Saturday, March 10, 2012

पान सिंह तोमर वंचितों और पीड़ितों की कविता है!

पान सिंह तोमर वंचितों और पीड़ितों की कविता है!



 आमुखसिनेमा

पान सिंह तोमर वंचितों और पीड़ितों की कविता है!

9 MARCH 2012 4 COMMENTS

♦ रामकुमार सिंह

वीडियो सौजन्‍य : फाइट क्‍लब—-

पान सिंह तोमर के शुरुआती दृश्य में एक पत्रकार को दिखाया गया है, जो बागी (डकैत नहीं, क्योंकि बकौल पान सिंह बीहड़ में बागी होते हैं, डकैत तो पार्लियामेंट में होते हैं) पान सिंह से बात कर रहा है। खुद कुर्सी पर बैठा पान सिंह उसे नीचे बैठने का इशारा करता है। वह दीवार का सहारा लेकर बैठता है। एक पत्रकार को इस तरह दिखाये जाने के कारण मुझे शायद खीझ होनी चाहिए लेकिन पता नहीं क्यों, बुरा नहीं लगा। कई बार जख्मी जगह को बार-बार छूकर देखना भी अच्छा लगता है। पानसिंह और पत्रकार का इंटरव्यू शुरू होता है। परतें खुलनी शुरू होती हैं। आप सिनेमा में डूबना शुरू होते हैं।

पान सिंह तोमर सेना में भर्ती हुए और एक दिन स्टीपलचेज दौड़ में राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी बने। लेकिन जब अपने गांव लौटे, तो उनकी जमीन पर चचेरे भाई ने कब्जा कर लिया था। अनुशासित सैनिक होने के नाते पान सिंह नियम-कायदों से चक्कर लगाते रहे। उस इलाके का गैर जिम्मेदार और गैर-जरूरी सा सारा प्रशासन उन्हें टरकाता रहा। अंतत: पान सिंह बागी बने। अब सब लोग पान सिंह को ढूंढ़ रहे हैं। पान सिंह की यह पीड़ा भी है कि जब देश के लिए मैडल लाये तो कोई नहीं पूछता था लेकिन बागी बने हैं, तो सब नाम ले रहे हैं।

दरअसल फिल्म पान सिंह तोमर तीन स्तर पर ताकतवर है। एक तो सच्ची घटना पर आधारित होना उसे बेहद विश्वसनीय बना देता है। दूसरा, वह बहुत खूबसूरती से लिखी गयी है, जिसके लिए संजय चौहान और तिग्मांशु धूलिया जितनी तारीफ की जाए, कम है। तीसरे, इरफान की मौजूदगी उसे संपूर्ण सिनेमाई अनुभव बनाती है, जो हर हाल में देखी जानी चाहिए।

पान सिंह तोमर सच्ची घटनाओं से लेकर बुना गया जिंदगी का एक रूपक है, जिसे देखते हुए आपका मनोरंजन भी होता है, उसके भीतर एक तंज लगातार चलता है, एक महान त्रासदी भी हम समांतर देखते हैं, जो बागियों के अपराध को महिमामंडित करने से ज्यादा उन सारे चेहरों को रेखांकित करती है, जो इन बागियों को पैदा करते हैं। पान सिंह ने तय कर लिया है कि बागी होना है और बेटा हनुमंता फौज की नौकरी में जाने से मना करता है, तो वह चिल्लाता है। पूरी फिल्म में इरफान का कोई दूसरा संवाद इतना लाउड नहीं है। यह अपने आप में संकेत है कि किसी भी नयी पीढ़ी के लिए बागी होना कोई समाधान नहीं है। समाधान यह भी नहीं है कि वह उस पुलिस वाले इंस्‍पेक्टर को मार दे जिसने उसकी एफआईआर तक दर्ज करने से मना किया था और उसका जीता हुआ मैडल फेंक दिया था। आप उस इंसपेक्टर से इतनी नफरत कर रहे होते हैं और इच्छा होती है कि पर्दे पर उसे मार दिया जाए लेकिन पान सिंह उसे सिर्फ इतना कहते हैं कि वर्दी के सामने झुक कर माफी मांग कि तू इसके लायक नहीं है। इसके बाद कच्छे में भागते हुए वह अपनी जान बचाने का जश्न मना सकता है लेकिन असल में वह मरा हुआ ही है। एक मरा हुआ लोथड़ा पर्दे पर भाग रहा है।

