Thursday, March 8, 2012

भारत में नारीवाद की जमीन

भारत में नारीवाद की जमीन

Thursday, 08 March 2012 12:21

मेधा 
जनसत्ता 8 मार्च, 2012: अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस संसार भर की महिलाओं का दिन है। एक ऐसा दिन है जब वे भाषा-बोली, नस्ल-धर्म, सरहद-सीमा के साथ-साथ आर्थिक, राजनीतिक विभेदों को भुला कर एकजुट हो अपने पर गर्व करती हैं। महिलाओं के लिए यह दिन समानता, न्याय और शांति के लिए किए गए अपने संघर्षों को देखने का भी दिन है, भविष्य के स्वप्न के लिए नई ऊर्जा से ओतप्रोत होने का भी दिन। अधिकारों की संघर्ष-यात्रा साझी है, लेकिन यह साझापन स्थानीय विशेषताओं के साथ है। ऐतिहासिक परिस्थिति की अलग जमीन पर खडे होने के कारण भारतीय नारीवाद की प्रकृति पश्चिम के नारीवाद से भिन्न भी रही है। 
भारतीय संस्कृति-चेतना में स्त्री की उपस्थिति 'शक्ति' के रूप में भी रही है। धार्मिकता के आवरण में स्त्री की शक्तिशाली छवि पितृसत्तात्मक संस्कृति में भी घुसपैठ कर जाती है। इससे स्त्री को एक पारंपरिक सांस्कृतिक स्थान मिलता है। यहां आधुनिक यूरोप के बौद्धिक इतिहास पर एक नजर डालना उपयोगी रहेगा। 
असल में पश्चिम में 'स्व' की धारणा 'प्रतियोगी व्यक्तिवाद' से बद्धमूल रही है। रूसो ने कहा कि आदमी स्वतंत्र पैदा हुआ है, तब भी हर जगह बेड़ियों से जकड़ा हुआ है। थॉमस हाब्स ने मनुष्य को मूलत: स्वार्थी और बर्बर बताया। लॉक ने उसे स्वहितकामी बताया। जबकि भारत में दूसरे किस्म की दार्शनिक परंपराएं प्रभावी रहीं। यहां व्यक्ति बडेÞ सामाजिक समूह के एक हिस्से के रूप में प्रतिष्ठित हुआ और व्यक्ति के अस्तित्व के लिए सहकार को जरूरी माना गया। व्यक्तिगत हित को व्यापक हित की संगति और अनन्यता में सोचा गया। परिणाम यह हुआ कि निजता का संकुचन व्यक्तिवाद में नहीं हुआ। व्यक्ति का विस्तार अन्य इकाइयों में हुआ। 
आधुनिक पश्चिम में पितृसत्ता उद्योगवाद और पूंजीवाद के साथ अपने आधुनिक संस्करण में रूढ़ होती है और यहां प्रतियोगी व्यक्तिवाद का आत्मबोध विकसित होता है। भारत की न तो गति ऐसी रही है और न ही नियति। यहां पितृसत्ता अंग्रेजों द्वारा चलाई गई आधुनिकता की परियोजना और उसके बरक्स देशी समुदाय की राष्ट्रीयता की परियोजना के प्रभाव में अपना नवसंस्कार करती है। औपनिवेशिक आधुनिकता की परियोजना का प्रभाव अपनी जगह रहा; लेकिन आर्थिकी और राजनीति की मूलत: विकेंद्रित व्यवस्था की परंपरा ने यहां के 'निजताबोध' को सामुदायिक सहकार से विच्छेदित नहीं होने दिया। 
भारत की ऐतिहासिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विभिन्नता से जन्मी परिस्थितियों के चलते ही भारत में नारीवाद की प्रकृति और प्रवृत्ति पश्चिम के नारीवाद से अलहदा रही है। इन्हीं भिन्नताओं के कारण पश्चिमी देशों में महिलाओं को नागरिक अधिकारों के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा है। पश्चिमी देशों की महिलाएं समान काम के लिए समान वेतन, मताधिकार, मातृत्व-अवकाश जैसे मसलों पर मोर्चा खोल कर लंबे समय तक संघर्षरत रहीं; जबकि भारतीय महिलाओं को मताधिकार और अन्य नागरिक अधिकार स्वत: ही प्राप्त हो गए। 
