Wednesday, 14 March 2012 10:14 |
अभय मोर्य पुतिन के चुनाव के कारण सबसे अधिक तकलीफ मकार्थीवादी अमेरिकी शासक वर्ग को हो रही है। वे अपने घोर विरोधी को भला कैसे छह वर्ष झेल सकते हैं! उसके रहते वे और लीबिया नहीं बना पाएंगे। वे नाना प्रकार से कीचड़ उछाल कर सारी चुनाव प्रक्रिया को शंका के घेरे में लाना चाहते हैं, ताकि पुतिन के विरुद्ध प्रदर्शन होते रहें और उनकी सत्ता को प्रभावहीन बना कर उसे कमजोर किया जाए। इसका ज्वलंत प्रमाण है पश्चिमी प्रचार माध्यमों की प्रतिक्रिया। 'न्यूयार्क टाइम्स' के संवाददाता डेविड हेरशेन्हॉर्न ने पुतिन की जीत को निरा छलावा कहा, 'द वाशिंगटन पोस्ट' के जैक्सन डील ने घोषणा की कि पुतिन का तानाशाही तंत्र शीघ्र ही बिखर जाएगा, 'द गार्डियन' के ल्यूक हार्डिंग ने पुतिन की जीत को 'राज्याभिषेक' की संज्ञा दी। 'फिनैंसियल टाइम्स' ने सवाल खड़ा कर दिया कि क्या पुतिन छह वर्ष तक टिक पाएंगे? रूस के पूरे तंत्र के चरमरा जाने की भविष्यवाणी तक इस अखबार ने कर दी। इन समाचारपत्रों को आशा है कि प्रदर्शनों और प्रति-प्रदर्शनों का निरंतर चलने वाला सिलसिला रूस को सीरिया या लीबिया बना देगा। यही चाल चली जा रही है अमेरिकी और नाटो के युद्ध-प्रेमी हुंकारियों द्वारा। और अमेरिकी शासक वर्ग, उस पर भी रिपब्लिकन नेता मकेन जैसों को रूसी चुनावों के न्यायपूर्ण न होने के बारे में भोंपू बजाना शोभा नहीं देता। हम अभी तक नहीं भूले हैं कि कैसे जीतने वाले डेमोक्रेटउम्मीदवार अल गोर को हरवा कर जॉर्ज बुश को विजयी घोषित करवाया गया था। सारी दुनिया ने टीवी पर देखा था वह तमाशा। उस समय मकेन के लिए जॉर्ज बुश की जीत एक पवित्र बात थी। पर अब क्योंकि पुतिन उन्हें रास नहीं आते, रूसी चुनाव प्रक्रिया को वे पानी पी-पीकर कोस रहे हैं। मास्को में चार मार्च से पुतिन-विरोधियों और पुतिन-समर्थकों के प्रदर्शनों का तांता लगा हुआ है। जनतंत्र में यह कोई बुरी बात नहीं। मर्यादा की सीमा लांघे बिना अगर इस तरह के कार्यकलाप होते हैं तो वे जनतंत्र को और सुदृढ़ और स्वस्थ बनाते हैं। समस्या तब होती है जब बाहरी ताकतों की शह पर या उनके पैसे या उनकी मदद के बलबूते यह सब होता है। तब देश अवश्य सीरिया बन जाएगा। पश्चिमी शासक वर्ग के लिए इससे अधिक खुशी की बात और क्या होगी? यह खतरा रूस पर बुरी तरह मंडरा रहा है इसका प्रमाण चार मार्च की घटनाएं हैं। अतिवादी तत्त्व चुनावी नतीजों को निरस्त करने की मांग फिर से क्यों कर रहे हैं? वे तो तब तक इस मांग को दोहराते रहेंगे, जब तक उनकी पसंद का व्यक्ति रूस का राष्ट्रपति नहीं बनेगा। चार मार्च की शाम को पुश्किन चौराहे पर पुतिन-विरोधियों ने सभा की, जिसे प्रोखरोव सहित कई उम्मीवारों ने संबोधित किया। दस-बारह हजार लोगों की यह रैली ठीक-ठाक ढंग से समाप्त हुई। फिर सभी अपने-अपने घरों को चल पड़े। पुलिस वाले भी अपनी गाड़ियों में सवार होकर निकलने लगे। तभी उदाल्त्सोव और नवाल्नई जैसे सौ-डेढ़ सौ अतिवादियों और अन्य आगलगाऊ तत्त्वों ने चीख-चिल्ला कर कोहराम मचाना शुरू कर दिया। जाहिर है, अतिवादियों के आकाओं का लक्ष्य है कि किसी तरह रूस में लीबिया या सीरिया की तरह गृहयुद्ध की आग भड़क उठे। टकराव पैदा करना कोई असंभव बात नहीं थी, क्योंकि महज एक किलोमीटर दूर लगभग पचास हजार पुतिन-समर्थक विजय-सभा कर रहे थे। पर पुलिस की मुस्तैदी ने आगभड़काऊ तत्त्वों के मंसूबों पर पानी फेर दिया। व्लादिस्लाव इनोजेम्त्सेव जैसे रूसी विशेषज्ञों ने सही कहा है कि न्वाल्नई जैसे अमेरिका पोषित विरोधी वही पुराने नारे दोहरा रहे हैं कि चुनावों के परिणाम निरस्त किए जाएं। लोग इन नारों से ऊब चुके हैं। इस बार जागरूक रूसी जनता ने सारी चुनाव प्रक्रिया को बड़े ध्यान से देखा है। उसे अब भावुक नारों और भाषणों से नहीं भड़काया जा सकता। विरोधियों की अतिवादी और आगलगाऊ चालों का पुतिन ने संयत ढंग से सामना किया। उन्होंने सभी विरोधी उम्मीदवारों को बातचीत के लिए बुलाया। ज्युगानोव को छोड़ कर सभी उम्मीदवार पुतिन से मिले। यही बात नाटो और अन्य युद्ध-उन्मादियों के गले नहीं उतर रही है। पर रूस का भविष्य वहां की जनता को तय करना है। परिणाम घोषित होने पर एक पुतिन-विरोधी युवक ने समझदारी की बात कही कि अब सिद्ध हो गया है कि वे यानी विरोधी भारी अल्पमत में हैं। पर उसने आगे कहा कि विरोधियों के साथ भी अदब से पेश आना चाहिए। इस मत से कोई भी जनवादी व्यक्ति इत्तिफाक रखेगा। आशा है रूस के दोनों पक्ष इस मंत्र को समझेंगे। तभी यह महान देश लीबिया या सीरिया बनने से बच पाएगा। |
Wednesday, March 14, 2012
पुतिन की नई पारी
पुतिन की नई पारी
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