Wednesday, March 14, 2012

पुतिन की नई पारी

पुतिन की नई पारी 


Wednesday, 14 March 2012 10:14

अभय मोर्य 
जनसत्ता 14 मार्च, 2012: हाल ही में एक अमेरिकी पत्रिका के आवरण पर रूसी राष्ट्रपति के चुनाव की पूर्वसंध्या पर एक चौंकाने वाला शीर्षक छपा था: 'पुतिन के अंत की शुरुआत!' मजे की बात यह है कि उपर्युक्त अमेरिकी पत्रिका में छपे लेखों में यह भी माना गया कि पुतिन-काल में रूस में जीडीपी दुगुना हो गया, रूसियों की आय कई गुना बढ़ गई, इंटरनेट का प्रसार पांच सौ गुना बढ़ गया, आदि। फिर भी पुतिन का अंत! खैर, सभी की उम्मीदों के ऐन विपरीत व्लादीमीर पुतिन पहले ही दौर में लगभग चौंसठ फीसद मत पाकर विजयी हुए, छह साल के राष्ट्रपतित्व के लिए। दूसरे नंबर पर सत्रह फीसद मत पाकर आए कम्युनिस्ट उम्मीदवार ज्युगानोव। बाकी के प्रत्याशी यानी रूस के बर्लुस्कोनी कहे जाने वाले खरबपति मिखाइल प्रोखरोव आठ फीसद मत पाकर रहे तीसरे स्थान पर, उग्र राष्ट्रवादी झिरिनोव्स्की ने चौथे स्थान के लिए बटोरे छह फीसद मत और मिरोनोव ने पांचवें स्थान के लिए प्राप्त किए मात्र 3.8 फीसद मत। परिणाम ने सभी को चौंका दिया। पुतिन ने जनता को धन्यवाद देते हुए कहा कि वे अपनी जीत को रूस और उसकी जनता के लिए और अधिक काम करने के अवसर के रूप में देखते हैं।    
इस मौके पर किए गए एक जनमत संग्रह के अनुसार, यह पूछे जाने पर कि इस समय रूस के सामने सबसे बड़ी चुनौती क्या है, चालीस फीसद रूसियों ने कहा, नाटो के आक्रामक मंसूबों से निपटना और सत्ताईस फीसद ने बताया, भ्रष्टाचार से दो-दो हाथ करना। चुनाव प्रचार के दौरान लिखे अपने लेखों में पुतिन ने इन्हीं दो मुद्दों को अपना केंद्रबिंदु बनाया था। उनके अनुसार, नाटो और अमेरिकी साम्राज्यवाद का आक्रामक रुख न केवल यूरोप में दिखता है, बल्कि लीबिया, सीरिया और ईरान आदि देशों में और भी खूंखार रूप में प्रकट होता है। यूरोप में बहुत सारे देश उत्तर-आधुनिक राष्ट्र बन कर रह गए हैं। उनकी अपनी कोई स्वतंत्र विदेश नीति नहीं। जो वाशिंगटन तय करता है वही सिर-माथे पर। देशों के नाम लेना यहां उचित नहीं होगा। 
पुतिन की सफलता का एक और राज चुनाव से पहले पुतिन-विरोधियों द्वारा किए गए विरोध-प्रदर्शनों में छिपा है। रूसी जनता के जेहन में यूक्रेन में हुई 'नारंगी क्रांति' की याद ताजा है। यूक्रेन के लिए उसके क्या परिणाम हुए उन्हें रूसी जनता भलीभांति जानती है। किसे नहीं मालूम कि कैसे यूक्रेनी नारंगी क्रांति के सरगना यूशेन्को और तिमोशेन्को ने देश को लूटा, एक धनी देश को भुखमरी के कगार पर धकेल दिया। रूसी लोगों से यह भी छिपा नहीं कि यूक्रेनी नारंगी क्रांति के पीछे नाटो और अन्य पश्चिमी शक्तियों का खूंखार लंबा हाथ था। पुतिन के चुनाव प्रचार ने इसी मुद्दे को केंद्रबिंदु बनाया। इस बार साम्यवाद-विरोधी प्रचार बिल्कुल नहीं किया गया। जाहिर है कि पुतिन के तीर निशाने पर लगे।  
इधर न्यायपूर्ण और पारदर्शी चुनाव प्रक्रिया को लेकर फिर हो-हल्ला हो रहा है। इसके बावजूद कि पुतिन के कहने पर कई हजार करोड़ रूबल खर्च करके नब्बे हजार से ज्यादा टीवी कैमरे लगाए गए, जिनसे दिखनी वाली तस्वीरें सीधे इंटरनेट में जा रही थीं। हर बूथ पर कम से कम दो कैमरे लगे थे। इन्हीं की बदौलत कुछ गड़बड़ियां उजागर हुर्इं। उदाहरण के तौर पर, दागिस्तान प्रदेश में कैमरों ने एक व्यक्ति को मतपेटी में मोहर लगे मत-पत्रों को भरते देखा। 
ऐसे और कई मामले सामने आए। चुनाव आयोग ने तुरंत इन मतदान केंद्रों पर मतगणना रोक दी और उनके परिणाम निरस्त कर दिए। और बहुत सारी ऐसी शिकायतों की छानबीन हो रही है। पुतिन ने स्वयं ऐसे आदेश दिए हैं। पर ये सब गड़बड़ियां इतनी गंभीर नहीं थीं कि वे चुनाव के अंतिम परिणाम को निर्णायक रूप से प्रभावित कर पातीं।
इसके अलावा, कहीं यह निकल कर नहीं आया कि पुतिन की पार्टी या उनके समर्थकों ने योजनाबद्ध ढंग से गड़बड़ियां कीं। छिटपुट घटनाएं हुर्इं, जो इतने बडेÞ देश में इतने बडेÞ पैमाने पर होने वाले चुनाव में कई हजार भी हो सकती हैं। पुतिन के प्रतिद्वंद्वियों में कम्युनिस्ट उम्मीदवार ज्युगानोव को छोड़ कर किसी को आरंभ में चुनाव प्रक्रिया में कोई गंभीर गड़बड़ी नहीं दिखी थी। ज्युगानोव ने भी मात्र इस मायने में चुनाव प्रक्रिया पर लांछन लगाए थे कि चुनाव प्रचार के दौरान प्रचार माध्यमों में सभी उम्मीदवारों को बराबर के अवसर नहीं मिले। सरकारी तंत्र ने एक विशेष प्रत्याशी यानी पुतिन को ज्यादा उछाला। हो सकता है कि ऐसी आलोचना सच्चाई से परे न हो। पर ऐसा तो होता ही है। 
अभी भारत में हुए चुनावों के दौरान प्रचार माध्यमों की एक दल विशेष और उसके एक विशेष नेता को उछालने के लिए आलोचना हो सकती है। पर इसे चुनावी धांधली कह कर सारी चुनावी प्रक्रिया की गरिमा को चुनौती देना जायज नहीं होगा। फिर, चुनाव के नतीजे आकस्मिक नहीं हैं। चुनाव से पहले किए गए अनेक जनमत सर्वेक्षणों के परिणाम अंतिम नतीजों से लगभग मेल खाते हैं। 'गोलोस' जैसे अमेरिका समर्थित और पोषित गैर-सरकारी संगठनों को भी मानना पड़ रहा है कि सभी तथाकथित चुनावी धांधलियों के बावजूद पुतिन पचास फीसद से अधिक मत प्राप्त करने में सफल रहे। 

