Sunday, April 8, 2012

इतिहास के विरुद्ध युद्धघोषणा : क्या ममता का ही अपराध है और बाकी जो युद्ध अपराधी हैं, उनका क्या?

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पलाश विश्वास

बंगाल और देश भर में इन दिनों इतिहास से छेड़छाड़ को लेकर बवंडर मचा हुआ है। बंगाल में ममता बनर्जी ने पाठ्यपुस्तकों से लेनिन मार्क्स और सोवियत क्रांति को विदा कर दिया तो एनसीआरटी की ग्यारहवीं कक्षा की राजनीति विज्ञान की पुस्तक में संविधान रचना को लेकर बाबा साहेब डा भीमराव अंबेडकर की खिंचाई शंकर के एक पुराने कार्टून के मार्फत की गई, जिसमें दिखाया गया है कि बाबा साहब शंख पर बैठे हैं और पंडित नेहरु हांका लगा रहे हैं। देश को खुला बाजार में तब्दील करने के बाद सत्तावर्ग के रास्ते में अड़चन बनी दो प्रणुख विचारधाराओं पर यह हमला अकस्मात नहीं है। पर इतिहास के विरुद्ध युद्धघोषणा की लंबी पृष्ठभूमि को समझे बगैर विकृत इतिहास बोध के वर्चस्व को समझा नहीं जा सकता। जिसने आदमी की पहचान ही खत्म कर दी और लगातार सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक विषमता के पोषण का मुख्य हथियार बतौर इस्तेमाल हो रहा है। मसलन बंगाल में तीन फीसद ब्राह्मणों को छोड़कर बारी आबादी अनार्य मूल से हैं और उनमें से अधिकांश शूद्र है। वैश्यों को छोड़कर। बंगाल में आज भी राजपूत और क्षत्रिय जातियां नहीं है। पर इतिहासबोध से वंचित होने के कारण बंगाल में लोग न सिर्फ अपने को सवर्ण और दूसरों को अछूत​  समझते हैं, बल्कि तीन फीसद ब्राह्मणों का वर्चस्व जीवन के हर क्षेत्र में खुशी खुशी मान ले रहे हैं। ममता की कार्रवाइयों का यकीन मानिये, जनमानस पर उतना असर नहीं है, जितना अखबारों में दीखता है। उसी तरह बात बेबात अंबेडकर के अपमान को लेकर बवंडर मचाने वालों को न​  अंबेडकर, न उनकी विचारधारा और न ही उनके रचे संविधान से कुछ लेना देना है। नौकरी और आजीविका के मामले में खुला बाजार और निजीकरण के दौर में आरक्षण गैर प्रासंगिक हो गया है। लोग राजनीतिक आरक्षण बढ़ाने के पीछे पड़े हैं। जबकि आरक्षित वर्ग को अपने लोगों और समाज से कोई सरोकार ही नहीं है। वे सीधे सत्तावर्ग में शामिल हो जाते हैं। सत्ता में हिस्सेदारी से मलाईदार तबके की सेहत सुधरी जरूर है, पर बाकी लोगों​ का क्या?
