Wednesday, March 7, 2012

हमारे दौर में किसी नेता को संस्‍कृति पर बोलते हुए सुना है?

हमारे दौर में किसी नेता को संस्‍कृति पर बोलते हुए सुना है?



आमुखबात मुलाक़ातमोहल्ला रांचीसिनेमा

हमारे दौर में किसी नेता को संस्‍कृति पर बोलते हुए सुना है?

7 MARCH 2012 ONE COMMENT

डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ विनय भरत

♦ विनय भरत

बीते 25 तारीख को दो खबरों से हमारी मुठभेड़ हुई। पहली खबर ये कि डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी हमारे शहर रांची आये हैं। और दूसरी खबर ये कि 11 मार्च से डीडी पर "उपनिषद गंगा" का प्रसारण शुरू होगा। पर मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि जिस प्रकार रांची के मीडिया ने उनके आने की खबर को भीतर के पन्‍नों पर छाप कर अपना कोरम पूरा किया, उसके ठीक विपरीत भारत का विशाल दर्शक समूह उनके "उपनिषद" को उसी तरीके से अपनाएगा, जिस तरीके से हमारे पूर्वजों ने हिंदुस्तान को अपनाया। हालांकि ये भी सच है कि उपनिषद गंगा जिस डीडी पर आ रही है, उसकी स्थिति भी निजी चैनलों के बीच कमोबेश अखबार के भीतरी पन्‍नों की तरह ही हैं।

और, उपनिषद डीडी पर ही क्यों?

प्रेस कांफ्रेंस में उपस्थित पत्रकारों के इस एक सवाल के शोर के बीच अकेले चंद्रप्रकाश "अभिमन्यु" नहीं, बल्कि "चाणक्य" के ही सामान प्रदीप्‍तमान नजर आये। "डीडी पर क्यों" की मानसिकता इस बात की ओर इशारा करती है कि भारत में अधिकांश दर्शक अब कोणार्क और संतोष ब्रांड की टीवी के बजाय फ्लैट स्क्रीन एलजी या सोनी जैसे कॉरपोरेट ब्रांड के टीवी की मार्फत विदेशी चैनलों को देख रहे हैं। रूपर्ट मर्डोक "थोड़ा विश करो, डिश करो" की मार्फत हमारे सर पर 'सालसा' कर रहा है और आज से तकरीबन दस वर्ष पहले वाले 'चाणक्य' के दर्शकों की तलाश 'उपनिषद' को आज भी है। पर बगैर किसी जद्दोजहद के। "उपनिषद डीडी पर ही क्यों" जैसे मासूम सवालों से कतई भी परेशान न होते हुए डॉ साब ने इस दो टके के प्रश्न का दो टुक जवाब दिया, "हमारा एकमात्र उद्देश्य बिजनेस नहीं था… आज के इस बाजारवाद में चैनल तय करने लगा है कि दर्शकों को क्या परोसा जाए? दर्शक उपभोग के साधन भर रह गये हैं। इस सब के विपरीत डीडी का कैरेक्टर आज भी हमारे मूल भारतीय संस्कृति के अनुकूल है। आज भी डीडी टीआरपी के खेल से बाहर है। दूसरा इसकी पहुंच मेट्रो से लेकर गांव की गलियों तक है।" और फिर जवाब देते–देते डॉ साब का स्ट्रीम ऑफ कॉन्‍शसनेस (सोच का अविरल प्रवाह) अचानक नया मोड़ लेता है, "संस्कृति" शब्द प। संस्‍कृति शब्‍द उन्होंने अपने प्रश्न के उत्तर के दौरान प्रयोग में लाया था। शायद वक्त के साथ "संस्कृति" शब्द ने भी जिस प्रकार 'हरिजन' शब्द की तरह अपने मायने को चेंज किया है और जिस प्रकार इन शब्दों के ऊपर राजनीति ने अपने नये रंग रोंगन किये हैं, उनकी चिंता शायद एक कलाकार की हैसियत से इसी बिंदु पर आवृत्त थी। उन्होंने एक सेकंड भी देर न करते हुए स्पष्‍ट किया, "मैंने "संस्कृति" शब्द का प्रयोग इसके आधुनिक समानार्थी शब्द "भाजपाई" के संदर्भ में बिलकुल ही नहीं किया है। मैं उस भारतीय संस्कृति की तरफ इंगित करना चाहता हूं जो पवित्र सिंधु और गंगा की गोद में जन्मी, फली-फूली और पूरे भारत में एक विचार के तौर पर यहां के एक-एक तत्वों में समाहित है।"

