Tuesday, March 20, 2012

बदलने लगी संघ की चाल और भाजपा का चेहरा

बदलने लगी संघ की चाल और भाजपा का चेहरा


Wednesday, 21 March 2012 11:01

पुण्य प्रसून वाजपेयी 
संघ ने पहली बार राजनीतिक तौर पर सक्रिय रहे स्वयंसेवकों को संगठन में जगह दी है तो भाजपा पहली बार अपने ही कद्दावर नेताओं को खारिज कर धन्नासेठों को जगह दे रही है। संघ को लग रहा है कि आने वाले वक्त में उसे राजनीतिक दिशा देने का काम करना होगा और भाजपा को लग रहा है कि चुनावी नैया खेने के लिए आने वाले समय में सबसे जरूरी पैसा ही होगा। 
संघ ने अपनी कार्यकारिणी में ऐसे छह नए चेहरों को जगह दी है जो इमरजंसी से लेकर मंडल-कमंडल के दौर में खासे सक्रिय रहे। सह-सरकार्यवाहक बने डॉ कृष्णा गोपाल तो 1975 में मीसा के तहत 19 महीने जेल में रहे, और मदनदास देवी की जगह आए सुरेश चंद्रा तो अयोध्या आंदोलन के दौर में स्वयंसेवकों को राममंदिर का पाठ ही कुछ यों पढ़ाते रहे जिससे भाजपा की राजनीतिक जमीन के साथ समूचा संघ परिवार खड़ा हो।
इसी तर्ज पर एक दूसरे सह सरकार्यवाहक बने केरल के केसी कन्नन ने स्वयंसेवकों की तादाद बढ़ाते हुए हिंदुत्व की धारा को लेकर दक्षिण में तब जमीन बनाई, जब वामपंथी धारा पूरे उफान पर थी। लेकिन इसके ठीक उलट भाजपा ने राज्यसभा के लिए अरबपति एनआरआई अंशुमान मिश्रा और नागपुर के अरबपति अजय कुमार संचेती को अपना नुमाइंदा बनाया है। अंशुमान लंदन में रहते हंै। राज्यसभा के लिए परचा भरते वक्त पत्रकारों के कुरेदने पर वे यह कहने से नहीं चूकते कि जब झारखंड संभाले चौकड़ी, अर्जुन मुंडा, भाजपा के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ और वैंकैय्या नायडू के अलावा वर्तमान अध्यक्ष नितिन गडकरी का ही साथ हो तो फिर राज्यसभा कितनी दूर होगी।
उद्योगपति अजय कुमार संचेती हर उस जगह भाजपा के पालनहार बने, जहां पैसे की दरकार रही। संयोग से झारखंड में अर्जुन मुंडा की सरकार बनने में भी नागपुर से उड़कर रांची में असल बिसात संचेती ने ही बिछाई थी। इतना ही नहीं नितिन गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के बाद राष्ट्रीय कार्यकारिणी से लेकर हर छोटी-बड़ी बैठकों के लिए पैसे का इंतजाम उन्हीं पैसेवालों ने किया जो गडकरी के करीब थे। यहां तक कि पटना में भाजपा की सरकार होने के बावजूद न तो सुशील मोदी, और न ही रविशंकर जैसे नेता पैसे का जुगाड़ कर पाए। 
आखिरकार रास्ता गडकरी ने ही दिखलाया। वहीं संघ के मुखिया मोहन भागवत को अण्णा आंदोलन के दौर सें लगा कि अगर सामाजिक तौर पर अण्णा सरीखा कोई शख्स देश को झकझोर सकता है तो फिर आने वाले वक्त में संघ की उपयोगिता पर भी सवाल उठेंगे। और जब भाजपा के पास समूचा राजनीतिक संगठन है और संघ के स्वयंसेवकों को महंगाई से लेकर भ्रष्टाचार और काले धन के सवाल पर भाजपा के आंदोलन के साथ जुड़ने का निर्देश था, फिर भी सफलता पार्टी को क्यों नहीं मिली। 
असल में 16-17 मार्च को नागपुर में संघ के अधिवेशन में यही सवाल उठा। चितंन-मनन की प्रक्रिया में पहली बार संघ ने माना कि भाजपा की राजनीतिक दिशा कांग्रेस की लीक पर चलने वाली हो चुकी है। इसलिए संघ को ही राजनीतिक बिसात बिछानी होगी। इसी रणनीति के तहत पहली बार संघ की कार्यकारिणी राजनीति के उस महीन धागे को पकड़ना चाह रही है, जहां से भाजपा की साख दोबारा बने। यानी संघ यह मान रहा है कि भाजपा के नेताओं की साख नहीं बच रही, इसलिए संगठन भी भोथरा नजर आ रहा है। वहीं नेताओं का मतलब नितिन गडकरी सीधे दिल्ली की उस तिकड़ी पर डाल रहे हंै जो संसद से सड़क और मीडिया से आम लोगों के ड्राइंगरूम तक में चेहरा है। 

भाजपा ही नहीं संघ का भी मानना है कि लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली राजनीतिक तौर पर भाजपा की पहचान हैं। लेकिन इन नेताओं की पहचान के साथ संघ की खुशबू गायब है। इसका लाभ नितिन गडकरी को मिल रहा है, और गडकरी के रास्ते का लाभ संघ को मिल रहा है। वजह यह कि संघ के भीतर गडकरी की पहचान मोहन भागवत के ऐसे सिपाही के तौर पर है जो मुहंबोले हंै। जिसने अब की कमान संभाले संघ कार्यकारिणी के हर उस शख्स को नागपुर में देवरस के उस दौर से देखा, जब सभी रेशमबाग के इलाके में कदमताल करते हुए 'सदा-वस्तले' गाया करते थे। उसमें मोहन भागवत भी रहे हैं। तो भाजपा के चेहरों को खत्म करने की राजनीति में पार्टी ऐसे मोड़ पर आ खड़ी हुई है, जहां लोकसभा में प्रतिपक्ष के तौर पर भाजपा की नेता सुषमा स्वराज के साथ भाजपा अध्यक्ष की धुन बिगड़ चुकी है। 
राज्यसभा में प्रतिपक्ष के भाजपा नेता के तौर पर अरुण जेटली के साथ नितिन गडकरी किसी मुद्दे पर साथ बैठते नहीं। लालकृष्ण आडवाणी के घर का रास्ता भी गडकरी भूल चुके हैं। ऐसे में दिल्ली में डेरा जमाए दूसरी कतार के नेताओं की फौज चाहे रविशंकर प्रसाद से लेकर अनंत कुमार तक हो, या शाहनवाज हुसैन से लेकर मुख्तार अब्बास नकवी या रूडी की हो, सभी गडकरी के पीछे आकर खड़े हो गए हैं। ऐसे में भाजपा के दो पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह और वैंकैय्या नायडू बेहद शालीनता से दिल्ली की तिकड़ी का साथ छोड़ गडकरी के पैसेवालों की चौसर के ऐसे पांसे बन गए, जहां भाजपा का मतलब गडकरी का खेल है।
इसीलिए उत्तरांचल में कांग्रेसी रावत की बगावत से जरा-सी उम्मीद भी भाजपा में जागती है तो निशंक के साथ गडकरी रात बारह बजे के बाद भी चर्चा   करने से नहीं कतराते और राज्यसभा की सीट पर सदन के डिप्टी स्पीकर आहलुवालिया का पत्ता कैसे कटे, इसकी बिसात झारखंड में पहले जमेशदपुर के उद्योगपति आरके अग्रवाल के नाम से सामने आती है तो फिर एनआरआई अंशुमान मिश्रा के जरिए मात मिलती है। वही खेल बिहार में भी खेला जाता है, जहां आहलुवालिया का नाम छुपाकर सुरक्षा एंजसी चलाने वाले आरके सिन्हा के नाम को आगे कर बिहार भाजपा के भीतर ही लकीर खींच कर जद (एकी) को मौका दिलाया जाता है।
अगर इतने बड़े पैमाने पर लकीरें खींची जा रही है तो सवाल यह नहीं है कि क्या संघ से लेकर भाजपा बदल रही है। सवाल यह है कि आगे जिस रास्ते को संघ और भाजपा पकड़ने वाले हैं, उसका असर देश की राजनीति पर पड़ेगा या फिर बदलती राजनीति ने ही भाजपा-संघ को बदलने पर मजबूर कर दिया है।

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