आप राज्य से बाहर स्थानांतरित हो जाये तो आपको आरक्षण नहीं मिलेगा। भिन्न भिन्न राज्य में आरक्षण के अलग अलग मानदंड। यहां​ ​ तक कि संथालों , मुंडा और भील समुदायों के लोगों को कई राज्यों में आरक्षण नहीं मिला। निन्यानबे फीसद शूद्र और अलग अलग राज्यों में बसाये गये बंगाली शरणार्थियों को असम और ओडीशा के अलावा आरक्षण नहीं मिला। ओबीसी को आरक्षण पर राजनीति होती है, पर उन्हें आरक्षण नहीं मिलता। उनकी न गिनती हुई और न पहचान। झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे जनजाति बहुल राज्यों में अनेक जनजातियां है, जिन्हें ​
​ आरक्षण नहीं मिला। बंजारों की हालत और बुरी है। विस्थापितों की हालत और बुरी। सबसे बुरी है गंदी बस्तियों में रहने वाले बिना चेहरे के ​​ लोगों की। विचारधारा का परचम लहराने वाले लोग उनके लिए क्या करते हैं, इसका सबूत तमाम आदिवासी इलाकों में राजनीतिक दलों की अनुपस्थिति और उनका अलगाव है। आदिवासी क्योंकि किसी को कुछ दे नहीं सकता, इसलिए उसके मरने जीने से ऱाजनीति का कोई​ ​ सरोकार नहीं।​
​​​ ऐसे में पाठ्य पुस्तकों में क्या है या नहीं है, इससे वंचितों को क्या फर्क पड़ता है? इस ज्ञान कारोबार के सिब्बल जमाने में? अस्मिता की राजनीति से विचारधारा की एटीएम मशीन हासिल करने वालों का मकसद सिर्फ हंगामा कड़ा करना है। न कोई सर्वहारा का ​अधिनायकत्व चाहता है और न किसी को जाति के उन्मूलन में कोई दिलचस्पी है। सर्वहारा के साथ वाम जमाने में क्या हुआ, यह हमने ​ देखा है। सिर्फ ब्राह्मणों को महासचिव से लेकर लोकल कमिची तक बनाने वाले लोग इतिहास के साथ क्या सलूक करते हैं,इसका अभी आकलन नहीं हुआ। उसी तरह अंबेडकर विचारधारा के नाम पर अस्मिता, स्वाभिमान और सत्ता में बागेदारी की राजनीति ने जाति को पहले से ज्यादा मजबूत ही किया है। गढ़े हुए, खत्म किये हुए इतिहास के पुनर्निर्माण के बिना यह असंभव है।​
​​​हम शरणार्थी लोग तो इतिहास और भूगोल से खदेड़े हुए लोग हैं। हमारी कोई अस्मिता नहीं है। पहचान नहीं है और न मातृभाषा है और न​ नागरिकता। हमारे विघटन का वर्तमान ही भारत का इतिहास है, जिसे बार बार दोहराया गया। पर इस पर न पुरातत्व के अफसरान और न इतिहास के धुरंधरों की दृष्टि जाती है। सारे के सारे वर्ग हित से जुड़े है और इतिहास बोध जाति वर्चस्व के नीचे दबा हुआ है। अभी पिछले साल हम कच्छ​ की हड़प्पा नगरी धौलावीरा हो आये हैं। गौड़ भी घूमा हुआ है। कहीं भी पुरातत्व विभाग का काम पूरा नहीं हुआ। सिंधु घाटी की सभ्यता अभी परदे के पीछे है। एक अफसर एक नगर खोजता है और तालियां बटोरता है तो उस काम को आगे बढ़ाने के बजाये अगला अफसर अन्यत्र खुदाई में जुट जाता है, जहां से उसकी विदाई होते ही, फिर अगला अफसर अन्य नगर की खोज में जुट जाता है।
बंगाल में इतिहास विकृति का सबसे व्यापक असर हुआ है। भारत में बौद्ध धर्म का प्रचलन सबसे ज्यादा वक्त तक बंगाल में रहा। पाल वंश​ ​ का शासनकाल भारत के गौरवशाली इतिहास का अंग है। बंगाल से पंजाब तक विस्तृत था पाल साम्राज्य। पाल राजाओं के साथ महाराष्ट्र के जादव शासकों का भी अच्छा संबंध रहा। ग्यारहवीं सदी तब आर्यावर्त से बाहर विंध्य और अरावली पहाड़ों के पार समूचे भारत में अनार्यों का राज ही था। तेरहवीं सदी तक भारत का भूगोल अनार्य था। राजस्थान में  राजपूतों और असम में अहमिया शासकों का कब्जा ग्यारवीं सदी में हुआ। ग्यरहवीं सदी में ही बंगाल पर सेन वंश का शासन कायम हुआ। तब तक ब्राह्ममों के लिए बंगभूमि व्रात्य और अंत्यज थी। सेन वंश के राजा बल्लाल सेन ने​​ कन्नौज से ब्राह्ममों को बुलाकर बंगाल में ब्राह्मण धर्म का प्रचलन करके सख्ती से मनुस्मृति लागू की और बड़े पैमाने पर बौद्धमत के​ ​ अनुयायियों को हिंदू बनाकर उन्हें अछूत घोषित कर दिया। बौद्धों का यह उत्पीड़न सेन वंश के अवसान के बाद इस्लामी शासनकाल में​ ​ भी जारी रहा। क्योंकि तब तक बंगाल के समाज पर ब्राह्मणों का कब्जा हो गया था। बंगाल में मुसलमानों को नेड़े कहते हैं। यानी जिनका ​​सिर मुंडा हो। मुसलमानों के सर मुड़े हुए नहीं होते। सर तो बौद्ध भिक्षुओं के ही मुड़े हुए होते हैं। इसका साफ मतलब है कि हिंदुत्व से नहीं, बल्कि हिंदुत्व के उत्पीड़न के मारे बौद्ध मत के अनुयायियों ने बड़े पैमाने पर इस्लाम अपनाया। बंगाल और बाकी देश में आठवीं सदी से लेकर ग्यारहवीं सदी के कालखंड को अंधयुग बताते हैं। जबकि तब देश भर में अनार्य शासकों का राज था और उसी दौरान भारतीय भाषाओं और संस्कृति का ​​विकास हुआ। जिसमें अछूत जाति के कवियों और बौद्ध बिहारों का भारी योगदान था। जिस काल में भाषा और साहित्य का विकास हुआ हो,​ ​ उसे अंधा युग कैसे कहा जा सकता है?
