Saturday, March 17, 2012

मैंने जिन राहुल को देखा है, वे आत्‍महत्‍या नहीं कर सकते!

http://mohallalive.com/2012/03/14/vyalok-pathak-on-rahul-sharma-who-commited-sucide/ 

मैंने जिन राहुल को देखा है, वे आत्‍महत्‍या नहीं कर सकते!

14 MARCH 2012 3 COMMENTS

♦ व्‍यालोक पाठक

ल सुबह बनारस से लौटते ही एक बेहद त्रासद खबर से दो-चार होना पड़ा। अखबारों में हालांकि महज एक बॉक्स में ही खबर दी (या दबा?) गयी थी, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में नियुक्त युवा पुलिस अधीक्षक राहुल शर्मा ने आत्महत्या कर ली।

राहुल शर्मा नाम से दिमाग में कुछ कौंधा तो जरूर, पर फिर गमे-दुनिया में मशरूफ हो गया। वैसे भी, चार दिन बनारस में गुजारने के बाद कोई भी खबर 'सिंक' करने में देर ही लगती है। आधे घंटे बाद अचानक दिमाग में एक तस्वीर उभरी और … मन सुन्न हो गया। एकाध फोन कॉल ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जेएनयू के पेरियार हॉस्टल में मेरी बगल के कमरे में रहनेवाले राहुल सर ही छत्तीसगढ़ के वह आईपीएस थे, जिनकी आत्महत्या की खबर छपी थी।

अवसन्न दिमाग में एक के बाद एक तस्वीरें उभरने लगीं। विनम्रता और भद्रता की जीवंत मूर्ति थे वह। उनकी मुस्कान संक्रामक थी। जिंदादिली और विचारों की स्पष्टता उनकी खासियत। ऐसा शख्स, जिसे देखते ही उदासी छंट जाए, फिर वह कैसे आत्महत्या कर सकता है? कहीं न कहीं तो कुछ बेहद गलत है। वह नर्मदा हॉस्टल के प्रेसिडेंट भी रह चुके थे और पढ़ाई-लिखाई के साथ राजनीति में भी अपनी तरफ से दखल रखते थे। वह दबाव में नहीं आने वाले और जोखिम उठाने वाले शख्स थे। इसकी मिसालें भी दिमाग में उभरने लगीं।

1998-99 के समय जेएनयू में विद्यार्थी परिषद के बैनर तले चुनाव लड़ना खासा जोखिम वाला काम था। राहुल ने उस जोखिम को भी लिया था। वह भी ट्रिपल एस में, जो अतिवादी वाम के लोगों से भरा हुआ था। उनके जैसे स्मार्ट, भद्र छवि वाले, लोकप्रिय और अच्छे वक्ता का अपने प्लेटफार्म से चुनाव लड़ाना तो परिषद के लिए 'अंधा क्या चाहे, दो आंखें' जैसी बात थी। ऐसा मैं इसलिए कह सकता था, क्योंकि उनके पैनल को घुमाने का जिम्मा मुझे ही मिला था। उसी चुनाव के दौरान राहुल सर से मेरी थोड़ी निकटता बढ़ी थी। फिर हॉस्टल में बगलगीर होने की वजह से भी हमारी खासी बातचीत हो जाया करती थी।

वह अपने विचारों में बेहद स्पष्ट थे, मृदुभाषी थे, पर तार्किक और अपनी विचारधारा को लेकर मुखर भी। बाद में वह सिविल सर्विस की तैयारी में व्यस्त हो गये और आईपीएस बनकर छत्तीसगढ़ चले गये। काफी समय बाद उनकी जो खबर मिली, वह बेहद मनहूस थी।

वैसे, विचारों की स्पष्टता और प्रखरता ही शायद उनकी आत्महत्या का वायस बनी। किरचों को जोड़कर जो तस्वीर बनती है, उस हिसाब से तो राहुल जी ने आत्महत्या की नहीं, उनसे वह करायी गयी।

जेएनयू के छात्र-जीवन के ठीक एक दशक बाद राहुल जी दंतेवाड़ा के एसपी थे और जेएनयू की ही तरह चर्चा में भी। हालांकि, इस बार वह विवादों के केंद्र में थे। एसपीओ की नियुक्ति और जनवरी 2009 में हुए इनकाउंटर को लेकर वह मानो 'इन द सेंटर ऑफ स्टॉर्म' थे। हालांकि, राहुल अपने काम और प्रक्रिया को लेकर न तो संकोची थे, न ही शर्मिंदा। उसी दौरान तहलका में अपने इंटरव्यू में उन्होंने खुलकर कहा था, 'It is a full-fledged war' … वह मीडिया ट्रायल को लेकर रक्षात्मक मुद्रा में भी नहीं आते थे, बल्कि अपने काम को तार्किक और जरूरी बताते थे।

वैसे, यह भी बता दें कि अपने इसी इंटरव्यू में राहुलजी ने यह भी कहा था कि पुलिस नक्सलियों को मार सकती है, नक्सलवाद को नहीं। नक्सलवाद को तो केवल विकास से ही खत्म किया जा सकता है। अगर उस इंटरव्यू मात्र को ही पढ़ें, तो समझ में आ जाता है कि राहुल जिंदगी से हार माननेवाले शख्स नहीं थे।

वह दंतेवाड़ा में काफी समय रहे, राजगढ़ गये और फिर बिलासपुर। जाहिर तौर पर, काफी संवेदनशील इलाकों में उनकी नियुक्ति रही। वह दो दिन पहले ही 15 दिनों की छुट्टी से लौटे थे, और मौत वाले दिन अपनी पत्नी के सरकारी आवास से ऑफिसर्स मेस में आ गये थे। मौत के पीछे अब पारिवारिक तनाव से लेकर पेशेवर दिक्कतों तक का हवाला दिया जा सकता है, लेकिन एक बात समझ में नहीं आती कि आखिर व्यवस्था की वह कौन सी धुरी है, जो राहुल शर्मा जैसे मृदुभाषी और बेहद कोमल हृदय वाले शख्स को एक ऐसे पुलिसवाले में बदल देती है, जो हत्या को जायज ठहराता है, छत्तीसगढ़ में और भी कठोर पुलिस कानूनों को चाहता है और सबसे अंत में एक बेहद त्रासद अंत को चुन लेता है।

(व्‍यालोक पाठक। जवाहरलाल नेहरु विश्‍वविद्यालय और भारतीय जनसंचार संस्‍थान से डिग्रियां। कई मीडिया संस्‍थानों के अलावा साप्‍ताहिक चौथी दुनिया और दैनिक भास्‍कर के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में पत्रकारिता। फिलहाल बिहार में सामाजिक कामों से जुड़े हैं। उनसे vyalok@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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