Sunday, 15 April 2012 15:23 |
श्यौराज सिंह बेचैन चंद्रभान यादव दलित साहित्य के बारे में पहले ही काफी गुमराह कर चुके हैं। उपन्यासों के क्रम में काफी दिन गुमनाम रहा देवीदयाल सैन का उपन्यास 'मानव की परख' भी खोजा गया। इस उपन्यास का प्रकाशन आत्माराम एंड संस दिल्ली ने 1954 में किया था। प्रस्तावना उस समय के डाक-तार मंत्री बाबू जगजीवन राम ने लिखी थी। महत्त्वपूर्ण इसलिए कि जिस 'हरिजन से दलित' अवधारणा को लेकर आज के गांधीवादी हिंदू पत्रकार नई खोज की तरह पुस्तक संपादित करते हैं, देवीदयाल सेन के यहां यह धारणा 1954 में मौजूद थी। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की परियोजनाओं और विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य के अध्ययन की बढ़ती आवश्यकताओं ने विरोधियों को भी समर्थक बनने पर मजबूर किया है। कुछ समय पूर्व मुरादाबाद के केजीके कॉलेज में आंबेडकर पीठ की ओर से बाबा साहब आंबेडकर की पत्रकारिता विषय पर मेरा एक व्याख्यान कराया गया था, उसमें मैंने अपने शोध प्रबंध 'हिंदी दलित पत्रकारिता पर पत्रकार आंबेडकर का प्रभाव' की सहायता से कुछ अचर्चित घटनाएं उद्धृत की थीं। अगले सप्ताह मैंने देखा कि वे सारी सूचनाएं चंद्रभान यादव के लेख में अंकित हैं। पर कहीं भी स्रोत का हवाला नहीं है। 'दलित साहित्य की लूट है, लूट सके तो लूट' वाली कहावत की तरह कई नए स्थापनाकार पैदा हुए हैं। दूध में पानी मिलाने वाले मिलावटखोर और दवा में जहर मिलाने वाले डॉक्टरों के गिरोह सक्रिय हो गए हैं। ऐसे गैर-दलित हिमायती की हिमायत दलित साहित्य के लिए उसी तरह होती है जिस तरह श्रीकृष्ण के लिए पूतना मौसी का दूध। |
Sunday, April 15, 2012
कैसे कैसे विशेषज्ञ
कैसे कैसे विशेषज्ञ
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