Saturday, April 7, 2012

राज्य और समाज का रिश्ता

राज्य और समाज का रिश्ता


Saturday, 07 April 2012 11:00

रामेश्वर मिश्र पंकज 
जनसत्ता 7 अप्रैल, 2012: जातियां कुल-समूहों के अतिरिक्त और कुछ नहीं हैं। कुल-समूह और गोत्र-समूह भारतीय समाज की अनेक सामाजिक पहचानों में से एक महत्त्वपूर्ण पहचान है। प्रश्न यह है कि वोट देते समय जाति से ऊपर उठने की आवश्यकता ही क्या है? और क्यों है? कौन-सा चुनाव आज तक इस बात पर हुआ है कि जाति को मानेंगे या नहीं मानेंगे? चुनाव तो सदा सुशासन-कुशासन, विकास, महंगाई, राष्ट्रीय सुरक्षा और अन्य राष्ट्रीय नीतियों या महत्त्वपूर्ण प्रादेशिक मुद्दों के आधार पर होते हैं। 
संविधान की दृष्टि से तो वैसे भी चुनाव अपने सर्वोत्तम जन प्रतिनिधि के चयन और नियुक्ति की एक विधि है। राज्य के अन्य अंगों में चयन और नियुक्ति की विधियां अन्य हैं- आवश्यक अर्हताएं, शारीरिक, बौद्धिक और शैक्षणिक सामर्थ्य, संबंधित हुनर और बुद्धिकौशल के सामर्थ्य और संबंधित राजकीय अंग के लक्ष्यों के प्रति निष्ठा की जांच आदि ही इन विधियों के मूल में होते हैं।
राज्य के इन अन्य अंगों के चयन के लिए हमने आरक्षण के नाम पर जातियों के भी आधार निर्धारित कर रखे हैं, फिर भी मूलभूत आधार तो व्यापक ही हैं। उनका आधार जाति नहीं है और इन अंगों में चयन के बाद जाति का निषेध भी नहीं है। कभी यह नहीं कहा जाता कि सेना या पुलिस या पत्रकारिता या विश्वविद्यालय आदि में चयन जाति और धर्म से ऊपर उठ कर किया गया। क्योंकि यह माना ही जाता है कि चयन का आधार जाति या धर्मपंथ नहीं है, बल्कि अन्य है। 
तब चुनाव के समय जाति और धर्म से ऊपर उठने की बात का अर्थ क्या है? अर्थ स्पष्ट है कि साम्राज्यवादियों द्वारा प्रचारित कतिपय निराधार मान्यताओं के निष्ठावान अनुयायी शिक्षितजन यह मान कर चलते हैं कि जाति भारतीय समाज का एक दुर्गुण है और धर्म भी एक संकीर्ण या अवांछनीय वस्तु है। मानो जाति के रूप में सामूहिक सामाजिक पहचान बनी रही तो व्यक्ति भेदभाव, अन्याय, अमानवीयता करेगा ही। पर पार्टी, व्यावसायिक संगठन, ट्रेड यूनियन, पेशेवर संगठन आदि की सामूहिक पहचान ऐसे किसी दोष को जन्म नहीं देगी।
माना जाता है कि अगर मैं ब्राह्मण हूं तो मैं अन्य जाति वालों को तुच्छ मानूंगा ही, पर अगर मैं कम्युनिस्ट या सोशलिस्ट या कांग्रेसी हूं तो अन्य पार्टी वालों को तुच्छ नहीं मानूंगा, बराबरी का मानूंगा। लेकिन भाषणों में तो कांग्रेस वाले भी और कम्युनिस्ट भी और कुछ तथाकथित गांधीवादी भी भाजपाइयों-संघियों को तुच्छ या निंदनीय ही बताते हैं। इस जगजाहिर सचाई का क्या करें? अजी, उसकी चर्चा भी कुफ्र है। चुप रहें। 
इसी प्रकार माना जाता है कि अगर आप निष्ठावान हिंदू हैं, तो मुसलमान या ईसाई के विरोधी अवश्य होंगे, पर अगर आप भारत के मुसलमान हैं तो किसी भी भारतीय को काफिर नहीं मानेंगे और अगर आप भारतीय ईसाई हैं, तब तो आप करुणावतार ही हैं, आप किसी को 'हीदन' नहीं मानेंगे, छल-बल से बपतिस्मा भी नहीं दिलाएंगे, 'कन्वर्ट' भी नहीं करेंगे। आप तो इंसान-इंसान में कोई भेदभाव कर ही नहीं सकते। आप सदा 'रिलीजन' या मजहब से ऊपर उठे रहेंगे। प्रत्यक्ष में जिन्हें यह नहीं दिखता, उनकी दृष्टि गड़बड़ है साहब। इसीलिए वस्तुत: बहुसंख्यकों को ही प्रेरणा दी जाती है कि कम से कम चुनाव में तो जाति और धर्म से ऊपर उठ कर वोट दिया जाना चाहिए। इस प्रकार अपने ही द्वारा उछाले गए मुहावरों और परिकल्पित मान्यताओं के बंदी बन कर ये बातें कही जाती हैं। 
अगर मैं किसी अच्छे उम्मीदवार को उसकी योग्यता, सच्चरित्र, निष्ठा और सद््व्यवहार के कारण अपना वोट देता हूं, तो इससे मेरी जाति खंडित कैसे होती है? ऐसा करते हुए मैं जाति से ऊपर कैसे उठता हूं? जाति में रहते हुए ऐसा करने में क्या बाधा है? कौन-सी जाति यह सार्वजनिक रूप में मानती और सिखाती है कि अपनी गुंडा और अपराधी किसी अन्य जाति के सदाचारी और श्रेष्ठ व्यक्ति से बेहतर है?
वस्तुत: जिन जातियों में अब भी पंचायतें हैं, उनमें पंचायतों के निर्णय की कोई भी अवज्ञा सामान्यत: नहीं होती। ऐसा कोई चुनाव नहीं है, जिसमें यह तथ्य सामने आया हो कि अमुक जाति की पंचायत ने अमुक फैसला किया और उसके अधिकतर सदस्यों ने चुनाव में उसे अमान्य कर दिया। इस चुनाव में भी ऐसा कुछ नहीं हुआ है। तब जाति और धर्म से ऊपर उठ कर वोट देने की बात का वस्तुत: क्या अर्थ है? और वह ऊपर उठना है, नीचे गिरना नहीं है? यह कैसे जांचा गया? मैं तो इन शब्दों का अर्थ ही नहीं समझ पाता। ऐसा लगता है कि विश्लेषकों को कुछ मुहावरों का अभ्यास है और वे उन्हें उछाले जाने को अपना कर्तव्य समझते हैं, कोई ऊंची चीज समझते हैं, या फिर उन्हें कोई बौद्धिक खुजली होती रहती है जिसके कारण ये शब्द कहे जाते हैं।
विश्लेषण मेंं ये मुहावरे उछालने वाले लोग इसी समाज में रहते हैं। यह सर्वविदित तथ्य उन्हें भी ज्ञात होता ही है कि ऐसी कोई जाति नहीं है, जिसमें एक से अधिक संगठन या पंचायतें आज के समय न हों। यह भी उन्हें अवश्य ज्ञात होगा कि भारत में नब्बे प्रतिशत से अधिक झगडेÞ प्राय: एक ही परिवार एक कुल के भीतर होते हैं। गांव-गांव के झगड़ों को देख लीजिए- ज्यादातर झगडेÞ आपस में चचेरे या कुछ और दूर के भाइयों-भतीजों आदि में ही परस्पर होते हैं।

