Sunday, 15 April 2012 15:16 |
जनसत्ता 15 अप्रैल, 2012: वरिष्ठ कवि-कथाकार, समालोचक रमेशचंद्र शाह लगभग पचास वर्षों से कविताएं लिख रहे हैं। हिंदी साहित्य सम्मेलन की आधुनिक कवि माला में, जिसमें सुमित्रा नंदन पंत और महादेवी वर्मा जैसे कवियों के संचयन छपे हों, उसके चौबीसवें कवि के रूप में रमेशचंद्र शाह की चुनी हुई कविताएं छपना निस्संदेह प्रसन्नता का विषय है। कम्युनिस्ट शासकों द्वारा कभी तिरस्कृत कर दिए गए ढाई हजार वर्ष पुराने दार्शनिक महापुरुष कन्फ्यूशियस को दुबारा स्वीकृति में लाए जाने के समय लिखी गई कविता है- 'कू-फू'। 'फिर आया 'सांस्कृतिक क्रांति' का दशक/ वर्ष सड़सठ से वर्ष छिहत्तर तक भांजता गदाएं/ चौतरफा इस चीन देश में/ 'कू-फू' के ट््टषि की समाधि की/ बिखर गई धज्जियां... और उन सभी शिलालेखों को भी/ जिन पर थीं उसकी खुदी सूक्तियां/ या प्रशस्तियां सम्राटों की।' 'असली खबर और आगे है/ अब जो नए विचारों के सम्राट/ राज कर रहे चीन पर/ उनके द्वारा नए सिरे से मंदिर और भवन का जीर्णोद्धार/ किया जा रहा आज कल।' ('समाचार') रमेशचंद्र शाह ने कविताएं लिखने के अलावा कविताओं की रचना प्रक्रिया पर भी लिखा है। यह उन्होंने गद्य में भी लिखा है और अनेक पद्यों में भी। 'कविता एक ऐसी कला है, जिसकी सारी सामग्री मनुष्य की अपने को अभिव्यक्त करने की छटपटाहट से ही उपजी है। जिन चीजों से कविता बनती है- स्वर, व्यंजन, लय, शब्द, वाक्य, शब्दांतराल, स्मृतियां-श्रुतियांं, राग-विराग, सुख-दुख, रूप-गंध, शोर-संगीत आदि... उनमें एक भी चीज ऐसी नहीं, जो हममें से हरेक के अंतर्वाह्य जीवन से सीधे जुड़ी न हो। '...कहा जो न, कहो/ नित्य नूतन प्राण अपने/ गान रच-रच दो... वही तो करती है कविता।' 'यही तो उसका स्वभाव और उसकी खासियत है। अनकहे को उजागर करना। वही तो हमें यकीन दिलाती है कि हम अपनी सारी अव्यक्त, अबूझ वेदनाओं और उलझनों को भी व्यक्त कर सकते हैं- दूसरों तक संप्रेषित कर सकते हैं और इस तरह इस संप्रेषण की बदौलत ही उनसे उबर भी आ सकते हैं।' 'कछुए की पीठ पर', 'शब्द, बताओ', 'कठिन समय में', 'कविता जी खुद', 'तुम्हारी कहानी' आदि ऐसी कविताएं हैं जिनके जरिए कविता के विषय में कुछ कहा गया है। इनसे केवल कवि की कविता नहीं, बल्कि सामान्यतया 'कविता' पर रोशनी पड़ती है। मामूली-सी घटनाएं भी उनके यहां कविता का रूप ग्रहण कर लेती हैं। उदाहरण के लिए इस संचयन में 'सहयात्री', 'काम की बात', 'श्याम रेल में', 'सेवानिवृत्ति के बाद', 'बहुरूपिया' शीर्षक कविताएं ऐसी ही हैं। 'सबारे ऊपर मानूस सत्य/ तारे ऊपर किछु नाई' चंडीदास की यह बांग्ला काव्यपंक्ति एक तरह से 'मानववाद' का आधार वाक्य बन गई है। यह मानववाद छिछला, सत्य के सामने भीरु और प्राय: अनर्थकारी होता है। रमेशचंद्र शाह की कविता है- 'चंडीदास के गांव में': 'सबके ऊपर/ है मनुष्य का सत्य/ और,/ उसके ऊपर/ कुछ नहीं/ कैसे इतना बड़ा दांव तुम/ लगा गए कोरे मनुष्य पर/ कैसी विकट पहेली तुम/ रच गए इस तरह/ अपने अनजाने ही?/ तुम्हें क्या पता/ कैसे-कैसे लोग इसी में/ कैसे-कैसे रंग भरेंगे/ अपने मनमाने ही!' यहां कवि ने 'इस विकट पहेली में/ कैसे-कैसे रंग भरेंगे/ अपने मनमाने ही!' कह कर एक छिछले 'मानववाद' का खंडन किया है, जो भारतीय टिप्पणीकारों, यहां तक कि लेखकों और दार्शनिकों द्वारा भी उद्धृत किया जाता रहा है। हर मौके-बेमौके उद्धृत होने वाले इस वक्तव्य में कोई अर्थ नहीं था फिर भी लोग इसका उपयोग करके एक घटाटोप पैदा कर देते थे। रमेशचंद्र शाह ने कुछ सुंदर प्रगीतियां भी लिखी हैं। 'हरसिंगार की चोंच/ और... टांर्गि भी, देखो-/ हरसिंगार की/ ताल किनारे/ झरे थाल सा/ हरसिंगार के/ खिला झुंड/ बतखों का।' 'झील में अटका पड़ा यह/ व्योम देवल/ छंद केवल?/ या कहीं कुछ/ बात?/ पूछती है रात।' इस संचयन में 'मूसल पर्व', 'अरावली एक शृंखला', 'व्यास-पर्व', 'यही समय है', 'अन्न जल', 'प्यारे मुचकुंद को', 'जागते रहो', 'एक लंबी छांह' आदि अनेक ऐसी कविताएं हैं जो हिंदी पाठक के काव्य-जीवन को समृद्ध करती हैं। इस समय हिंदी में जैसी कविताएं लिखी जा रही हैं उससे यह नहीं लगता कि आजकल कवियों में भाषा की 'सदियों में विस्तृत सुदीर्घ जीवनी' का अहसास अभी शेष है। रमेशचंद्र शाह की कविताएं हिंदी पाठकों के भाषा जीवन को अपने विस्तृत वैविध्य से प्राणवान बनाती हैं।
कमलेश |
Sunday, April 15, 2012
कवि-विमुख समय में
कवि-विमुख समय में
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