Saturday, 07 April 2012 11:00 |
रामेश्वर मिश्र पंकज आधुनिक भारत में राज्य ही एकमात्र सर्वमान्य विधिक व्यवस्था है। अत: समाज के प्रत्येक अंग को उसके विषय में निर्णय लेना पड़ता है, विचार करना पड़ता है और उससे संबंध रखना पड़ता है। यह बात प्रत्येक जाति का प्रत्येक सजग व्यक्ति जानता है। ऐसे में राज्य के एक अंग- विधायिका- के लिए प्रतिनिधि का चयन करते समय प्रत्येक जाति के सदस्य समाज के संदर्भ में ही निर्णय लें और इस निर्णय में समाज के एक अंग के रूप में अपनी जाति की स्थिति का विचार भी समाहित है और व्यक्ति की अपनी भावनाओं और मान्यताओं का संदर्भ भी। इसमें ऊपर उठना या नीचे गिरना जैसा तो कुछ होता नहीं। जो लोग ऊपर उठने की बात करते हैं, उन्होंने मान लिया है कि जाति का विचार करना तो नीचे गिरना है और किसी प्रकार तमाम तरह के हथकंडों और धतकरम के द्वारा या नैतिक-अनैतिक सभी प्रकार के कार्यों के द्वारा धन, प्रभाव और हैसियत बना चुके व्यक्ति के पीछे चलना ऊपर उठना है। जहां तक धर्म की बात है, कम्युनिज्म के प्रत्यक्ष या परोक्ष मतवादी प्रभाव से नेहरू ने और उनकी संपूर्ण मंडली ने और बाद में शिक्षा और संचार माध्यमों के प्रभाव से आधुनिक राजनीति में सक्रिय प्रत्येक समूह ने मानो यह मान लिया है कि धर्म तो पुराने जमाने की चीज है। यह मान्यता स्वयं में रोचक है और दर्शाती है कि मनुष्य किस प्रकार अपनी ही मान्यताओं से पूरी तरह अंधा हो जाता है। संपूर्ण विश्व में आज भी सबसे बड़ी शक्ति रिलीजन या मजहब या धर्मपंथ ही है। संपूर्ण यूरोप और अमेरिका में आज भी ईसाइयत का खासा प्रभाव है और जो लोग ईसाइयत के प्रचंड विरोधी हैं, वे ईसाइयत से पहले के यूरोपीय आध्यात्मिक पंथों की खोज में हैं और इसके लिए भारत की ओर देखते हैं। संपूर्ण मुसलिम जगत इस्लाम के खासे प्रभाव में हैं। संपूर्ण बौद्ध जगत बौद्धधर्म के प्रभाव में है। अठानबे प्रतिशत हिंदू, हिंदू धर्म के प्रभाव में हैं। ऐसे में नेहरू और अन्य समाजवादियों और कतिपय अन्य मतवादों के मुट्ठीभर अनुयायियों के द्वारा ही धर्म को, वह भी केवल हिंदू धर्म को पुराने जमाने की चीज माना जाता है। नेहरू, लोहिया, जेपी किसी ने भी ईसाइयत या इस्लाम को पुराने जमाने की चीज नहीं कहा। राजकीय संरक्षण के कारण शिक्षा और संचार माध्यमों में भारत में हिंदुत्व-विरोधी या धर्म-विरोधी समूह भले ही प्रभावी हैं, पर तथ्य तो यही है कि आज भी धर्म ही विश्व की सबसे प्रभावशाली शक्ति है और भारत के अतिरिक्त विश्व के सभी राज्य अपने-अपने नागरिकों के बहुसंख्यकों के धर्म को विशिष्ट राजकीय और वैधानिक संरक्षण देते हैं। ऐसे में 'धर्म से ऊपर उठ कर' जैसा नारा अविचार का सूचक है। धर्म में रह कर ही वे निर्णय किए जाते हैं, जिन्हें ये विश्लेषक धर्म से ऊपर उठ कर किया गया निर्णय बताते हैं। सोवियत तानाशाही का विरोध सोल्जेनित्सिन और लाखों रूसियों ने रिलीजस भावना के भीतर से ही प्रेरित होकर किया था। उत्तर प्रदेश में अगर मुसलमानों की बड़ी संख्या ने सपा को वोट दिया है, तो बाकायदा मस्जिदों और मदरसों में हुए जलसों और तकरीरों के बाद लिए गए फैसले से ही ऐसा किया है। सपा को वोट देने में उन्हें इस्लाम की बेहतरी दिखी है, उसे मजबूत बनाने की उम्मीद दिखी है। वोट देते हुए वे इस्लाम से ऊपर नहीं उठे हैं। उसमें पूरी तरह ईमान रखे रहे हैं। इसीलिए वोट दिया है। ईसाई भी ऐसा करते हुए लॉर्ड जीसस के प्रति पूर्णत: आस्थावान बने रहे हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की भी खासी संख्या ने सपा को वोट दिया है और उनमें से किसी ने भी अपनी जाति के विरुद्ध जाकर या जाति से ऊपर उठ कर या नीचे गिर कर ऐसा नहीं किया है। न ही ऐसा करते हुए हिंदू धर्म को तुच्छ माना है और स्वयं को उससे ऊपर उठा व्यक्ति माना है। किसी ने अपनी समूह-पहचान खोई नहीं है। यादवों और अन्य पिछड़ों ने भी जाति के भीतर से ही ऐसे निर्णय लिए हैं। इस प्रकार 'जाति और धर्म से ऊपर उठ कर'- एक अर्थहीन मुहावरा है, जो राज्य को ईश्वर की जगह और राजनीति को क्रिश्चियन चर्च की जगह या मिल्लत की जगह या उम्मा की जगह रख कर देखने वाले एक अल्पसंख्यक समूह की मानसिकता से उपजा है। वस्तुत: इस मुहावरे का कोई वास्तविक आधार नहीं है। |
Saturday, April 7, 2012
राज्य और समाज का रिश्ता
राज्य और समाज का रिश्ता
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