आज तो जाति के पास यह शक्ति भी नहीं है कि वह इन झगड़ों को रोक सके। ऐसी कमजोर बना दी गई जाति व्यवस्था का उपयोग 'मास-मोबिलाइजेशन' के अनेक उपायों में से एक के रूप में चुनाव में किया जाता है। जाति कोई स्वतंत्र इकाई नहीं है। जाति का अनिवार्य सामाजिक संदर्भ है।   हिंदू समाज के बिना हिंदुओं की किसी भी जाति के होने का कोई अर्थ ही नहीं है और संभावना भी नहीं। यह सभी जानते हैं। ऐसे में जाति समाज-निरपेक्ष हो ही कैसे सकती है? 
आधुनिक भारत में राज्य ही एकमात्र सर्वमान्य विधिक व्यवस्था है। अत: समाज के प्रत्येक अंग को उसके विषय में निर्णय लेना पड़ता है, विचार करना पड़ता है और उससे संबंध रखना पड़ता है। यह बात प्रत्येक जाति का प्रत्येक सजग व्यक्ति जानता है। ऐसे में राज्य के एक अंग- विधायिका- के लिए प्रतिनिधि का चयन करते समय प्रत्येक जाति के सदस्य समाज के संदर्भ में ही निर्णय लें और इस निर्णय में समाज के एक अंग के रूप में अपनी जाति की स्थिति का विचार भी समाहित है और व्यक्ति की अपनी भावनाओं और मान्यताओं का संदर्भ भी। इसमें ऊपर उठना या नीचे गिरना जैसा तो कुछ होता नहीं। जो लोग ऊपर उठने की बात करते हैं, उन्होंने मान लिया है कि जाति का विचार करना तो नीचे गिरना है और किसी प्रकार तमाम तरह के हथकंडों और धतकरम के द्वारा या नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार के कार्यों के द्वारा धन, प्रभाव और हैसियत बना चुके व्यक्ति के पीछे चलना ऊपर उठना है।
जहां तक धर्म की बात है, कम्युनिज्म के प्रत्यक्ष या परोक्ष मतवादी प्रभाव से नेहरू ने और उनकी संपूर्ण मंडली ने और बाद में शिक्षा और संचार माध्यमों के प्रभाव से आधुनिक राजनीति में सक्रिय प्रत्येक समूह ने मानो यह मान लिया है कि धर्म तो पुराने जमाने की चीज है।
यह मान्यता स्वयं में रोचक है और दर्शाती है कि मनुष्य किस प्रकार अपनी ही मान्यताओं से पूरी तरह अंधा हो जाता है। संपूर्ण विश्व में आज भी सबसे बड़ी शक्ति रिलीजन या मजहब या धर्मपंथ ही है। संपूर्ण यूरोप और अमेरिका में आज भी ईसाइयत का खासा प्रभाव है और जो लोग ईसाइयत के प्रचंड विरोधी हैं, वे ईसाइयत से पहले के यूरोपीय आध्यात्मिक पंथों की खोज में हैं और इसके लिए भारत की ओर देखते हैं।
संपूर्ण मुसलिम जगत इस्लाम के खासे प्रभाव में हैं। संपूर्ण बौद्ध जगत बौद्धधर्म के प्रभाव में है। अठानबे प्रतिशत हिंदू, हिंदू धर्म के प्रभाव में हैं। ऐसे में नेहरू और अन्य समाजवादियों और कतिपय अन्य मतवादों के मुट्ठीभर अनुयायियों के द्वारा ही धर्म को, वह भी केवल हिंदू धर्म को पुराने जमाने की चीज माना जाता है। नेहरू, लोहिया, जेपी किसी ने भी ईसाइयत या इस्लाम को पुराने जमाने की चीज नहीं कहा। 
राजकीय संरक्षण के कारण शिक्षा और संचार माध्यमों में भारत में हिंदुत्व-विरोधी या धर्म-विरोधी समूह भले ही प्रभावी हैं, पर तथ्य तो यही है कि आज भी धर्म ही विश्व की सबसे प्रभावशाली शक्ति है और भारत के अतिरिक्त विश्व के सभी राज्य अपने-अपने नागरिकों के बहुसंख्यकों के धर्म को विशिष्ट राजकीय और वैधानिक संरक्षण देते हैं।
ऐसे में 'धर्म से ऊपर उठ कर' जैसा नारा अविचार का सूचक है। धर्म में रह कर ही वे निर्णय किए जाते हैं, जिन्हें ये विश्लेषक धर्म से ऊपर उठ कर किया गया निर्णय बताते हैं। सोवियत तानाशाही का विरोध सोल्जेनित्सिन और लाखों रूसियों ने रिलीजस भावना के भीतर से ही प्रेरित होकर किया था।
उत्तर प्रदेश में अगर मुसलमानों की बड़ी संख्या ने सपा को वोट दिया है, तो बाकायदा मस्जिदों और मदरसों में हुए जलसों और तकरीरों के बाद लिए गए फैसले से ही ऐसा किया है। सपा को वोट देने में उन्हें इस्लाम की बेहतरी दिखी है, उसे मजबूत बनाने की उम्मीद दिखी है। वोट देते हुए वे इस्लाम से ऊपर नहीं उठे हैं। उसमें पूरी तरह ईमान रखे रहे हैं। इसीलिए वोट दिया है।
ईसाई भी ऐसा करते हुए लॉर्ड जीसस के प्रति पूर्णत: आस्थावान बने रहे हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की भी खासी संख्या ने सपा को वोट दिया है और उनमें से किसी ने भी अपनी जाति के विरुद्ध जाकर या जाति से ऊपर उठ कर या नीचे गिर कर ऐसा नहीं किया है। न ही ऐसा करते हुए हिंदू धर्म को तुच्छ माना है और स्वयं को उससे ऊपर उठा व्यक्ति माना है।
किसी ने अपनी समूह-पहचान खोई नहीं है। यादवों और अन्य पिछड़ों ने भी जाति के भीतर से ही ऐसे निर्णय लिए हैं। इस प्रकार 'जाति और धर्म से ऊपर उठ कर'- एक अर्थहीन मुहावरा है, जो राज्य को ईश्वर की जगह और राजनीति को क्रिश्चियन चर्च की जगह या मिल्लत की जगह या उम्मा की जगह रख कर देखने वाले एक अल्पसंख्यक समूह की मानसिकता से उपजा है। वस्तुत: इस मुहावरे का कोई वास्तविक आधार नहीं है।

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