‍य हैं। इसलिए इन बातों को ध्यान में रख कर एक ऐसी कथा बुनी गयी। इस कथा में इन तमाम बातों का समावेश जिस सफल अनुपात में किया गया है, उसे देखते हुए सैली पोटर की सिनेमाई चेतना को हैरतंगेज ही कहा जा सकता है। यह अलग बात है कि पूर्व और पश्चिम के इस संकट का जो संभावित हल वे प्रस्तावित करती हैं, उस पर बहस की गुंजाइश से इनकार नहीं किया जा सकता है। फिल्म के जिस हिस्से में पश्चिम की आलोचना की गयी है, वह खासा विश्‍वसनीय है। फिल्म का शीर्षक भी खासा दिलचस्प है। यस मतलब हां या सहमति, जो यह दर्शाता है कि दुनिया सहमति से चल सकती है, स्वीकारने के भाव से चल सकती है लेकिन सहमति या स्वीकार का यह विवेक, अस्वीकार और असहमति के साहस से पैदा होता है।

(राहुल सिंह। युवा आलोचक, कहानीकार। हिंदी की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में नियमित लेखन। इन दिनों एएस कॉलेज, देवघर में हिंदी पढ़ाते हैं। राहुल से alochakrahul@gmail.com पर संपर्क करें।)


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