Monday, 09 April 2012 10:42 |
सुनील लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सोने की मांग में उछाल का सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत में धनाढ्य और नवधनाढ्य वर्ग की अमीरी काफी बढ़ी है, जिसने बड़े पैमाने पर अपनी वैध-अवैध कमाई को सोने के रूप में रखना शुरू किया है। नई व्यवस्था में सट्टात्मक प्रवृत्तियों को जो बढ़ावा मिला है, उसने भी सोने और जमीन की मांग और उनके भावों को बेहद बढ़ाया है। यानी देश के अमीर लोग अब अपनी कमाई के एक हिस्से से सोना और जमीन-मकान इसलिए नहीं खरीद रहे हैं कि उन्हें उसकी जरूरत है। बल्कि इसलिए कि इनकी कीमतें तेजी से बढ़ती हैं और वे घर बैठे बिना कुछ किए चंद सालों में अपनी संपत्ति को दुगना-तिगुना कर सकते हैं। वायदा बाजार ने भी सोने की कीमतों और सट्टात्मक मांग को आसमान पर पहुंचाया है। देश में भ्रष्टाचार और दो नंबरी समांतर अर्थव्यस्था का जो बोलबाला बढ़ा है, उसका भी संबंध सोने की मांग से है। सोने के साथ सबसे बड़ी सुविधा यह है कि इसे छिपाना, गुपचुप ले जाना या लेन-देन आसान है। करोड़ों रुपयों के नोट कहीं रखना आसान नहीं है, मगर करोड़ों रुपए का सोना आसानी से बैंक के एक लॉकर में रखा जा सकता है। दो साल पहले सरकारी अल्युमीनियम कंपनी 'नाल्को' का मुख्य कार्यपालन अधिकारी पकड़ा गया था तो उसके लॉकरों से पंद्रह किलो सोना बरामद हुआ था। पता चला कि वह अपने दलाल की मार्फत घूस में सोने का बिस्कुट या सोने की र्इंट ही लेता था। न सूटकेस की झंझट न नोट गिनने की जहमत! इसलिए जब बाबा रामदेव कहते हैं कि सोने का काले धन से कोई रिश्ता नहीं है, तो वे या तो अपनी समझ की कमी दर्शा रहे हैं या फिर सर्राफा व्यापारियों का समर्थन जुटाने की सस्ती कोशिश कर रहे हैं। देशहित में सोने की मांग और हवस को हतोत्साहित और नियंत्रित करने की जरूरत है। सर्राफा व्यापारियों की मांगें उचित नहीं हैं। आखिर जब देश में ज्यादातर वस्तुओं के उत्पादन पर बारह फीसद उत्पाद कर लग रहा है, तो उनकी इस मांग का क्या औचित्य है कि सोने के गहनों पर एक फीसद उत्पाद कर भी नहीं लगे? बल्कि उत्पाद कर तो बढ़ना चाहिए, क्योंकि स्वर्ण आभूषण एक विलासिता की वस्तु है, प्राथमिकता वाली बुनियादी जरूरत की वस्तु नहीं। आयात शुल्क में वृद्धि भी नाकाफी है। यह और बढ़नी चाहिए। सोने के आयात पर पाबंदी लगाने पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए। देश आजाद होने के बाद सोने की भूख को नुकसानदेह मान कर इसके आयात पर पाबंदी लगाई गई थी, सोने के व्यापार पर भी काफी नियंत्रण लगाया गया था। लेकिन 1993 में सोने के आयात पर पाबंदी हटा ली गई और फिर आयात शुल्क भी काफी कम कर दिया गया। जो लोग विदेश यात्रा पर जाते हैं, उन्हें भी लौटते वक्त मामूली शुल्क देकर अपने साथ सोना लाने की छूट दे दी गई। सोने के आयात के पीछे तर्क यह था कि इससे स्वर्ण आभूषण उद्योग और निर्यात को बढ़ावा मिलेगा। मगर हकीकत में निर्यात कम रहा, आयात कई गुना ज्यादा। बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को सोना रख कर कर्ज देने की इजाजत दी गई। सोने का वायदा कारोबार भी शुरू किया गया। सोने के ब्रांडेड गहनों पर नाममात्र का एक फीसद उत्पाद शुल्क भी पिछले साल के बजट में ही शुरू किया गया, नहीं तो यह पूरी तरह शुल्क मुक्त था। मामूली से आयात शुल्क में भी तैयार आभूषणों के निर्यात के नाम पर बड़ी-बड़ी छूट दी गई। उदाहरण के लिए, इस वर्ष के बजट दस्तावेजों से पता चलता है कि सोने और हीरे-जवाहरात के आयात-शुल्क में माफी से 2010-11 में 41,200 करोड़ रुपए और 2011-12 में 58,190 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान केंद्र सरकार को हुआ है। कुल मिला कर, उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के कारण देश में जो कई विकृतियां और समस्याएं पैदा हुई हैं, उनमें यह भी एक है। काफी पहले एक कवि ने चेताया था कि सोने में धतूरे से भी सौ गुना ज्यादा नशा है- 'कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। या खाए बौराए जग, वा पाए बौराय।' सोने का यह खतरनाक नशा इंसान, समाज, सरकार और देश सबको ले डूब रहा है। इस पर अविलंब रोक लगाने की जरूरत है। |
Monday, April 9, 2012
सोने की माया में फंसा भारत
सोने की माया में फंसा भारत
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