पान सिंह का नायकत्व इस तरह के ग्रे शेड वाले सारे नायकों से ऊपर है। वह एक जिम्मेदार पिता, जिम्मेदार भाई, चाचा, एक अनुशासित सिपाही अपनी टोली के लोगों के लिए समर्पित लीडर। उसके भीतर एक खालीपन है। उसके भीतर एक आग है। उस आग को बुझाने के बाहरी जतन करता है। वह गुलाबजामुन में आइस्क्रीम मिलाकर खाने के स्वाद को नहीं भूला है। वह विदेश का हवाला देता है और जब उसे पता चलता है, इतने बरसों बाद अब ग्वालियर में भी वैसी ही आइस्क्रीम मिलने लग गयी है, तो यह संकेत मात्र है कि समय किस तरह बदल गया है। कर्नल के घर चार मिनट में बिना पिघले आइस्क्रीम पहुंचाने वाले पान सिंह की जिंदगी की आइस्क्रीम इस पूरी यात्रा में पिघल गयी है लेकिन वह तब भी फिनिश लाइन तक पहुंचना चाहता है। वह जानता है कि इन लोगों से जीतना उसके लिए नामुमकिन है, तो भी वह अपना सफर नहीं छोड़ता। वह अपने पुराने कोच के घर से ड्राइ फ्रूट्स उठाकर अपनी जेबों में भर लेता है और उसे चंबल किनारे इंतजार कर रहे अपने परिवार में बांट देता है। यह वंचितों और पीड़ितों की कविता है। यह उन सब लोगों के पक्ष में फिल्म है, जो न्याय के लिए लड़ते हैं। जिन्हें पता है कि वे जब तक लड़ेंगे नहीं, तब तक सत्ता उन्हें न्याय नहीं देगी।

जिस चचेरे भाई की वजह से वह बागी बना है, जब वही उसके सामने गिड़गिड़ा रहा है और कह रहा है कि पान सिंह तू मेरा भगवान है तो पान सिंह कहता है, क्या करोगे उस जमीन का अब, जो तुमने दबायी थी।

नये फिल्मकारों की जमात में तिग्‍मांशु एक संवदेनशील फिल्मकार हैं। संजय चौहान तो बेहतरीन लेखक हैं ही। हम उन्हें आइ एम कलाम, साहब बीवी और गैंगस्टर समेत दूसरी कई महत्‍वपूर्ण फिल्मों के लिए जानते हैं। फिल्म के संवाद और पटकथा इसे बिना चूके देखने के लायक बनाते हैं। इरफान के साथ तिग्‍मांशु की अंडरस्‍टैंडिंग इस फिल्म को एक ऊंचाई तक ले जाती है।

और हां, इरफान को भी यह फिल्म नायकत्व की उस श्रेणी में ले जाती है, जिसके नाम से भारतीय बॉक्स आफिस पर टिकट बिके। मुमकिन है यह मेरा और मेरे शहर के दर्शकों का जयपुर प्रेम हो लेकिन कैमरा पैन होते हुए पैरों से ऊपर उठ कर धीरे धीरे एक ओट से जब इरफान की पहली झलक दिखाता है, तो थियेटर में सीटियां बजती हैं। यह गैर परंपरागत नायक है। इसके अपने दर्शक हैं और पर्दे पर पहली झलक हीरो की आये और दर्शक सीटी बजाये तो समझिए, इस हीरो में बॉक्स ऑफिस वाली बात है। आरती बजाज के संपादन, अभिषेक रे के संगीत और साथी कलाकारों के अभिनय समेत सिनेमा के जरूरी साजो सामान, सब हैं। आप देखेंगे तो आपको अच्छा लगेगा।

(रामकुमार सिंह। युवा पत्रकार। फिल्‍म समीक्षक। राजस्‍थान पत्रिका, जयपुर से लंबे समय से जुड़े हैं। पटकथा और कहानियां भी लिखते हैं। उनसे indiark@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता हैं।)

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