Sunday, 15 April 2012 15:14 |
तवलीन सिंह फिलहाल स्थिति यह है कि जिन गरीब बच्चों की सरकारी स्कूलों में पढ़ना मजबूरी है, वे पढ़ाई खत्म होने के बाद जब स्कूल से निकलते हैं तो अक्सर न तो गणित की उनको समझ होती है न ही वे कहानियों की कोई किताब पढ़ने के काबिल होते हैं। क्या फायदा इस रद्दी शिक्षा का अधिकार किसी को देने का? सर्वोच्च न्यायालय को अगर वास्तव में परिवर्तन लाने की इच्छा है, तो कहीं बेहतर होता अगर वह सरकार से पूछता कि निजी स्कूलों में कोटा आरक्षित करके वह क्या हासिल करना चाहती है, जब उनके अपने स्कूल इतने बेकार हैं? अच्छा होता अगर यह भी पूछने की तकलीफ करते इस देश के सर्वोच्च न्यायाधीश कि नए कानून बनाने की क्या जरूरत थी जब पुराने कानून ही नहीं लागू होते हैं। शिक्षा का कानूनी अधिकार देने से गरीब बच्चों का भला हो न हो, सरकारी अफसरों का जरूर भला होगा, जो अब लालफीताशाही का वह महाजाल खूब फैला सकेंगे, जिसमें चौसठ वर्षों से सरकारों के कई नेक इरादे जकड़ कर रह गए हैं। नेक इरादों से अगर भारत के गरीब बच्चे पढ़-लिखने के काबिल बन सकते, तो कब के शिक्षित हो चुके होते। सरकारी योजनाओं में नेक इरादों की कोई कमी न कभी थी न कभी होगी। काश कि नेक इरादों से ही काम चल जाता इस देश के गरीब बच्चों का। काश कि वे समझ सकते कि उनके राजनेताओं और न्यायाधीशों के इरादे कितने नेक हैं। |
Sunday, April 15, 2012
केवल नेक इरादे काफी नहीं
केवल नेक इरादे काफी नहीं
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment