Saturday, March 17, 2012

आइटम सांग की सुरंग में क्‍यों घुस रही हैं लोक आवाजें?

http://mohallalive.com/2012/03/17/navnit-nirav-react-on-malini-awasthi-who-sing-a-song-in-agent-vinod/ 

 ख़बर भी नज़र भीसिनेमा

आइटम सांग की सुरंग में क्‍यों घुस रही हैं लोक आवाजें?

17 MARCH 2012 2 COMMENTS

♦ नवनीत नीरव

मार्डन मुजरा पिछले कुछ सालों से फिल्मों के गलियारों में अलग–अलग रूपों में पेश होता आया है। बंटी और बबली के "कजरारे-कजरारे" ने इसे पहचान दी। समय के साथ मुजरा तो कम पर आइटम सांग का प्रचलन बढ़ा है। फिल्म "एजेंट विनोद" का गीत "दिल मेरा मुफ्त का" भी इसी शृंखला को आगे बढ़ाते दिख रहा है। फिल्मकार इसे मार्डन मुजरा ही कह रहे हैं, पर यह दबंग फिल्म के आइटम सांग "मुन्नी बदनाम हुई…" के समकक्ष ही लगता है, जिस पर लोगों की मिश्रित प्रतिक्रिया हुई थी। गीतकार प्रसून जोशी का कहना था, 'दरअसल पहले अभिभावक बच्चों को उन इलाकों की तरफ जाने नहीं देते, जहां मुन्नी बदनाम हुई। बाजार ने दरवाजे खोल दिये हैं।'

दिल मेरा मुफ्त का… इस गाने का रीमिक्स वर्जन उत्तरप्रदेश की एक प्रसिद्ध लोकगायिका ने गाया है। यह वही लोक गायिका हैं, जो उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में उदासीन मतदाताओं को जागृत करने के लिए चुनाव आयोग की ब्रांड अंबेसडर हैं। एक विश्वस्तरीय न्यूज एजेंसी को साक्षात्कार देते हुए खुद को आम जनता का आइकन बता रही थीं। साथ ही जिक्र किया था कि 'मतदाता जागरूकता अभियान के लिए चुनाव आयोग का ब्रांड अंबेसेडर बनने का प्रस्ताव आया तो मुझे बहुत गर्व हुआ। लगा कि यदि मेरा लोक गायन देश के लोकतंत्र के काम आये तो बहुत बड़ी बात होगी।' उन्हें ब्रांड अंबेसडर बनाने के पीछे बड़ी सोच उनकी लोकप्रियता का फायदा उठा कर, मतदाताओं को लोकगीतों के माध्यम से जागरूक कर मतदान के लिए प्रोत्साहित किया जाए। एक बार फिर लोक कला का सदुपयोग सामाजिक काम के लिए होता दिखा। काफी बड़ी संख्या में इस बार उत्तर प्रदेश के वोटरों ने मतदान किया। हालांकि चुनाव आयोग ने इसके प्रसार के लिए अन्य माध्यमों का सहारा भी लिया था, जिनके सम्मिलित प्रयास से यह सफल हो रहा है। भविष्य के चुनाव में यही मॉडल कई राज्य भी अपने–अपने विधानसभा चुनाव में आजमाते दिख सकते हैं।

इस प्रयास से एक बात जो मेरी समझ में आती है कि लोगों की आज भी अपनी लोक संस्कृति में गहरी निष्ठा है। लोक गायकों के प्रति भी उनका आगाध स्नेह है। लोग अपनी जड़ों से जुड़े हुए हैं। उत्तर प्रदेश और बिहार राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों में गायकों, गीतकार एवं संगीतकार को रोल मॉडल के रूप में देखा जाता है। रेडियो के प्रभाव वाले समय में इससे संबंधित कई चर्चे आज भी गांवों में सुने जाते हैं, जिससे इनकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज भोजपुरी फिल्मों के जितने सफल नायक हैं, उनमें ज्यादातर लोक गायकी से ही जुड़े हुए हैं।