असल में समस्या दो कारणों से पैदा हो रही है। पहला तो यह कि रूसी जनता के एक छोटे-से भाग, विशेषकर नव मध्य या नवधनाढ्य वर्ग को यह बात हजम नहीं हो रही कि पुतिन इतने लंबे समय तक रूस में राज कर सकते हैं। उन्हें चाहिए कोई रूसी बर्लुस्कोनी, शायद   प्रोखरोव जैसा। पर इतिहास इस बात का भी गवाह है कि ऐसे ही मध्यवर्गियों के करण हिटलर और अन्य तानाशाह गद्दी पर आसीन हुए थे। 
पुतिन के चुनाव के कारण सबसे अधिक तकलीफ मकार्थीवादी अमेरिकी शासक वर्ग को हो रही है। वे अपने घोर विरोधी को भला कैसे छह वर्ष झेल सकते हैं! उसके रहते वे और लीबिया नहीं बना पाएंगे। वे नाना प्रकार से कीचड़ उछाल कर सारी चुनाव प्रक्रिया को शंका के घेरे में लाना चाहते हैं, ताकि पुतिन के विरुद्ध प्रदर्शन होते रहें और उनकी सत्ता को प्रभावहीन बना कर उसे कमजोर किया जाए। इसका ज्वलंत प्रमाण है पश्चिमी प्रचार माध्यमों की प्रतिक्रिया। 'न्यूयार्क टाइम्स' के संवाददाता डेविड हेरशेन्हॉर्न ने पुतिन की जीत को निरा छलावा कहा, 'द वाशिंगटन पोस्ट' के जैक्सन डील ने घोषणा की कि पुतिन का तानाशाही तंत्र शीघ्र ही बिखर जाएगा, 'द गार्डियन' के ल्यूक हार्डिंग ने पुतिन की जीत को 'राज्याभिषेक' की संज्ञा दी। 'फिनैंसियल टाइम्स' ने सवाल खड़ा कर दिया कि क्या पुतिन छह वर्ष तक टिक पाएंगे? 
रूस के पूरे तंत्र के चरमरा जाने की भविष्यवाणी तक इस अखबार ने कर दी। इन समाचारपत्रों को आशा है कि प्रदर्शनों और प्रति-प्रदर्शनों का निरंतर चलने वाला सिलसिला रूस को सीरिया या लीबिया बना देगा। यही चाल चली जा रही है अमेरिकी और नाटो के युद्ध-प्रेमी हुंकारियों द्वारा। 
और अमेरिकी शासक वर्ग, उस पर भी रिपब्लिकन नेता मकेन जैसों को रूसी चुनावों के न्यायपूर्ण न होने के बारे में भोंपू बजाना शोभा नहीं देता। हम अभी तक नहीं भूले हैं कि कैसे जीतने वाले डेमोक्रेटउम्मीदवार अल गोर को हरवा कर जॉर्ज बुश को विजयी घोषित करवाया गया था। सारी दुनिया ने टीवी पर देखा था वह तमाशा। उस समय मकेन के लिए जॉर्ज बुश की जीत एक पवित्र बात थी। पर अब क्योंकि पुतिन उन्हें रास नहीं आते, रूसी चुनाव प्रक्रिया को वे पानी पी-पीकर कोस रहे हैं।
मास्को में चार मार्च से पुतिन-विरोधियों और पुतिन-समर्थकों के प्रदर्शनों का तांता लगा हुआ है। जनतंत्र में यह कोई बुरी बात नहीं। मर्यादा की सीमा लांघे बिना अगर इस तरह के कार्यकलाप होते हैं तो वे जनतंत्र को और सुदृढ़ और स्वस्थ बनाते हैं। समस्या तब होती है जब बाहरी ताकतों की शह पर या उनके पैसे या उनकी मदद के बलबूते यह सब होता है। तब देश अवश्य सीरिया बन जाएगा। पश्चिमी शासक वर्ग के लिए इससे अधिक खुशी की बात और क्या होगी? यह खतरा रूस पर बुरी तरह मंडरा रहा है इसका प्रमाण चार मार्च की घटनाएं हैं। अतिवादी तत्त्व चुनावी नतीजों को निरस्त करने की मांग फिर से क्यों कर रहे हैं? वे तो तब तक इस मांग को दोहराते रहेंगे, जब तक उनकी पसंद का व्यक्ति रूस का राष्ट्रपति नहीं बनेगा। चार मार्च की शाम को पुश्किन चौराहे पर पुतिन-विरोधियों ने सभा की, जिसे प्रोखरोव सहित कई उम्मीवारों ने संबोधित किया।
दस-बारह हजार लोगों की यह रैली ठीक-ठाक ढंग से समाप्त हुई। फिर सभी अपने-अपने घरों को चल पड़े। पुलिस वाले भी अपनी गाड़ियों में सवार होकर निकलने लगे। तभी उदाल्त्सोव और नवाल्नई जैसे सौ-डेढ़ सौ अतिवादियों और अन्य आगलगाऊ तत्त्वों ने चीख-चिल्ला कर कोहराम मचाना शुरू कर दिया। जाहिर है, अतिवादियों के आकाओं का लक्ष्य है कि किसी तरह रूस में लीबिया या सीरिया की तरह गृहयुद्ध की आग भड़क उठे। टकराव पैदा करना कोई असंभव बात नहीं थी, क्योंकि महज एक किलोमीटर दूर लगभग पचास हजार पुतिन-समर्थक विजय-सभा कर रहे थे। पर पुलिस की मुस्तैदी ने आगभड़काऊ तत्त्वों के मंसूबों पर पानी फेर दिया। 
व्लादिस्लाव इनोजेम्त्सेव जैसे रूसी विशेषज्ञों ने सही कहा है कि न्वाल्नई जैसे अमेरिका पोषित विरोधी वही पुराने नारे दोहरा रहे हैं कि चुनावों के परिणाम निरस्त किए जाएं। लोग इन नारों से ऊब चुके हैं। इस बार जागरूक रूसी जनता ने सारी चुनाव प्रक्रिया को बड़े ध्यान से देखा है। उसे अब भावुक नारों और भाषणों से नहीं भड़काया जा सकता। विरोधियों की अतिवादी और आगलगाऊ चालों का पुतिन ने संयत ढंग से सामना किया। उन्होंने सभी विरोधी उम्मीदवारों को बातचीत के लिए बुलाया। ज्युगानोव को छोड़ कर सभी उम्मीदवार पुतिन से मिले। 
यही बात नाटो और अन्य युद्ध-उन्मादियों के गले नहीं उतर रही है। पर रूस का भविष्य वहां की जनता को तय करना है। परिणाम घोषित होने पर एक पुतिन-विरोधी युवक ने समझदारी की बात कही कि अब सिद्ध हो गया है कि वे यानी विरोधी भारी अल्पमत में हैं। पर उसने आगे कहा कि विरोधियों के साथ भी अदब से पेश आना चाहिए। इस मत से कोई भी जनवादी व्यक्ति इत्तिफाक रखेगा। आशा है रूस के दोनों पक्ष इस मंत्र को समझेंगे। तभी यह महान देश लीबिया या सीरिया बनने से बच पाएगा।

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