Sunday, March 11, 2012

मतदाता सयाने हो गए हैं

मतदाता सयाने हो गए हैं


Sunday, 11 March 2012 17:07

तवलीन सिंह 
जनसत्ता 11 मार्च, 2012: दबी जुबान बोलना मुझे पसंद नहीं, सो साफ शब्दों में कहती हूं कि पिछले सप्ताह पांच राज्यों से जो चुनाव परिणाम आए उनसे सबसे बड़ा नुकसान गांधी परिवार को हुआ है। कांग्रेस पार्टी को नहीं। इसलिए कि जिनको भारतीय राजनीति का जरा भी पता है, वे अच्छी तरह जानते हैं कि कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की मर्जी से चलती है। यह परंपरा तब से कायम है जब से इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी का सहारा लेकर अपने बेटे संजय को कांग्रेस पार्टी और देश की बागडोर सौंपी थी। उस समय तक संजय ने न तो कभी चुनाव लड़ा था न राजनीति में रुचि दिखाई थी। 
भारतीय राजनीति में वंशवादी लोकतंत्र अब एक महामारी की तरह फैल चुका है, लेकिन कांग्रेस पर इसका बुरा असर ज्यादा दिखता है, क्योंकि कांग्रेस चार दशकों से इस बीमारी की चपेट में है। सबूत मिला है रायबरेली और अमेठी के चुनाव परिणामों में। कांग्रेस यहां तकरीबन सारी सीटें हारी है, बावजूद इसके कि प्रियंका गांधी ने दिल लगा कर, दिन रात, इन चुनाव क्षेत्रों में खुद प्रचार किया और साथ में अपने दोनों बच्चों और पति को भी लेकर गर्इं। वाडरा साहब चाहते हुए राजनेता नहीं हैं, सो उन्होंने बेझिझक टीवी पर कह दिया कि पूरे परिवार का इरादा है राजनीति में आने का। उनके इस बयान में लोकशाही कम, सामंतशाही ज्यादा दिखी।
सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने अपने प्रचार में सामंतशाही को छिपाने की कोशिश की, लेकिन छिपी नहीं। सोनिया जी के उन भाषणों में दिख गई, जिनमें उन्होंने बार-बार कहा कि 'हम' दिल्ली से जो पैसा भेजते हैं, राज्य सरकार लूट लेती है, जनता तक नहीं पहुंचाती। इत्तिफाक से जब सोनिया गांधी यह भाषण रायबरेली की एक आमसभा में दे रही थीं, मैं उस शहर के एक रेस्तरां में सीतापुर के एक दलित युवक के साथ लंच कर रही थी। रेस्तरां में सारे लोग ध्यान से टीवी पर सोनिया जी का भाषण सुन रहे थे। जब उन्होंने पैसे भेजने वाली बात कही तो मेरे दलित साथी ने पूछा, 'क्या यह जनता का पैसा नहीं है?'
जरूर है। और ऐसी बातें करके यह दिखाने की कोशिश करना कि ये हजारों करोड़ रुपए गांधी परिवार की जेब से आते हैं, गलत है। सोनिया जी को शोभा नहीं देती हैं ऐसी बातें और इनमें सामंतवाद की वह झलक है, जो आज के भारतीय मतदाता झट से पहचान लेते हैं। इसलिए अच्छा नहीं लगता उनको जब राहुल गांधी बार-बार कहते फिरते हैं कि कैसे वे जाकर गरीबों के झोपड़ों में रातें गुजारते हैं और दलितों के साथ भोजन करते हैं। क्या ऐसा करना राजनेताओं का फर्ज नहीं होना चाहिए? क्या सिर्फ उन्हें अजीब लगता होगा, जो अपने आपको राजनेता नहीं राजकुमार समझते हैं?

वंशवाद के कट््टर आलोचक होने के नाते पिछले सप्ताह परिणामों के बाद मुझसे कइयों ने पूछा कि क्या मैं उनको समझा सकती हूं कि क्यों उत्तर प्रदेश की जनता को अखिलेश पसंद आए और राहुल नहीं। दोनों युवराज नहीं हैं क्या? हैं तो सही, लेकिन अभी तक अखिलेश के चुनाव प्रचार में, उनके रहन-सहन में, शायद जनता को वह राजा-महाराजाओं का पुराना अंदाज नहीं दिखा, जो राहुल गांधी के प्रचार में साफ दिखता है। 
फिर भी अखिलेश को जब फुरसत मिले, अच्छा होगा अगर वे ध्यान से कांग्रेस पार्टी के हाल का विश्लेषण करें। ऐसा करने से शायद उनको वे गलतियां दिख जाएंगी, जिनकी वजह से देश कासबसा पुराना राजनीतिक  दल इतना बीमार, इतना लाचार हो चुका है कि मुमकिन है कि 2014 के लोकसभा चुनावों तक दिल्ली से पालम तक ही उसका असर सीमित रह जाए। 
मेरा मानना है कि कांग्रेस ने सबसे बड़ी गलती की गांधी परिवार के करिश्मे पर विश्वास करके। ऐसा करने से कांग्रेस कहीं न कहीं भूल गई कि वह कभी एक असली राजनीतिक दल हुआ करती थी, जिसका संगठन हुआ करता था, जो चुनावों में उन लोगों को टिकट दिया करती थी, जिन्होंने जनता की सेवा की। न कि सिर्फ उनको जो किसी बड़े राजनेता के रिश्तेदार हों। 
चुनाव परिणाम आने के बाद जब राहुल पत्रकारों से मिले तो उन्होंने कहा कि बुनियादी तौर पर कांग्रेस में कमजोरियां आ गई हैं, इतनी ज्यादा कि रायबरेली-अमेठी में भी हार गए। सोनिया जी भी पत्रकारों से मिलीं और संगठन के कमजोर होने की बातें की। लेकिन कब आएगा वह दिन जब कांग्रेस में ऐसे लोग आना शुरू हो जाएंगे जो खुलकर कहेंगे कि कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी पैदा हुई है परिवारवाद के कारण? वह दिन जब आएगा कभी भविष्य में, तब बुनियाद रखी जाएगी कांग्रेस के पुनर्जन्म की। फिलहाल वह दिन क्षितिज पर भी नहीं दिखता।
आखिर में मेरी तरफ से उन राजनीतिक दलों के लिए छोटा-सा सुझाव, जो कांग्रेस की कमजोरियों का लाभ उठा कर भारत की राजनीतिक रणभूमि में आगे बढ़ना चाहते हैं। अच्छा होगा अगर वे वंशवाद की परंपराओं को पनपने से पहले ही कुचल डालें। भारत के मतदाता सयाने हो गए हैं।

No comments: