Wednesday, 21 March 2012 11:01 |
पुण्य प्रसून वाजपेयी राज्यसभा में प्रतिपक्ष के भाजपा नेता के तौर पर अरुण जेटली के साथ नितिन गडकरी किसी मुद्दे पर साथ बैठते नहीं। लालकृष्ण आडवाणी के घर का रास्ता भी गडकरी भूल चुके हैं। ऐसे में दिल्ली में डेरा जमाए दूसरी कतार के नेताओं की फौज चाहे रविशंकर प्रसाद से लेकर अनंत कुमार तक हो, या शाहनवाज हुसैन से लेकर मुख्तार अब्बास नकवी या रूडी की हो, सभी गडकरी के पीछे आकर खड़े हो गए हैं। ऐसे में भाजपा के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वैंकैय्या नायडू बेहद शालीनता से दिल्ली की तिकड़ी का साथ छोड़ गडकरी के पैसेवालों की चौसर के ऐसे पांसे बन गए, जहां भाजपा का मतलब गडकरी का खेल है। इसीलिए उत्तरांचल में कांग्रेसी रावत की बगावत से जरा-सी उम्मीद भी भाजपा में जागती है तो निशंक के साथ गडकरी रात बारह बजे के बाद भी चर्चा करने से नहीं कतराते और राज्यसभा की सीट पर सदन के डिप्टी स्पीकर आहलुवालिया का पत्ता कैसे कटे, इसकी बिसात झारखंड में पहले जमेशदपुर के उद्योगपति आरके अग्रवाल के नाम से सामने आती है तो फिर एनआरआई अंशुमान मिश्रा के जरिए मात मिलती है। वही खेल बिहार में भी खेला जाता है, जहां आहलुवालिया का नाम छुपाकर सुरक्षा एंजसी चलाने वाले आरके सिन्हा के नाम को आगे कर बिहार भाजपा के भीतर ही लकीर खींच कर जद (एकी) को मौका दिलाया जाता है। अगर इतने बड़े पैमाने पर लकीरें खींची जा रही है तो सवाल यह नहीं है कि क्या संघ से लेकर भाजपा बदल रही है। सवाल यह है कि आगे जिस रास्ते को संघ और भाजपा पकड़ने वाले हैं, उसका असर देश की राजनीति पर पड़ेगा या फिर बदलती राजनीति ने ही भाजपा-संघ को बदलने पर मजबूर कर दिया है। |
Tuesday, March 20, 2012
बदलने लगी संघ की चाल और भाजपा का चेहरा
बदलने लगी संघ की चाल और भाजपा का चेहरा
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