Thursday, 15 March 2012 10:08 |
अरविंद कुमार सेन माल परिवहन की दरें महंगी होने का असर दो रूपों में देखने को मिलता है। एक ओर रेलवे से होने वाली जरूरी जिंसों की ढुलाई महंगी होने से जनता को वस्तुएं महंगी दर पर मिलती हैं और महंगाई को सीधे हवा मिलती है। वहीं दूसरी तरफ सड़क परिवहन में इजाफा होता है जिसका असर हरित आवरण में कमी, सड़क हादसों में बढ़ोतरी, र्इंधन की बढ़ती खपत और आखिरकार बढ़े हुए करों के रूप में जनता को भुगतना पड़ता है। जरूरी जिंसों की ढुलाई रेल से ही मुफीद रहती है, लेकिन हमारे देश में इसका उलटा हो रहा है। 1970 में सत्तर फीसद माल ढुलाई रेलवे से होती थी, वहीं अब यह घट कर तीस फीसद रह गई है। मगर विकसित देशों में यह आंकड़ा अस्सी फीसद से ऊपर है। प्रथम श्रेणी के महंगे टिकटों से बहीखाता दुरुस्त करने का मॉडल भी सस्ते विमानन के दौर में विफल हो गया है। दिल्ली से मुंबई के बीच प्रथम श्रेणी की यात्रा के लिए चार हजार रुपए चुकाने होते हैं, जबकि किफायती विमानन कंपनियां महज पचीस सौ रुपए में यह सेवा मुहैया कराती हैं, ऊपर से आपाधापी के इस दौर में समय की बचत बोनस का काम करती है। यही वजह है कि रेलवे देश के महानगरों के बीच बेहतरीन रेल तंत्र होने के बावजूद विमानन क्षेत्र के संकट का फायदा नहीं उठा पाया। इसमें दो राय नहीं कि गरीब और काम की तलाश में शहरों का रुख करने वाले मजदूरों को सस्ते किरायों का फायदा मिलना चाहिए, मगर सभी को एक तराजू में तौलने की कवायद ने रेलवे की माली हालत खस्ता कर दी है। आलम यह है कि रेल किरायों पर कोई बात ही नहीं करना चाहता है और सस्ते किराए की आड़ में एक डिब्बे में तीन सौ यात्री घुसा कर दड़बा बना दिया जाता है। अगर रेलमंत्री की नई घोषणाओं को शामिल किया जाए तो रेलवे को चार सौ से ज्यादा परियोजनाओं पर काम शुरू करना है। मौजूदा दरों पर इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए सवा लाख करोड़ रुपए की दरकार होगी, मगर रेलवे की झोली में महज दस हजार करोड़ रुपए हैं। सीधे अल्फाजों में कहें तो रेलवे के पास अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करने के लिए महज आठ फीसद संसाधन हैं। अगर रेल मंत्रालय अगले एक दशक में अपनी घोषणाओं के घोड़े पर काबू रखता है तो भी मौजूदा परियोजनाओं के पूरा होने में पंद्रह साल लग जाएंगे। नौकरशाही से दबे रेलवे की कार्यकुशलता बयान करने के लिए पचानवे फीसद की ऊंचाई छू रहा परिचालन अनुपात (हरेक सौ रुपए की कमाई पर खर्च होने वाली रकम) काफी है और रेल बजट में दावा किया गया है कि अगले वित्तवर्ष में परिचालन अनुपात घटा कर 84.9 फीसद कर लिया जाएगा। बजट में कहा गया है कि अगले वित्तवर्ष से शुरू हो रही बारहवीं पंचवर्षीय योजना के आखिर में रेलवे मुनाफा कमाने लगेगा। याद रहे, यह लक्ष्य हासिल करने के लिए गंभीर प्रयास किए गए तो भी यह दावा विफल होने की आशंका है, क्योंकि 2016-17 में सातवां वेतन आयोग लागू हो जाएगा, जिससे रेलवे का बहीखाता फिर बिगड़ सकता है। भारत की विशाल आबादी को गरीबी के दलदल से निकालने के लिए हमारी अर्थव्यवस्था की रफ्तार आठ फीसद होना जरूरी है और इतनी विकास दर हासिल करने या उसे बरकरार रखने के लिए रेलवे के आगे बढ़ने की दर दस फीसद होनी चाहिए। यह माना हुआ तथ्य है कि विकास का फायदा निचले स्तर तक पहुंचाने के लिए परिवहन तंत्र मजबूत होना आवश्यक है और रेलवे की इसमें अहम भूमिका है। संसद में रेल की सालाना झांकी पेश करने की रस्म-अदायगी के विपरीत भारतीय रेलवे को पटरी पर लाने के लिए पेशेवर प्रबंधन की जरूरत है। देश के जीडीपी में रक्षा क्षेत्र की हिस्सेदारी तीन फीसद होने पर इसका लेखा-जेखा संघीय बजट के साथ पेश किया जाता है वहीं रेलवे का जीडीपी में महज एक फीसद योगदान है और इसका अलग बजट पेश किया जाता है। जब रेलवे अपनी वित्तीय जरूरतें पूरी करने में सक्षम नहीं है तो 1921 में खींची गई अलग रेल बजट पेश करने की अंग्रेजी लकीर पीटने की क्या मजबूरी है! सैम पित्रोदा समिति समेत दसियों रेल समितियां इस बात को दोहरा चुकी हैं कि अगर समय रहते भारतीय रेल का इलाज नहीं किया गया तो यह हमारी अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार सकता है। |
Wednesday, March 14, 2012
रेल का दिशाहीन सफर
रेल का दिशाहीन सफर
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