Sunday, April 15, 2012

केवल नेक इरादे काफी नहीं

केवल नेक इरादे काफी नहीं


Sunday, 15 April 2012 15:14

तवलीन सिंह 
जनसत्ता 15 अप्रैल, 2012: इत्तिफाक की बात है कि ऐन उसी वक्त जब सुप्रीम कोर्ट तय कर रहा था, पिछले सप्ताह, कि निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए पचीस फीसद कोटा होना चाहिए, मैं एक गरीब बच्चे के दाखिले के लिए दिल्ली के एक स्कूल में घूम रही थी। किसी आलीशान प्राइवेट स्कूल में नहीं, एक केंद्रीय विद्यालय में। हुआ यह कि मेरी पहचान का एक गरीब, अनपढ़ व्यक्ति जब अपने बच्चे को उस केंद्रीय विद्यालय में दाखिल कराने गया तो उससे स्कूल के किसी अधिकारी ने कहा कि दाखिला पक्का तब होगा जब वह पचीस हजार रुपए 'डोनेशन' स्कूल को देगा। इसके बाद सौदेबाजी शुरू हुई और आखिरी फैसला तेरह हजार रुपए के डोनेशन पर हुआ। जब मुझे यह बात बताई गई, मुझे स्कूल के उस अधिकारी की नीयत पर संदेह होने लगा। तो मैंने खुद जाकर बात करने का तय किया।
एक बड़े से स्कूल में सुबह उस वक्त पहुंची जब बहुत सारे बच्चे अपनी कक्षाओं से बाहर निकल कर खूब हल्ला मचा रहे थे। प्रिंसिपल साहब के दफ्तर के बाहर कुछ माता-पिता हाथों में कागजात और चेहरों पर चिंता लिए हुए खड़े थे। किसी तरह जब इस झुंड को चीर कर अंदर पहुंची प्रिंसिपल के दफ्तर में तो वह अधिकारी मिला, जिसने डोनेशन की बात की थी। लेकिन जब मैंने अपना परिचय दिया और पूछा कि इस डोनेशन की क्या मुझे कोई रसीद मिलेगी, तो घबरा कर वह कहने लगा कि सरकारी स्कूलों में डोनेशन नहीं होती। जल्दी ही मैं जान गई कि जिस दाखिले के लिए मैं आई थी वह नहीं होने वाला है। गोलमोल-सी बातें सुना कर मुझे विदा कर दिया गया। 
यहां विस्तार से मैंने यह कहानी इस उम्मीद से बताई है कि आप सुनकर समझ जाएंगे कि सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। गरीब बच्चों को न लेने के लिए निजी और सरकारी स्कूलों के पास कई तरकीबें हैं। डोनेशन देने के काबिल जो माता-पिता होंगे उनके बच्चों के लिए दाखिला आसान होगा और गरीबों के लिए कठिन। और हम सब जानते हैं कि गरीब माता-पिता के पास लंबी कानूनी लड़ाइयां लड़ने की क्षमता नहीं है।
शिक्षा अधिकार अधिनियम एक बेकार कानून है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लैंट प्रिटशेट ने इन शब्दों में इस कानून की इंडियन एक्सप्रेस में आलोचना की- 'यह एक महा-बेमतलब' कानून है। इसकी अगर कोई उपलब्धि होगी तो सिर्फ यह कि निजी स्कूलों के कामकाज में सरकारी बाबू लोग अब डट कर दखलंदाजी कर सकेंगे गरीब बच्चों के नाम पर। ये अधिकारी वास्तव में इन बच्चों का भला चाहते तो दखलंदाजी करते सरकारी स्कूलों में, लेकिन वहां से पैसा कहां बनता है।

सच तो यह है कि अगर इस देश में सारे प्राइवेट स्कूल ईमानदारी से पचीस फीसद कोटा रखते भी हैं गरीब बच्चों के लिए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है। इसलिए कि अगर हम भारतीय शिक्षा प्रणाली में असली सुधार देखना चाहते हैं तो क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है। जरूरत आरटीई या किसी भी दूसरे नए कानून की नहीं है। जरूरत है अध्यापकों की, जो रोज पढ़ाने आएं और जो बच्चों का भला दिल से करना चाहें। जरूरत है कक्षाओं की, जिनकी छतें-दीवारें न गिरती हों। जरूरत है पीने के लिए साफ पानी की, स्वच्छ शौचालयों की, पुस्तकालयों की, खेल मैदानों की, दोपहर के भोजन के सही प्रबंधन की। जब तक ये सारी चीजें नहीं होंगी तब तक कोई उम्मीद नहीं है उस परिवर्तन की, जिसके बिना इस देश की शिक्षा प्रणाली सुधर नहीं सकती है।
फिलहाल स्थिति यह है कि जिन गरीब बच्चों की सरकारी स्कूलों में पढ़ना मजबूरी है, वे पढ़ाई खत्म होने के बाद जब स्कूल से निकलते हैं तो अक्सर न तो गणित की उनको समझ होती है न ही वे कहानियों की कोई किताब पढ़ने के काबिल होते हैं। क्या फायदा इस रद्दी शिक्षा का अधिकार किसी को देने का?
सर्वोच्च न्यायालय को अगर वास्तव में परिवर्तन लाने की इच्छा है, तो कहीं बेहतर होता अगर वह सरकार से पूछता कि निजी स्कूलों में कोटा आरक्षित करके वह क्या हासिल करना चाहती है, जब उनके अपने स्कूल इतने बेकार हैं? अच्छा होता अगर यह भी पूछने की तकलीफ करते इस देश के सर्वोच्च न्यायाधीश कि नए कानून बनाने की क्या जरूरत थी जब पुराने कानून ही नहीं लागू होते हैं। शिक्षा का कानूनी अधिकार देने से गरीब बच्चों का भला हो न हो, सरकारी अफसरों का जरूर भला होगा, जो अब लालफीताशाही का वह महाजाल खूब फैला सकेंगे, जिसमें चौसठ वर्षों से सरकारों के कई नेक इरादे जकड़ कर रह गए हैं।
नेक इरादों से अगर भारत के गरीब बच्चे पढ़-लिखने के काबिल बन सकते, तो कब के शिक्षित हो चुके होते। सरकारी योजनाओं में नेक इरादों की कोई कमी न कभी थी न कभी होगी। काश कि नेक इरादों से ही काम चल जाता इस देश के गरीब बच्चों का। काश कि वे समझ सकते कि उनके राजनेताओं और न्यायाधीशों के इरादे कितने नेक हैं।

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