Monday, April 9, 2012

सोने की माया में फंसा भारत

सोने की माया में फंसा भारत


Monday, 09 April 2012 10:42

सुनील 
जनसत्ता 9 अप्रैल, 2012: सोना फिर सुर्खियों में है। पिछले कुछ सालों में लगातार बढ़ती कीमतों के कारण वह चर्चा में था। अब नए बजट में उस पर लगाए गए करों के कारण वह चर्चा में है। जब से बजट पेश हुआ, देश भर के सर्राफा कारोबारी लगातार हड़ताल पर रहे। वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी से आश्वासन मिलने पर इक्कीस दिन बाद उन्होंने अपनी हड़ताल वापस ले ली। कई मुख्यमंत्रियों ने उनकी मांगों का समर्थन किया है। यहां तक कि केंद्रीय कोयलामंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल भी कानपुर में उनके समर्थन में आ गए और बोल गए कि जैसे रात में मच्छर खून चूसते हैं, वैसे कई सरकारी विभाग व्यापारियों का खून चूस रहे हैं। सबसे ताजा बयान बाबा रामदेव का आया है कि सोने पर टैक्स लगाना उचित नहीं है और इससे काला धन बाहर नहीं आएगा।
प्रणब मुखर्जी ने बजट में सोने से संबंधित तीन प्रावधान किए हैं। एक, सोने के आयात पर शुल्क दो फीसद से बढ़ा कर चार फीसद किया है। दो, सोने के ब्रांडेड आभूषणों पर एक प्रतिशत केंद्रीय उत्पाद शुल्क था, उसे गैर-ब्रांडेड आभूषणों पर भी लागू किया है। हालांकि अब डेढ़ करोड़ के बजाय चार करोड़ रुपए वार्षिक तक आभूषण बनाने वाले छोटे उत्पादकों को इससे छूट दे दी है। चांदी के आभूषणों को पूरी तरह उत्पाद शुल्क से मुक्त रखा गया है। तीन, दो लाख रुपए से अधिक के आभूषण खरीदने पर पैन नंबर अनिवार्य होगा और स्रोत कर-कटौती (टीडीएस) होगी। सर्राफा व्यापारी इन तीनों प्रस्तावों का विरोध कर रहे हैं। बाद के दोनों प्रस्तावों पर वित्तमंत्री ने पुनर्विचार के संकेत दिए हैं, लेकिन आयात शुल्क में वृद्धि वापस लेने से इनकार किया है।
दरअसल, उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में भारत में सोने की खरीद और सोने के आयात, दोनों में बेतहाशा वृद्धि हुई है और अब वह सरकार के गले की हड्डी बन गई है। कैलेंडर वर्ष 2011 में भारत में नौ सौ उनहत्तर टन सोने का रिकॉर्ड आयात हुआ और वह हथियारों की ही तरह दुनिया का सबसे बड़ा सोना आयातक देश बन चुका है। दुनिया की कुल सोने की खपत में तीस फीसदी से ज्यादा अकेले भारत में होती है। चूंकि भारत के अंदर मुश्किल से दो टन सोने का सालाना उत्पादन होता है, इसलिए यहां सोने की यह विशाल भूख भारत के आयात बिल को बुरी तरह बढ़ा रही है। पेट्रोलियम पदार्थों के बाद सोना-चांदी भारत के आयात बिल की सबसे बड़ी मद बन गया है। कुल आयात बिल का करीब दस फीसद सोने-चांदी के आयात में जाने लगा है।
अनुमान है कि बीते वित्तवर्ष में देश में अट्ठावन अरब डॉलर का सोना आयात हुआ होगा। इसके पिछले वर्ष में यह तैंतीस अरब डालर था। यानी केवल एक साल में इसमें पचहत्तर फीसद से ज्यादा बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2001-02 में सोना आयात 4.17 अरब डॉलर था। यानी ग्यारह सालों में उसमें करीब चौदह गुनी बढ़ोतरी हुई है। गौरतलब है कि इस बीच में दुनिया में सोने की कीमतें भी काफी बढ़ी हैं, जिसकी एक वजह शायद खुद भारत की बढ़ती मांग रही है। लेकिन बढ़ती कीमतें भी भारत की सोने की भूख को कम करने में नाकाम रही हैं।
भारतवासियों की सोने की इस अनियंत्रित भूख ने देश के विदेश व्यापार घाटे और भुगतान संतुलन के संकट को भी गंभीर बनाया है। यहां विदेश व्यापार का घाटा वर्ष 2010-11 में 130.5 अरब डॉलर की विशाल राशि पर पहुंच गया था। घाटे की यह बड़ी खाई कुछ हद तक विदेशी मुद्रा की अन्य चालू प्राप्तियों (जैसे विदेशों में बसे भारतीयों द्वारा भेजे गए धन) से भरती है। फिर भी घाटा रह जाता है, जिसे भुगतान संतुलन का चालू खाते का घाटा कहा जाता है। यह भी तेजी से बढ़ रहा है, जिसे पूरा करने के लिए सरकार को विदेशी कर्जों और विदेशी पूंजी को हर कीमत पर बुलाने पर जोर देना पड़ता है। भुगतान संतुलन का चालू खाते का घाटा वर्ष 2010-11 में 44.4 अरब डॉलर था, जो 2011-12 में बढ़ कर 63.2 अरब डॉलर रहने का अनुमान है। यह भारत की कुल राष्ट्रीय आय के 3.6 फीसद के बराबर पहुंच गया है, जो खतरे की घंटी है।
गौरतलब है कि पिछली बार, 1991 में, जब भुगतान संतुलन का बड़ा संकट पैदा हुआ था, जिसने अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष से बड़ा कर्ज लेने और वैश्वीकरण-उदारीकरण की नीतियों को अपनाने के लिए भारत सरकार को मजबूर किया था, तब चालू खाते का घाटा राष्ट्रीय आय का तीन फीसद था। यह भी साफ है कि इस विशाल घाटे में सोना आयात का बड़ा योगदान है। अगर सोना आयात को बंद कर दिया जाए तो विदेश व्यापार घाटा और भुगतान संतुलन के चालू खाते का घाटा, दोनों काफी कम रह जाएंगे।
देश और इसकी अर्थव्यवस्था के लिए सोने का यह अनाप-शनाप आयात एक ज्यादा बुनियादी रूप से भी नुकसानदेह है। इसका मतलब है कि भारतवासियों की मेहनत से पैदा धन का एक हिस्सा देश के बाहर जा रहा है। बदले में जो मिल रहा है वह बेकाम के धातु के टुकड़े हैं। सोने में निवेश एक तरह का मृत निवेश है। अगर यही धन देश के अंदर उत्पादक कामों में लगता तो ज्यादा रोजगार पैदा होता, धन बढ़ता और आर्थिक प्रगति होती। अर्थशास्त्र की भाषा में कहें तो उसका गुणक प्रभाव होता। अमेरिका जैसे देशों की तुलना में भारत के बारे में एक अच्छी बात यह है कि यहां बचत की दर काफी ऊंची है, तीस फीसद के करीब। लेकिन इस बचत का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सोना-खरीद के रूप में देश से बाहर चला जा रहा है।
सवाल इस गरीब देश के सीमित संसाधनों के उपयोग का भी है। यह विडंबना ही है कि   दुनिया के सबसे गरीब देशों में एक, जो सबसे ज्यादा कुपोषित और सबसे ज्यादा अशिक्षित लोगों का देश है, वह दुनिया में सबसे ज्यादा सोने की खपत करे; उसकी प्राथमिकता लोगों के लिए भोजन, आवास, पेयजल, शिक्षा और स्वास्थ्य न होकर सोने की खरीद में प्रकट हो। यह एक घोर विकृति है। पूंजीवाद की विचित्र माया है। यह भी सोचने की बात है कि जो देश धर्म और अध्यात्म का गढ़ माना जाता है, जहां साधुओं, संतों और बाबाओं की कमी नहीं है, उसी में सोने के प्रति इतनी ललक है कि वह दुनिया का सबसे बड़ा स्वर्ण-प्रेमी देश बन जाता है।

