Monday, 05 March 2012 10:48 |
कुमार सुंदरम दरअसल, कुडनकुलम आंदोलन पूरी तरह पारदर्शी और अहिंसक है और सरकार उसे किसी तरह घेर नहीं पा रही है। ऐसी ही कोशिशों में कुडनकुलम में एनजीओ और चर्च की भूमिका पर भी सवाल उठाए गए, लेकिन इनसे आंदोलन न कभी संचालित होता था न इस सबसे कमजोर हुआ। कुडनकुलम के मछुआरे संयोगवश ज्यादातर ईसाई हैं और जब एक पूरा इलाका आंदोलनरत होगा तो उस आबादी का हिस्सा रही सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं भी उसमें स्वत: शामिल हो जाती हैं। लेकिन इसकी आड़ में आंदोलन को चर्च और विदेश से संचालित बताना असली मुद्दों से कन्नी काटना है। कुडनकुलम के लोग सरकार से कोई मदद पाने के लिए नहीं लड़ रहे, बल्कि सिर्फ इतना कह रहे हैं कि वे खुश हैं और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाय। ऐसे में, आंदोलन का कोई कमजोर सिरा सरकार की पकड़ में नहीं आ रहा है। इस मायने में परमाणु-विरोधी आंदोलन बिल्कुल अलग है कि इसने विकास की मौजूदा तर्कपद्धति पर सबसे तीखा हमला किया है और जहां मजदूर आंदोलन ताकतवर होने के बावजूद मौजूदा व्यवस्था की भाषा में ही बात करता है और अपने लिए अधिकारों की मांग करता है, इस आंदोलन का तार्किक धरातल बिल्कुल स्वायत्त है। यह आवाज उस जगह से आ रही है जिसे हम विकास की होड़ में कहीं पीछे छोड़ आए हैं, जहां हमारा भविष्य भी जुड़ा हुआ है अगर हमें एक कौम के बतौर जिंदा रहना है। सरकार कुडनकुलम मामले में पूरी तरहइकतरफा और अलोकतांत्रिक रही है। दो दशक से निर्माणाधीन इस परियोजना को लेकर स्वतंत्र विशेषज्ञों ने शुरू से सवाल उठाए हैं। 1989 में ही पर्यावरणीय जांच के बिना परियोजना शुरू करने पर लोग हजारों की संख्या में कन्याकुमारी में गोलबंद हुए थे, जिन पर गोलियां भी चली थीं। आंदोलन के हालिया दौर में भी, सरकार ने एक तरफ तो लोगों से बातचीत के लिए एक विशेषज्ञ टीम बनाई लेकिन दूसरी तरफ आंदोलन के नेताओं पर देशद्रोह जैसे संगीन और झूठे मुकदमे थोपना जारी रखा। वार्ता के आखिरी दौर में जब आंदोलन के प्रतिनिधि (जिनमें महिलाएं भी थीं) सरकारी विशषज्ञों से बातचीत करने जा रहे थे, तो उन पर कांग्रेसी और भगवा गुंडों ने हमला कर दिया। सरकार के साथ इस बातचीत के लिए आंदोलन के लोगों ने परमाणु, पर्यावरण और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों से जुडेÞ बीस से ज्यादा स्वतंत्र विशेषज्ञों की एक टीम बनाई थी और यह मांग की थी कि आंदोलन की तरफ से उन्हें तर्क रखने का मौका दिया जाए। लेकिन सरकार ने एक तरफ तो यह मांग नहीं मानी और फिर जब लोगों ने यह कहा कि संयंत्र की सुरक्षा, स्वास्थ्य और पर्यावरणीय प्रभावों आदि से जुड़ी जानकारी और दस्तावेज उन्हें उपलब्ध कराए जाएं जिससे आंदोलनरत लोग तैयारी के साथ बहस कर सकें, तो सरकार ने साफ मना कर दिया। इसके बाद अपनी मनचाही समिति की रिपोर्ट, जिसमें सभी महत्त्वपूर्ण सवालों से किनारा कर लिया गया है, को केंद्र सरकार आम-सहमति के दस्तावेज के रूप में दिखाती फिर रही है! दिसंबर के अपने रूस दौरे में प्रधानमंत्री ने यहां तक कहा कि सरकार ने लोगों को बातचीत में जरूरत से ज्यादा जगह दे दी है और जल्दी ही रिएक्टर चालू कर दिया जाएगा। इसके बावजूद जमीनी आंदोलन लगातार तेज हुआ है और एक पूरा समुदाय अपने अस्तित्व के लिए आखिरी लड़ाई लड़ रहा है। कुछ हफ्तों में तमिलनाडु में जान-बूझ कर बिजली की ज्यादा कटौती की जा रही है और मीडिया में इसकी जिम्मेवारी अणु-विरोधी आंदोलन पर थोप कर उसे बदनाम किया जा रहा है। जबकि सचाई यह है कि कुडनकुलम में अगर दोनों रिएक्टर चालू हो जाएं तब भी तमिलनाडु के हिस्से सिर्फ चार सौ मेगावाट तक बिजली आएगी, जबकि इसी राज्य में अगर सारे मौजूदा बल्ब सीएफएल से बदल दिए जाएं तो साढ़े पांच सौ मेगावाट बिजली बचाई जा सकती है और अगर पूरी सबसिडी दी जाए तब भी इसका खर्च परमाणु रिएक्टर से बहुत कम बैठता है। |
Monday, March 5, 2012
किसका है यह विदेशी हाथ
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/13397-2012-03-05-05-19-12
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