Monday, 12 March 2012 10:31 |
कुमार प्रशांत अब जब परिणाम आ गए हैं और बहुत सारे विश्लेषण औंधे मुंह गिरे हैं, तो सबसे सरल और जमीनी विश्लेषण हमारे सामने आया है समाजवादी पार्टी के नए नेता अखिलेश यादव का। उन्होंने कहा,यह लोकतंत्र का खेल है! कल वे जीते थे, आज हम, कल वे जीतेंगे और हम हारेंगे। यह खेल चलता रहेगा। एक बात और थी, जो राहुल गांधी और कांग्रेस ने एकदम भुला दी। केंद्र में दोबारा काबिज होने के बाद से मनमोहन सरकार का जैसा हाल रहा है, उससे उत्तर प्रदेश की कांग्रेस को अलग करके मतदाता कैसे देखता? उत्तर प्रदेश का मतदाता देख रहा था कि एक ऐसी पार्टी उसके सूबे में सरकार बनाने की मांग कर रही है जिसे दिल्ली में सरकार चलाना नहीं आ रहा। राहुल गांधी जितनी शिद्दत से बसपा के भ्रष्टाचार की बात उठाते थे, लोग सुनना यह भी चाहते थे कि वे केंद्र के भ्रष्टाचार के बारे में क्या कहते हैं! राहुल गांधी इसे किनारे करते रहे और बेअसर होते रहे। लोगों ने यह भी देखा था कि यही राहुल गांधी और दिल्ली के उनके सारे मंत्रीगण जन लोकपाल आंदोलन के दौरान क्या कर रहे थे! उन दिनों कांग्रेस का रवैया किसी मदहोश राज दरबार जैसा था। राहुल गांधी उस दौर में एकदम मुंह बंद कर पडेÞ रहे। जब लोकसभा में वे बमुश्किल बोलने आए तब एक मौका था कि वे अपने लोगों की सारी गलतियों को पीछे छोड़, गाड़ी को पटरी पर लाते। लेकिन उस दिन लोकसभा में गुस्से में कही दो-एक असंबद्ध बातों से अधिक वे सरकार और पार्टी के लिए कोई रास्ता नहीं बना सके। फिर यह उम्मीद थी कि अमेरिका से अपना इलाज करा कर लौटीं सोनिया गांधी पहला काम यही करेंगी कि जन लोकपाल आंदोलन को अपने करीब लाएंगी। लेकिन वह भी नहीं हुआ और वे कुछ अर्थहीन चुनौतियां उछाल कर शांत हो गर्इं। रामदेवजी का आंदोलन जितना दिशाहीन और गैर-ईमानदार था और जैसी अपरिपक्वता से वे उसे चला रहे थे, वह अपनी मौत आप ही मर जाता। लेकिन अगर कपिल सिब्बल और चिदंबरम जैसे रणनीतिकार हों आपके पास, तो दूसरों की जरूरत ही क्या! कांग्रेस ने तमाम लोकतांत्रिक संस्थाओं को आंखें दिखाने का मानो अभियान ही चला रखा था। न्यायपालिका को उसने आंखें दिखार्इं, चुनाव आयोग को रास्ते का रोड़ा साबित करने की कोशिश की। खुदरा व्यापार को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों सौंपने की बात हो या फिर आतंकवाद से निबटने के लिए एक अलग-सी व्यवस्था खड़ी करने का सवाल हो, सभी मामलों में केंद्र सरकार बहुत असावधान नजर आई। इन सभी में उसे अपने ही समर्थकों की घुड़की खाकर पीछे हटना पड़ा। जब इतना बड़ा चुनाव सिर पर हो तब ऐसे सवालों को सरकार आमतौर पर आगे के लिए छोड़ देती है। यहां तो ऐसा लग रहा था मानो कांग्रेस ने यह मिनी महाभारत जीत लिया तो वह लोकतंत्र को ही बदल देगी। कांग्रेस का अतीत ऐसी आशंकाओं को बल देता है। यह सब था जिनका सम्मिलित नतीजा कांग्रेस की ऐसी पराजय में सामने आया। लेकिन राहुल गांधी को इस बात का श्रेय देना ही पड़ेगा कि इस युवक ने अपनी तमाम कमियों-कमजोरियों के बाद भी, सारे राजनीतिक दलों को मजबूर कर दिया कि वे जमीन पर उतर कर चुनाव लड़ें। इसलिए मैंने कहा कि राहुल गांधी की पार्टी बुरी तरह हारी है, राहुल गांधी नहीं! विश्लेषक गिना रहे हैं कि राहुल की हर पहल चुनाव में पिटी है। पहले बिहार में और अब उत्तर प्रदेश में। वे कहते हैं कि तमिलनाडु और केरल में भी उम्मीदवारों का चयन राहुल ने किया था और वहां भी पार्टी बुरी तरह पिटी। यह सब सही है, लेकिन यह भी देखना होगा कि इन सभी जगहों पर कांग्रेस थी किस हाल में? इनमें से कहीं भी कांग्रेस राजनीतिक ताकत के रूप में थी ही नहीं। बिहार या उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जो कुछ भी थी, लोगों की निजी स्थिति और चुनाव प्रबंधन की उनकी क्षमता के कारण थी। आज राहुल गांधी ने कांग्रेस को फिर से सामने ला खड़ा किया है। लेकिन इन सभी जगहों पर पार्टी के रूप में कांग्रेस का कायाकल्प करना जरूरी है। कांग्रेस में राहुल के अलावा दूसरा कोई है नहीं जो ऐसा कर सके। कांग्रेस के सामने अगली बड़ी चुनौती गुजरात की है। यहां पार्टी में नेताओं की भीड़ है, नेतृत्व जैसा कुछ भी नहीं है। गुजरात का जैसा सांप्रदायीकरण नरेंद्र मोदी ने कर रखा है, उसमें चुनाव की छौंक जब आप डालते हैं तब बहुत ही जहरीला माहौल खड़ा होता है। इन सबका मुकाबला करने की चुनौती है गुजरात में। राहुल गांधी की कोई भी कसौटी इन सबको ध्यान में रख कर ही करनी होगी। अगर राहुल अपना काम, अपनी ही शैली में लेकिन ज्यादा प्रौढ़ता के साथ जारी रखेंगे तो 2014 में हम उनकी पहुंच का सही जायजा ले पाएंगे। (जारी) |
Monday, March 12, 2012
राहुल गांधी की हार
राहुल गांधी की हार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment