अज्ञेय पर बदल रहा है प्रगतिशीलों का नजरिया, पर अब क्यों?
भाषाई विविधता और वैचारिक असहमतियों का सम्मान करने वाले विलक्षण पत्रकार। पहले रंगकर्मी। राजस्थान पत्रिका से पत्रकारीय करियर की शुरुआत। वहां से प्रभाष जी उन्हें जनसत्ता, चंडीगढ़ संस्करण में स्थानीय संपादक बना कर ले गये। फिलहाल जनसत्ता समूह के कार्यकारी संपादक। उनसे om.thanvi@ expressindia.com पर संपर्क किया जा सकता है।
♦ ओम थानवी
वामपंथी कवि नंद भारद्वाज ने अज्ञेय को उनके सामाजिक सरोकारों के संदर्भ फिर से समझने की जरूरत बतायी है। यह बात पिछले दिनों कोलकाता में डॉ शंभुनाथ ने भी कही थी। नामवर सिंह, केदार नाथ सिंह, मैनेजर पांडे, उदय प्रकाश, राजेश जोशी, अरुण कमल आदि ने भी अज्ञेय जन्मशती वर्ष में अज्ञेय को सहृदयता से न सिर्फ देखा है, अज्ञेय के साहित्य की वह मीमांसा की है जिसकी अपेक्षा उनके श्रीमुख से कम से कम कट्टर (साहित्य को भाषण, पत्रकारिता, नारों आदि की तरह तात्कालिक चीज समझने वाले) वामपंथी नहीं करते थे। बहरहाल, अपने (स्वाभाविक) पूर्वग्रहों के बावजूद नंद जी का स्वर कई जगह सकारात्मक हुआ है, जिसका फेसबुक आदि पर स्वागत किया जा रहा है। पर नंद जी की ऐसी स्थापनाएं कतिपय साहित्यिकों को नागवार भी गुजरी हैं, जो अब भी अज्ञेय को समाज-विरोधी, पूंजीवादी, सीआईए का एजेंट जैसी गढ़ी हुई मूरत में ही देखना चाहते हैं।
नंद भारद्वाज कहते हैं : "अज्ञेय के काव्य-संसार में इस मानवीय संबंध और सामाजिक अनुभव से जुड़ी ऐसी कितनी ही कविताएं हैं, जहां वे अपने समय के केंद्रीय सवालों और वृहत्तर मानवीय चिंताओं के साथ खड़े दिखाई देते हैं। उनके प्रसंग में लोग बेशक वृहत्तर जन-सरोकारों की चर्चा करते संकोच करते हों, उनकी कविताएं इस बात की साक्षी हैं कि वे अपने सामयिक परिदृश्य में कविता के माध्यम से हस्तक्षेप करने वाले एक जागरूक कवि रहे हैं।"
इस नजरिये से परेशान लोग नंद जी के ही लिखे इस समाहार को पढ़ कर संतोष नहीं कर पाते जहां वे सारी सकारात्मक उक्तियों के बाद कहते हैं कि "… गो कि यह उनका (अज्ञेय का) मूल स्वर नहीं है और न बदलाव की उस समाजवादी प्रक्रिया के प्रति उनके मन में कोई आश्वस्ति ही।" फिर भी, नंद जी ने जो उदारता दिखायी, उसके लिए वे बधाई के हकदार हैं।
पर मेरी जिज्ञासा यह है कि अगर किसी साहित्यकार का "मूल स्वर" वह नहीं है, जो आप चाहते हैं और जिसके मन में बदलाव की उस प्रक्रिया के प्रति आश्वस्ति नहीं है जिसे आप ठीक समझते हैं, तो आप उस एक व्यक्ति पर इतनी ऊर्जा, अपना समय और श्रम, खर्च क्यों कर रहे हैं? जीवन इतना लंबा तो नहीं कि काम का (आश्वस्तिकर) साहित्य छोड़कर आप अज्ञेय के ('अनाश्वस्त') साहित्य (!) में उलझे रहें?
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