सत्रहवीं सदी तक महाराष्ट्र से लेकर पूर्वी बंगाल तक जिन अनार्यों का राज रहा, जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्यवाद से मरते दम तक लोहा लिया, ​ उनका कोई इतिहास नहीं है। लालगढ़ के लोधाशूली में २१ लोधा लोगों को अंग्रेजों ने सूली पर चढ़ाया था और कोयलांचल में अनेक आदिवासियों को फांसी पर चढा़या गया था, यह इतिहास कहां है? चुआड़ विद्रोह का इतिहास कहां है? सन्यासी विद्रोह और नील विद्रोह, मतुआ आंदोलन और छंडाल आंदोलन  का इतिहास कहां है? बंगाल की आखिरी शासक रानी रासमणि ने अंग्रेजों से लोहा लिया था। मछुआरे की इस बेटी ने दक्षिणेश्वर के काली मंदिर की स्थापना की ​​और रामकृष्ण परमहंस को वहां स्थापित किया। इन रामकृष्ण को आज अवतार बताया जाता है, पर उनके तिरोधान पर आड़ियादह ​​श्मशान घाट पर उनकी अंत्येष्टि नहीं करने दी सवर्णों ने। क्योंकि वह अछूत की पुरोहित थे। स्वामी विवेकानंद उन्हीं के शिष्य थे। पर रामकृष्ण मिशन में रानी रासमणि की एक तस्वीर तक नहीं मिलेगी? रवींद्र संगीत बजाया जा रहा है बंगाल के हर चौराहे पर। रवींद्र की डेढ़ सौवीं जयंती की धूम है। पर जिस लालन फकीर के कारण रवींद्र की​ ​रचना दृष्टि बनी, उन पर कोई चर्चा नहीं होती। चर्चा नहीं होती रवींद्र के दलित विमर्श की। एक बार हिंदी के विख्यात कवि केदारनाथ सिंह ने मुझसे तगादा देकर एक पांडुलिपि तैयार करवायी, जो उन्होंने हरिश्चंद्र पाण्डेय को  दे दी। पिछले करीब पांच साल से उस पांडुलिपि का अता पता​ ​ नहीं है। हिंदी में बांग्ला से बेहतर क्या हाल है?
विवेकानंद को सनातन धर्म के आइकन के रुप में प्रचारित किया जाता है, पर उन्होंने अंबेडकर से काफी पहले कह दिया था कि आगे शूद्रों का युग आयेगा। वे कायस्थ थे और मनुस्मृति के मुताबिक कायस्थ शूद्र होते हैं। इसी तरह ऩेताजी भी शूद्र थे और इसका खामियाजा कांग्रेस की राजनीति में उन्होंने और बाकी देश को भुगतना पड़ा। क्या – क्या बतायें?
ईशा ने कहा था कि पहला पत्थर वही मारे जो अपराधी नहीं है, अब ममता को कठघरे में खड़ा करने वाले लोग भी अपने गिरेबां में झांके तो बेहतर!

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