औपनिवेशिक राज ने अपने शासन की नैतिक और वैधानिक अनिवार्यता को साबित करने के लिए भारत की संस्कृति को निकृष्ट और भारतीयों को असभ्य और बर्बर बताया। स्त्री-पुरुष संबंध को सभ्यतागत श्रेष्ठता का पैमाना बताते हुए अंग्रेज यही मानते और कहते रहे कि भारतीय समाज में स्त्री की दशा बहुत हीन होने के कारण भारत सभ्यता के निचले पायदान पर है। इसके बरक्स देशी समुदाय की चिंतन-धारा अपनी गौरवमयी परंपरा के पुनराख्यान के जरिए गौरवशाली राष्ट्र का दर्जा पाने की कोशिश थी। अतीत के पुनर्संधान के इसी प्रयास में स्त्री-प्रश्न ने प्रमुखता पाई। कहा जा सकता है कि इसी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के तहत भारतीय नारीवाद के बीज का प्रस्फुटन होता है। 
भारत में नारीवाद के इतिहास को तीन लहरों में बांटा जा सकता है। पहली लहर 1850 से 1915 तक, दूसरी लहर 1915 से 1947 तक, तीसरी लहर 1947 से आज तक। पहली लहर की शुरुआत उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में होती है, जब अंग्रेजों ने सती जैसी सामाजिक प्रथा की आलोचना की।
अंग्रेजों की औपनिवेशिक उपस्थिति ने भारतीय नारीवाद की प्रथम लहर के चरित्र को निर्धारित करने का काम किया। आधुनिकता की परियोजना के साथ ही भारत में लोकतंत्र, समानता और व्यक्ति-अधिकारों की अवधारणाएं आर्इं। राष्ट्रीयता की अवधारणा के उभार और जाति और लिंगाधारित विचारधारा के तहत किया जाने वाला भेदभाव समाज-सुधार का केंद्र बना। पहली लहर के नारीवाद की शुरुआत भारत में पुरुषों द्वारा की जाती है। बाद में इसमें स्त्रियां भी शामिल होती हैं। इसका मकसद सामाजिक बुराइयों को समाप्त करना था। इसमें सती प्रथा का उन्मूलन, विधवा विवाह, बाल विवाह पर रोक, नारी निरक्षरता समाप्त करने जैसे लक्ष्य शामिल थे। इसके अलावा संपत्ति के अधिकार आदि के लिए संघर्ष हुए और इस दौर में स्त्रियों की दशा को सुधारने वाले कई कानून बने। 
भारतीय नारीवाद की दूसरी लहर का दौर 1915 से लेकर 1947 तक माना जा सकता है, जब राष्ट्रीय आंदोलन ने महिलाओं को घर की चौहद््दी से निकाल कर सार्वजनिक सरोकारों से जोड़ा। इस दौर में औपनिवेशिक शासन के खिलाफ संघर्ष काफी तेज हो चुका था। एक राष्ट्र के रूप में अपनी श्रेष्ठता साबित कर सांस्कृतिक पुनरुत्थान किया जा रहा था। इसके फलस्वरूप भारतीय स्त्रीत्व को भी परिभाषित किया जा रहा था। 
यह स्त्री-छवि हिंदू धर्म के पाठों, विक्टोरियाई नैतिकता और मध्यवर्गीय आधुनिकता के घालमेल से बनी थी। खासतौर से अभी तक उसे सार्वजनिक जीवन   से दूर रखा गया था। लेकिन राजनीतिक फलक पर गांधी के पदार्पण ने भारतीय नारीवाद के चरित्र को भी प्रभावित किया। अहिंसक असहयोग आंदोलन में महिलाओं को शामिल कर गांधी ने उनकी गतिविधियों का विस्तार किया। त्याग, ममता, सहिष्णुता जैसे स्त्रैण कहे जाने वाले गुणों को अपने जीवन में अपना कर गांधी ने स्त्री-स्वभाव को सम्मान दिया और उन्हें श्रेष्ठ और सबल मूल्यों के रूप में स्थापित किया। 

यह वही दौर है, जब भारतीय नारीवाद के परिदृश्य पर स्वतंत्र महिला संगठन बने। आॅल इंडिया वूमेन कॉन्फ्रेंस और नेशनल फेडरेशन आॅफ इंडियन वूमेन का गठन इसी दौर में हुआ। अब भारत में नारीवाद का मुख्य सरोकार राजनीतिक भागीदारी, वोट का अधिकार आदि हो गए। 1920 का दशक भारतीय महिलाओं के लिए एक नया युग लेकर आया। इस युग का नारीवाद स्थानीय स्तर पर महिलाओं को नारीवादी सरोकारों से जोड़ने का दौर साबित हुआ। स्थानीय महिलाओं के जुड़ाव से महिला-शिक्षा, कामगार महिलाओं के लिए बेहतर जीविकोपार्जन, नीतियों के निर्माण पर जोड़ दिया गया। साथ ही राष्ट्रीय स्तर की संगठनात्मक गतिविधियां भी चलती रहीं। गांधीजी के नेतृत्व में आॅल इंडिया वूमेन कॉन्फ्रेंस भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ा। इस दौर के नारीवाद ने राष्ट्रवाद और उपनिवेशवाद विरोधी स्वाधीनता आंदोलन के भीतर काम किया। इसी वजह से व्यापक पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की खासियत बनी। 
आजादी के बाद के नारीवाद को तीसरी लहर के रूप में देखा जा सकता है। इसकी शुरुआत कार्य-स्थलों और राजनीतिक दलों के भीतर स्त्रियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की मांग के साथ हुई। स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की व्यापक भागीदारी ने उन्हें आजाद भारत में अपनी भूमिका और अधिकारों के लिए चेतनासंपन्न बनाया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय संविधान में महिला मताधिकार और महिला नागरिक अधिकार शामिल किए गए। संविधान में विधेयात्मक कदम, महिला और बाल कल्याण विधेयक, समान काम के लिए समान वेतन आदि का प्रावधान कर स्त्रियों की दशा में सुधार की व्यवस्था की गई। 
राज्य ने महिलाओं के लिए संरक्षक की भूमिका ली। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान में कहा गया है कि 'महिलाएं कमजोर वर्ग से आती हैं; इसलिए बराबरी के धरातल पर सक्रिय होने के लिए उन्हें सहयोग की जरूरत होगी।' इसीलिए पश्चिमी देशों की तरह यहां महिलाओं को बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। लेकिन जल्दी ही यूटोपिया समाप्त हो गया; जब बुनियादी अधिकार और लोकतंत्र की अवधारणा को सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधाराओं और संरचनाओं ने स्वीकार नहीं किया।
आजादी के बाद नारीवाद ने कार्यशक्ति के रूप में अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित किया। आजादी से पहले अधिकतर नारीवादियों ने श्रमशक्ति के क्षेत्र में लैंगिक विभाजन को तात्कालिक रूप से स्वीकार कर लिया था, उसे चुनौती देने की कोशिश नहीं की थी। उस दौर में स्वतंत्रता-प्राप्ति नारीवादियों का भी प्रमुख लक्ष्य था। नेहरू युग की समाप्ति और मोहभंग के दौर में नारीवादियों ने भी स्त्रियों की दशा पर पुनर्विचार शुरू किया। सातवें दशक में उन्होंने कार्यक्षेत्र में लैंगिक असमानता को चिह्नित किया और उसका प्रतिरोध किया। विरोध के एजेंडे में समान काम के लिए असमान वेतन का मसला तो था ही, महिलाओं की आर्थिक गतिविधियों को अकुशल कामों का दर्जा देने का मुद््दा भी शामिल था। महिलाओं के श्रम को कमतर मानने को नारीवादियों ने चुनौती दी।
बीसवीं सदी के सातवें दशक का दौर वही था जब भारतीय नारीवाद में वर्ग-चेतना का प्रवेश होता है और अब मसला केवल स्त्री-पुरुष के बीच की असमानताओं का नहीं रह जाता है; बल्कि जाति, नस्ल, भाषा, धर्म और वर्ग जैसी शक्ति-संरचना के कारण स्त्रियों की विशेष दशा पर भी ध्यान जाता है। इसीलिए यह दौर नारीवादियों के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। उन्हें अपने द्वारा की जा रही मांगों, बनाई जा रही नीतियों, चलाए जा रहे अभियानों को इस कदर सजाना-संवारना था कि एक महिला समूह के हित से किसी दूसरे महिला समूह के साथ असमानता न हो सके। 
आर्थिक उदारीकरण और नव औपनिवेशिकता के दौर ने भारतीय महिलाओं के समक्ष नई तरह का चुनौती पेश की है। अंधाधुंध तरीके से प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे का दौर चल रहा है। विस्थापन के कारण समुदायों का विघटन हो रहा है। इस सब की सबसे गहरी मार महिलाओं और बच्चों पर पड़ रही है। इसीलिए आज देश के बहुतेरे इलाकों में जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए महिलाएं संघर्षरत हैं। पर्यावरण और प्राकृतिक विरासत की रक्षा की एक धारा भारतीय नारीवाद को 'इकोफेमिनिज्म' से जोड़ती है। गौरा देवी और राधा भट्ट को इसी धारा की नारीवादी कहा जा सकता है। 
मेधा पाटकर, शर्मिला इरोम से लेकर शमीम मोदी, सी के जानू, उल्का महाजन और दयामनी बारला तक के संघर्ष नारी-अस्मिता के स्वर न होते हुए भी भारत में नारीवाद की प्रकृति पर एक टिप्पणी हैं। यहां पूरे समाज को बनाने और पूरी प्रकृति को बचाने के संघर्ष में नारीवाद के देशज संस्करण का पल्लवन होता है। नारीवाद के इस देशज संस्करण का धर्म औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रति सजग होने और उसके दबे-छिपे रंग-ढंग से पार पाने में है। देशज नारीवाद की समूह चेतना सजगता के क्षण-विशेष में नहीं, एक लंबी यात्रा में ही पाई जा सकती है।

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