इन गायिका का यह भी कहना है कि लोक कलाएं संस्कृति की अभिव्यक्ति हैं, कभी वह चित्रों में आकार पाती है और कभी गीत संगीत में मुखर होती हैं। एक तरफ इनका यह संभाषण और दूसरी तरफ "दिल मेरा मुफ्त का.." जैसे इनके गाये गीत। सम्मोहन टूटता लग रहा है। क्या लोकगीत और लोकनृत्य की प्रासंगिकता आज के दौर में या यूं कहें तो फिल्मों में सिर्फ निरर्थक आइटम सांग और आधुनिक मुजरों तक सीमित है? भोजपुरी, अवधी, अंगिका आदि इन भाषाई क्षेत्रों की संस्कृति काफी पुरानी और समृद्ध है। निर्गुण, सोहर, बन्ना, नकटा आदि कई रंग हैं इस संस्कृति और लोकगायकी के, पर इनको कोई इनको क्यों नहीं प्रस्तुत करना चाहता है?

क्षेत्रीय भाषाओं की फिल्मों (खासकर भोजपुरी भाषा की) की बदहाल स्थिति के पीछे इनका गीत-संगीत भी तो जिम्मेवार है। ये फिल्में लोक संस्कृति का आईना होने के बजाय एक लोकप्रिय होने की जद्दोजहद दिखती हैं। अभी तक क्षेत्रीय फिल्मों के शीर्ष कलाकार ही हिंदी फिल्मों के निर्माण स्तर पर अपना योगदान करते आये हैं। ज्यादातर आइटम सांग और मुजरों में ही दिखाई देते हैं। इस तरह एक संदेश सारे देश या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यही जाता है कि उस क्षेत्र की संस्कृति ही इसी तरह की है – आइटम सांग या मॉडर्न मुजरे वाली। अक्सर इन क्षेत्रीय फिल्म और गैर फिल्मी संगीत पर फूहड़ता औए अश्लीलता के आरोप लगते रहे हैं। जो कि लगना लाजिमी है।

इस संस्कृति में पले–बढ़े कलाकारों, गीतकारों और फिल्म निर्माताओं की यह नैतिक जिम्मेदारी होनी चाहिए कि इसके अक्षुण्‍ण बनाये रखने में सहयोग करें। लोकगायिका शारदा सिन्हा ने भी हिंदी फिल्मों के लिए गीत गाये हैं। पर कभी भी उन्होंने इस तरह की मांग को स्वीकार नहीं किया, जिसमें लोक गायकी के मौलिक रूप के साथ छेड़-छाड़ की गयी हो। एक साक्षात्कार के दौरान उन्होंने इस बात का जिक्र किया था कि उन्हें भी फिल्म इंडस्ट्री से आइटम सांग गाने के प्रस्ताव कई बार आये। पर उन्होंने इसे कभी स्वीकार नहीं किया। "दिल मेरा मुफ्त का…" के रीमिक्स वर्जन गाने वाली लोकगायिका को भी यही चाहिए कि वे अपनी और लोक संस्कृति की गरिमा को बनाये रखें तथा भविष्य में लोक कला को इस तरह की प्रयोगशाला बनाने में अपना सहयोग न दें। लोक-संगीत के आदर और सम्मान की एक बात यह भी हो सकती है कि इसकी मर्यादा को बचा कर रखा जाए।

(नवनीत नीरव। केआईआईटी युनिवर्सिटी, भुवनेश्‍वर से रूरल मैनेजमेंट में एमबीए। पिछले दो वर्षों से ग्रामीण विकास के लिए भारत के चार राज्यों के सुदूर तथा अतिपिछड़े क्षेत्रों में काम किया। इसी महीने से बिहार में एक अंतरराष्ट्रीय विकास संस्था के साथ कार्यरत। नवनीत से navnitnirav@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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