Friday, 13 April 2012 11:09 |
विनोद शाही दरअसल, सत्ता-व्यवस्था की हिंसाएं और दमन, सत्ता के खास रूपों की उपज नहीं होते, बल्कि वे समूची समाजार्थिक व्यवस्था का सार होते हैं। प्रगति और विकास के समाजार्थिक रूप ही सत्ता के समीकरण बनाते और उस सत्ता के हिंसा और दमन के रूपों का सृजन करते हैं। प्रतिहिंसाएं उन्हीं हिंसाओं और दमन-रूपों की गूंजों या अनुगूंजों की तरह प्रकट होती हैं। इसलिए प्रतिहिंसाओं से लाए गए सत्ता-रूपों के विकल्प भी, पूर्व सत्ता-रूपों जितने ही हिंसक और दमनकारी हो जाते हैं। रूस और चीन में आए सत्ता-रूपों के बदलाव, इसीलिए अंतत: पूंजीवादी समाजार्थिक संरचनाओं को खुल कर स्वीकार करने की ओर मुड़ गए हैं- क्योंकि वही तो यथार्थ है- नेपाल का माओवादी। सत्ता-विकल्प भी, गहरे में पूंजीवादी समाजार्थिक संरचनाओं का कोई विकल्प पेश नहीं करता है। क्यूबा या वेनेजुएला का समाजवादी विकल्प भी गहरे में, पूंजीवादी प्रतिस्पर्धा के भीतर से ही कुछ थोड़े ज्यादा न्यायपूर्ण और समानतामूलक मुनाफे के वितरण से आगे नहीं जा पा रहा है। भारत के पूर्वांचल का माओवादी प्रतिरोध, आत्मरक्षात्मक है, रूपांतर या प्रगतिमूलक विकास मॉडल के विकल्प की चेतना की बात वहां भी दिखाई नहीं देती। ऐसे में हमारे चिंतक अगर खुद पूंजीवादी प्रगति के मॉडल और उसके फायदों के हिस्सेदार होने की हैसियत से पूर्वांचल में हो रहे जनविस्थापन की पीड़ा में हिस्सेदारी का दम भरते हैं- तो क्या हम उन्हें विकल्प लाने वाली मानवीय संवेदनशीलता का उदाहरण मान सकते हैं। पूंजीवाद के उपजते चिंतन के बाजार के हिस्सेदार, गांधी की अहिंसा का मजाक उड़ाते हैं, तो ऐसा करते हुए वे न गांधी का विकल्प बनाते हैं, न पूर्वांचल के लोगों की पीड़ा से निजात का कोई रास्ता दिखाते हैं। बेशक ऐसा करते हुए वे इस बाजार के ऐसे उत्तेजक चिंतन के प्रोडक्ट के निर्माता जरूर बन जाते हैं, जिसकी यूरोप और अमेरिका समेत पूरी 'पश्चिमीकृत' दुनिया में खासी मांग है। भारत में भी ऐसे नव-औपनिवेशिक बाजार की खपत के लिए बड़ी संभावनाएं मौजूद हैं, जिसका फायदा इन बुद्धिजीवियों को मिल रहा है। गांधी के अहिंसक प्रतिरोध की चूंकि भारत में प्रयोग में लाने की संभावनाएं और जरूरतें प्रकट हुई हैं, इसलिए इसे मुख्यत: भारत के संदर्भ में ही समझना होगा। केवल एक अव्यावहारिक सांस्कृतिक सिद्धांत मान कर, इसे समाज विज्ञान और विकास के जमीनी रूपों से भिन्न घोषित करना- एक प्रचार मात्र है। इसी प्रचार की वजह से हमारे चिंतक मार्क्सवाद और गांधीवाद को एक दूसरे से अलहदा ही नहीं, परस्पर विरोधी भी मान बैठते हैं। हालांकि मार्क्सवाद विवेचन-विश्लेषण की द्वंद्वात्मक दृष्टि है, जिसकी कसौटी पर अगर गांधीवाद को समझने की कोशिश की गई होती तो ऐसा भ्रम खड़ा करना मुमकिन नहीं था। भारत एक विशाल जनसंख्या वाला देश रहा है। यहां यूरोप की तर्ज पर तेज विकास वाला मॉडल लागू नहीं हो सकता है। यूरोप में उच्चवर्गों द्वारा विविध सभ्यतामूलक विकास चरणों में जो तेज रफ्तार हासिल की गई, उसकी बुनियाद सामूहिक जनसंहारों पर रखी गई। भारत में इतनी बड़ी तादाद में गरीब और हाशिये के लोग हैं कि उस तरह की सामूहिक हिंसा यहां भयावह अराजकता फैला सकती है। इसलिए परस्पर सह-अस्तित्व वाले विकास मॉडल के तहत हमारे यहां अहिंसा के व्यावहारिक रूपाकार प्रकट हो सके, जो यूरोप की तुलना में यकीनन ज्यादा मानवीय थे। बेशक इससे भारत विकास की तेज रफ्तार पकड़ने से अक्सर चूकता रहा। विकास की वैसी तेज रफ्तार भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश पर आरोपित नहीं की जा सकती। इसलिए न सत्ता, सामूहिक जनसंहारों की हद तक हिंसक हो सकती है और न उसके चरित्र को बदलने के लिए प्रतिहिंसा कारगर उपाय हो सकती है। हमारे यहां लोगों को बचाने के लिए अहिंसा के सामूहिक व्यवहार ही काम के हैं और वही सत्ता पर भी और मानवीय होने का दबाव डालने की भूमिका बनाते हैं। गांधी की कामयाबी की वजह अंग्रेज सरकार की नैतिक दयानतदारी नहीं थी, जो वहां मौजूद दर्शकों की तरह गांधी के लिए तालियां पीट रहे थे। हालांकि वह गांधी की इस समझ का नतीजा थी कि हमारे यहां प्रतिहिंसा हमें भी सत्ता के द्वारा किए जा सकने वाले सामूहिक जनसंहार का पात्र बना सकती थी, इसलिए हमें ज्यादा मानवीय रास्ता चुनने की जरूरत थी। इसके अलावा जब हम जनविकल्प के साथ खड़े होकर विकास के अपने मॉडल के साथ सत्ता का प्रतिरोध करते हैं, तो सत्ता का अनैतिक दमन खुद-ब-खुद बेनकाब होकर कमजोर पड़ने लगता है। जमीन पर खेतिहर जन का अधिकार, नमक पर नमक उत्पादकों का अधिकार आदि की जो तर्क-विधि है- वह हमें मार्क्सवाद-समर्पित जनवाद वाले समाज को ही 'अपने तरीके से खोजने और गढ़ने' की ओर ले जाती है। गांधी हमें उसी 'आत्म-सृजन के स्वराज' में ले जाना चाहते थे। अहिंसक व्यवहार शैली ही सृजनधर्मी हो सकती है और उसके भीतर से हम अपने भविष्य को रचने की उम्मीद के साथ दोबारा जन्म ले पाते हैं। गांधीवाद को अगर हम इस सृजन-दृष्टि की तरह देख सकेंगे तो वह हमें न मार्क्सवाद-विरोधी मालूम होगी और न पूर्वांचल के प्रतिरोध की निगाह से अव्यावहारिक। |
Friday, April 13, 2012
प्रतिरोध की बहस में गांधी
प्रतिरोध की बहस में गांधी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment