Thursday, 08 March 2012 12:21 |
मेधा आजादी के बाद के नारीवाद को तीसरी लहर के रूप में देखा जा सकता है। इसकी शुरुआत कार्य-स्थलों और राजनीतिक दलों के भीतर स्त्रियों के साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की मांग के साथ हुई। स्वतंत्रता संग्राम में महिलाओं की व्यापक भागीदारी ने उन्हें आजाद भारत में अपनी भूमिका और अधिकारों के लिए चेतनासंपन्न बनाया। इसके परिणामस्वरूप भारतीय संविधान में महिला मताधिकार और महिला नागरिक अधिकार शामिल किए गए। संविधान में विधेयात्मक कदम, महिला और बाल कल्याण विधेयक, समान काम के लिए समान वेतन आदि का प्रावधान कर स्त्रियों की दशा में सुधार की व्यवस्था की गई। राज्य ने महिलाओं के लिए संरक्षक की भूमिका ली। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान में कहा गया है कि 'महिलाएं कमजोर वर्ग से आती हैं; इसलिए बराबरी के धरातल पर सक्रिय होने के लिए उन्हें सहयोग की जरूरत होगी।' इसीलिए पश्चिमी देशों की तरह यहां महिलाओं को बुनियादी अधिकारों के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा। लेकिन जल्दी ही यूटोपिया समाप्त हो गया; जब बुनियादी अधिकार और लोकतंत्र की अवधारणा को सामाजिक और सांस्कृतिक विचारधाराओं और संरचनाओं ने स्वीकार नहीं किया। आजादी के बाद नारीवाद ने कार्यशक्ति के रूप में अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित किया। आजादी से पहले अधिकतर नारीवादियों ने श्रमशक्ति के क्षेत्र में लैंगिक विभाजन को तात्कालिक रूप से स्वीकार कर लिया था, उसे चुनौती देने की कोशिश नहीं की थी। उस दौर में स्वतंत्रता-प्राप्ति नारीवादियों का भी प्रमुख लक्ष्य था। नेहरू युग की समाप्ति और मोहभंग के दौर में नारीवादियों ने भी स्त्रियों की दशा पर पुनर्विचार शुरू किया। सातवें दशक में उन्होंने कार्यक्षेत्र में लैंगिक असमानता को चिह्नित किया और उसका प्रतिरोध किया। विरोध के एजेंडे में समान काम के लिए असमान वेतन का मसला तो था ही, महिलाओं की आर्थिक गतिविधियों को अकुशल कामों का दर्जा देने का मुद््दा भी शामिल था। महिलाओं के श्रम को कमतर मानने को नारीवादियों ने चुनौती दी। बीसवीं सदी के सातवें दशक का दौर वही था जब भारतीय नारीवाद में वर्ग-चेतना का प्रवेश होता है और अब मसला केवल स्त्री-पुरुष के बीच की असमानताओं का नहीं रह जाता है; बल्कि जाति, नस्ल, भाषा, धर्म और वर्ग जैसी शक्ति-संरचना के कारण स्त्रियों की विशेष दशा पर भी ध्यान जाता है। इसीलिए यह दौर नारीवादियों के लिए चुनौतीपूर्ण रहा। उन्हें अपने द्वारा की जा रही मांगों, बनाई जा रही नीतियों, चलाए जा रहे अभियानों को इस कदर सजाना-संवारना था कि एक महिला समूह के हित से किसी दूसरे महिला समूह के साथ असमानता न हो सके। आर्थिक उदारीकरण और नव औपनिवेशिकता के दौर ने भारतीय महिलाओं के समक्ष नई तरह का चुनौती पेश की है। अंधाधुंध तरीके से प्राकृतिक संसाधनों पर कब्जे का दौर चल रहा है। विस्थापन के कारण समुदायों का विघटन हो रहा है। इस सब की सबसे गहरी मार महिलाओं और बच्चों पर पड़ रही है। इसीलिए आज देश के बहुतेरे इलाकों में जल, जंगल और जमीन की रक्षा के लिए महिलाएं संघर्षरत हैं। पर्यावरण और प्राकृतिक विरासत की रक्षा की एक धारा भारतीय नारीवाद को 'इकोफेमिनिज्म' से जोड़ती है। गौरा देवी और राधा भट्ट को इसी धारा की नारीवादी कहा जा सकता है। मेधा पाटकर, शर्मिला इरोम से लेकर शमीम मोदी, सी के जानू, उल्का महाजन और दयामनी बारला तक के संघर्ष नारी-अस्मिता के स्वर न होते हुए भी भारत में नारीवाद की प्रकृति पर एक टिप्पणी हैं। यहां पूरे समाज को बनाने और पूरी प्रकृति को बचाने के संघर्ष में नारीवाद के देशज संस्करण का पल्लवन होता है। नारीवाद के इस देशज संस्करण का धर्म औपनिवेशिक आधुनिकता के प्रति सजग होने और उसके दबे-छिपे रंग-ढंग से पार पाने में है। देशज नारीवाद की समूह चेतना सजगता के क्षण-विशेष में नहीं, एक लंबी यात्रा में ही पाई जा सकती है। |
Thursday, March 8, 2012
भारत में नारीवाद की जमीन
भारत में नारीवाद की जमीन
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