भारत में सोने की बढ़ती मांग के पीछे कई कारण हैं। एक तो बढ़ती महंगाई है। महंगाई की ज्यादा दरों के कारण रुपए का मूल्य तेजी से गिरता है और बैंक में या अन्यत्र धन जमा करना अनाकर्षक हो जाता है। इसलिए लोग अपनी बचत सोने के रूप में रखने लगते हैं, जिसकी कीमत तेजी से बढ़ने से अच्छा फायदा होता है। सोने के गहनों के प्रति महिलाओं की पारंपरिक ललक का एक कारण उनकी असुरक्षा है। महिलाओं के पास जो गहने हैं, कई बार वही एकमात्र संपत्ति होती है, जिस पर उनका अधिकार होता है।
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सोने की मांग में उछाल का सबसे बड़ा कारण यह है कि भारत में धनाढ्य और नवधनाढ्य वर्ग की अमीरी काफी बढ़ी है, जिसने बड़े पैमाने पर अपनी वैध-अवैध कमाई को सोने के रूप में रखना शुरू किया है। नई व्यवस्था में सट्टात्मक प्रवृत्तियों को जो बढ़ावा मिला है, उसने भी सोने और जमीन की मांग और उनके भावों को बेहद बढ़ाया है। यानी देश के अमीर लोग अब अपनी कमाई के एक हिस्से से सोना और जमीन-मकान इसलिए नहीं खरीद रहे हैं कि उन्हें उसकी जरूरत है। बल्कि इसलिए कि इनकी कीमतें तेजी से बढ़ती हैं और वे घर बैठे बिना कुछ किए चंद सालों में अपनी संपत्ति को दुगना-तिगुना कर सकते हैं। वायदा बाजार ने भी सोने की कीमतों और सट्टात्मक मांग को आसमान पर पहुंचाया है।
देश में भ्रष्टाचार और दो नंबरी समांतर अर्थव्यस्था का जो बोलबाला बढ़ा है, उसका भी संबंध सोने की मांग से है। सोने के साथ सबसे बड़ी सुविधा यह है कि इसे छिपाना, गुपचुप ले जाना या लेन-देन आसान है। करोड़ों रुपयों के नोट कहीं रखना आसान नहीं है, मगर करोड़ों रुपए का सोना आसानी से बैंक के एक लॉकर में रखा जा सकता है। दो साल पहले सरकारी अल्युमीनियम कंपनी 'नाल्को' का मुख्य कार्यपालन अधिकारी पकड़ा गया था तो उसके लॉकरों से पंद्रह किलो सोना बरामद हुआ था।
पता चला कि वह अपने दलाल की मार्फत घूस में सोने का बिस्कुट या सोने की र्इंट ही लेता था। न सूटकेस की झंझट न नोट गिनने की जहमत! इसलिए जब बाबा रामदेव कहते हैं कि सोने का काले धन से कोई रिश्ता नहीं है, तो वे या तो अपनी समझ की कमी दर्शा रहे हैं या फिर सर्राफा व्यापारियों का समर्थन जुटाने की सस्ती कोशिश कर रहे हैं। 
देशहित में सोने की मांग और हवस को हतोत्साहित और नियंत्रित करने की जरूरत है। सर्राफा व्यापारियों की मांगें उचित नहीं हैं। आखिर जब देश में ज्यादातर वस्तुओं के उत्पादन पर बारह फीसद उत्पाद कर लग रहा है, तो उनकी इस मांग का क्या औचित्य है कि सोने के गहनों पर एक फीसद उत्पाद कर भी नहीं लगे? बल्कि उत्पाद कर तो बढ़ना चाहिए, क्योंकि स्वर्ण आभूषण एक विलासिता की वस्तु है, प्राथमिकता वाली बुनियादी जरूरत की वस्तु नहीं। आयात शुल्क में वृद्धि भी नाकाफी है। यह और बढ़नी चाहिए। सोने के आयात पर पाबंदी लगाने पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए।
देश आजाद होने के बाद सोने की भूख को नुकसानदेह मान कर इसके आयात पर पाबंदी लगाई गई थी, सोने के व्यापार पर भी काफी नियंत्रण लगाया गया था। लेकिन 1993 में सोने के आयात पर पाबंदी हटा ली गई और फिर आयात शुल्क भी काफी कम कर दिया गया। जो लोग विदेश यात्रा पर जाते हैं, उन्हें भी लौटते वक्त मामूली शुल्क देकर अपने साथ सोना लाने की छूट दे दी गई।
सोने के आयात के पीछे तर्क यह था कि इससे स्वर्ण आभूषण उद्योग और निर्यात को बढ़ावा मिलेगा। मगर हकीकत में निर्यात कम रहा, आयात कई गुना ज्यादा। बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को सोना रख कर कर्ज देने की इजाजत दी गई। सोने का वायदा कारोबार भी शुरू किया गया। सोने के ब्रांडेड गहनों पर नाममात्र का एक फीसद उत्पाद शुल्क भी पिछले साल के बजट में ही शुरू किया गया, नहीं तो यह पूरी तरह शुल्क मुक्त था। मामूली से आयात शुल्क में भी तैयार आभूषणों के निर्यात के नाम पर बड़ी-बड़ी छूट दी गई। उदाहरण के लिए, इस वर्ष के बजट दस्तावेजों से पता चलता है कि सोने और हीरे-जवाहरात के आयात-शुल्क में माफी से 2010-11 में 41,200 करोड़ रुपए और 2011-12 में 58,190 करोड़ रुपए के राजस्व का नुकसान केंद्र सरकार को हुआ है।
कुल मिला कर, उदारीकरण-वैश्वीकरण की नीतियों के कारण देश में जो कई विकृतियां और समस्याएं पैदा हुई हैं, उनमें यह भी एक है। काफी पहले एक कवि ने चेताया था कि सोने में धतूरे से भी सौ गुना ज्यादा नशा है- 'कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय। या खाए बौराए जग, वा पाए बौराय।' सोने का यह खतरनाक नशा इंसान, समाज, सरकार और देश सबको ले डूब रहा है। इस पर अविलंब रोक लगाने की जरूरत है।

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