चंद्रप्रकाश जी की सबसे बड़ी चिंता यह समझ में आयी कि हम घर बैठे विदेशी चैनलों को ऑन करके चाहे बाजारवाद को कितना भी कोसें, सरकारी उदारीकरण को गालियां दें, लेकिन हम अपने प्रतिनिधियों से यह पूछने की जहमत नहीं उठाते की वे कभी भी सांस्कृतिक मुद्दे पर बात क्यों नहीं करते? पिछले 10 वर्षों में हमने देश के किसी भी छोटे या बड़े नेता को देश की संस्कृति पर बात करते नहीं देखा। इस शब्द के इस्तेमाल करते ही हमारे चेहरे पर सिर्फ एक एक्सप्रेशन तैरता है। वो है, "ओह गौड!" का। डॉ साब के ये विमर्श "उपनिषद" के उस डायरेक्टर के छुपे हुए डर के "कैथार्सिस" थे, जो खुद एक भावी दर्शक भी है और "संस्कृति की परिधि" से दूर जाते हुए एक विशाल दर्शक समूह के काफिले के पीछे खुद को तनहा पाने के डर से खौफजदा है। "मेरा मकसद बिजनेस नहीं था, और न ही इस सीरियल के प्रोड्यूसर चिन्मैय मिशन से जुड़े लोगों का। हमारा मकसद तो सिर्फ आधुनिक भारत को अतीत के भारत से परिचय भर कराना था। और "गंगा" को टूल्स बनाते हुए अंततः उस शाश्‍वत भारत से रू-ब-रू कराना था, जो आज भी वैसी ही है, जैसी कल थी। भारत महज एक भौगोलिक या राजनीतिक ईकाई मात्र नहीं, बल्कि एक विचार है। इतिहास और भूगोल वक्त के साथ बदलते रहे हैं, बदलते रहते हैं और सभ्यता इसे ग्रहण करती रहती है। भारत एक विचार के तौर पर लगातार विकसित होता जा रहा है। उसी विचार से रू-ब-रू करने का एक छोटा सा प्रयास है, "उपनिषद-गंगा"।

"जिस प्रकार हमारे उपनिषदों ने कोई निर्णय हमारे ऊपर नहीं थोपे आज तक, सिर्फ ऑप्शंस देता है, चुनाव देता है, उसी प्रकार "उपनिषद- गंगा" के जरिये हमने लोगों के समक्ष सिर्फ एक ऑप्शन दिया है। इसे समझने का, जानने का…"

…और फिर लगभग कौटिल्य की मुद्रा में वो आह्वान करते हैं (और उस वक्त कमरे में सिर्फ मैं उनके साथ था, फिर भी उनकी बॉडी लैंग्वेज ऐसी थी, मानो वे पूरे भारत को संबोधित कर रहे हों!)…

"अगर आप कुछ नहीं कर सकते इस देश के लिए, तो कम से कम घर बैठ कर चुप-चाप अच्छी चीजों को देख तो सकते हैं। आप बस देखें।"

डॉ साब शायद अपने इस आगामी सीरियल के आकर्षण के प्रति आश्वस्त हैं। "आप बस देखें" … बोलते ही उनकी आंखें एक अजीब सूफियाना सम्मोहन में लिपट सी गयीं … और उनके चेहरे पर मुस्कान उपनिषदों से उभरने लगे।

चंद्रप्रकाश जी की चिंता उस आर्टिफिशियलिटी की ओर भी थी, जिसने हमारी जीवन शैली को बाहरी पहनावे से लेकर आंतरिक सोच तक बनावटी बना दिया है। "पेपर–वेडिंग गाउन पहन के हमारी शादियां हो रही हैं और वो बॉलीवुड के एक्टर्स के प्रेजेंस के बिना अधूरी रह जा रही हैं। एलएसडी (एक महंगी नशीली दवा) में हम सुख को तलाश रहे हैं…"

मैंने बात को बीच में काटते हुए कहा, "जब आपने एलएसडी कहा तो मैंने सोचा, आपका इशारा 'लव, सेक्स और धोखा' से था…"

और वो मेरी तरफ ऐसे हंसे, मानो वो आज के एक पूरे 'कोला जेनेरेशन' पर हंसे हों। और उनसे मेरा अगला सवाल था, "आप मुझ जैसे ट्रेंडी यूथ को, जो बाल में तेल नहीं, जेल लगाते हैं; जो वेट नहीं, डेट करते हैं; मलिका साराबाई से ज्यादा मलिका शेरावत को जानते हैं; जो गांधी का मतलब "मुन्ना भाई, एमबीबीएस" समझते हैं, उसे आप "उपनिषद गंगा" का दर्शक होने का आमंत्रण किन शब्दों में देंगे?"

उनका जवाब सेल्फ-आन्‍सर्ड प्रश्न के रूप में बाहर आया, "क्या आज जो युवा है, वो कल भी युवा रहेगा? समय परिवर्तनशील है और इसे कंटीन्यूटी में देखने की जरूरत है, आइसोलेशन में नहीं। यंग एज अच्छी चीजों को संजोने का समय है, न कि भटकाव का। युवाओं में सुसाइड का पनपता कल्ट इसी कॉमर्शियलाइज्‍ड आइसोलेशन का नतीजा है। और रही बात "उपनिषद गंगा" की कंटेंपररीनेस की, तो जिन्हें सुख की तलाश कल थी, आज भी है, जिनके जीवन में दुःख कल भी थे, आज भी है, उनके लिए उपनिषद कल भी प्रासंगिक थे, आज भी हैं।"

और फिर बातों ही बातों में उन्होंने अपने "प्रोमो पोस्टर" पर सभी कलाकारों के दो अलग–अलग गेट-अप में (एक आधुनिक और एक पुरातन) छपी तस्‍वीरों की ओर इशारा करते हुए एक बिंब खींचा, "आप गौर से देखें। ये दोनों चेहरे एक ही हैं। चेहरे के भाव भी एक ही हैं। बस काल का अंतर है; और काल का यह अंतर हमारी सोच की आतंरिक गंगा में कहीं कोई परिवर्तन नहीं लाया। हम मूलतः आज भी वही हैं, जो कल थे। हमारी खोज भी वही है, जो कल के थे। भीतर कहीं कुछ नहीं बदला। उपनिषद कल भी रचे गये थे, आज भी रचे जा रहें हैं। 'आओ-मेरे पास बैठो' – यही है उपनिषद।"

अब बस देखना है कि इस उत्तर-आधुनिक युग में गैर–उत्तरीय टीवी चैनल दूरदर्शन के समीप कितने लोग बैठने का जतन करते हैं। क्या इसके दर्शक सिर्फ वही होंगे, जो न डिश कर सकते हैं और न ही विश कर सकते हैं, या फिर वो भी समीप बैठने का जतन दिखाएंगे जिनकी लाइफ, वाकई में "झींगा ला-ला" है। कुछ चीजें वक्त पर छोड़ देनी चाहिए। हां, इतना तो हम "विश" कर ही सकते हैं, दूरदर्शन को ये 'उपनिषद गंगा' सरीखी संजीवनी नव जीवन प्रदान करे और रूपर्ट मर्डोक रीयल भारत की रिटेलिंग करने पर मजबूर हो जाएं। मजा तो तब आएगा जब "उपनिषद" की 'गंगा' में दूसरे चैनलों के सोप भी नहाने लगें। और डॉ चंद्रप्रकाश द्विवेदी के साथ हमें भी पूरी उम्मीद है, ऐसा होकर रहेगा।

(विनय भरत। पेशे से प्राध्‍यापक, मि‍जाज से पत्रकार। फिलहाल मारवाड़ी कॉलेज, रांची में अंग्रेजी के असिस्‍टेंट प्रोफेसर। सामाजिक कामों में भी गहरी दिलचस्‍पी। अखबारों में लगातार समाज और राजनीति के मसलों पर लिखते रहते हैं। राजकीय उच्‍च विद्यालय, बरियातू, रांची से माध्‍यमिक शिक्षा और संत जेवियर कॉलेज से उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त की। उनसे vinaybharat@ymail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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