Sunday, 18 March 2012 11:51 |
अनिल चमड़िया अनिल कुमार मीणा बाहरवीं की बोर्ड की परीक्षा में पचहत्तर प्रतिशत अंक लाया था और वह एम्स में दाखिले की अखिल भारतीय परीक्षा में भी आदिवासी श्रेणी में सबसे ऊपर दूसरे नंबर पर था। लेकिन वह अंग्रेजी भाषा सुन कर समझ लेने की क्षमता विकसित नहीं कर पाया था। महज विशेष कक्षाओं से किसी भाषा को अपने सोचने-विचारने के माध्यम के रूप में विकसित किया जा सकता है? विश्वविद्यालयों में केवल भाषाई उत्पीड़न की घटनाओं का एक लेखा-जोखा तैयार किया जाए तो शर्मसार कर देने वाले तथ्य सामने आएंगे। दर्जनों ऐसे होनहार विद्यार्थी हैं जो अंग्रेजी सुन कर नहीं समझ पाने और अंग्रेजी में अपने अर्जित ज्ञान को व्यक्त नहीं कर पाने के कारण संस्थान से बाहर हो रहे हैं। उनमें बड़ी तादाद सामाजिक तौर पर पिछड़ी पृष्ठभूमि वालों की है। भाषा का प्रश्न इस पृष्ठभूमि के साथ स्वाभाविक रूप से जुड़ा हुआ है। मजे की बात तो यह है कि इस देश में उच्च शिक्षा में अंग्रेजी की अनिवार्यता कानूनी नहीं है, लेकिन वह अनिवार्य की तरह लागू है और उसी के पक्ष में वातावरण बना हुआ है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी 2006 के बाद दाखिले में आरक्षण को लागू तो किया गया, लेकिन ऐसे विद्यार्थियों को विफल और अयोग्य ठहराने के लिए अंग्रेजी का बोझ लदा दिखता है। जबकि यह व्यवस्था है कि पढ़ने, सीखने के लिए अपनी भाषाओं में अनुवाद करा कर दूसरी भाषाओं की पुस्तकें मुहैया कराई जाएं। बड़ी आसानी से यह कह दिया जाता है कि जो विद्यार्थी अंग्रेजी में कमजोर हैं उनके लिए अंग्रेजी सिखाने की अलग से व्यवस्था की जानी चाहिए। लेकिन उस व्यवस्था पर जैसे कोई बात करना नहीं चाहता है कि विद्यार्थियों को उनकी भाषा में किताबें उपलब्ध कराई जाएं जिस भाषा में उसके पास अपने विषय की समझ है। अंग्रेजी पर ही जोर देने वाले लोग और संस्थाएं उत्पीड़न को कम करने में मददगार नहीं हो सकते। जिस तरह से बहुतों की अंतर्चेतना में दलितों के खिलाफ पूर्वग्रह सक्रिय रहते हैं उसी तरह से ऐसी समझ वालों की अंतर्चेतना पूंजीवादी सोच की होती है। इनमें थोराट समिति के अध्यक्ष भी शामिल हैं। उन्होंने भी यह कहा कि अंग्रेजी की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए, लेकिन यह कहना ज्यादा मुनासिब होता कि अंग्रेजी की किताबों का भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया जाता और भारतीय भाषाओं में मेडिकल शोध को बढ़ावा दिया जाता। यह सुझाव एक उत्साह और भरोसे का संचार करता। किसी भी विषय की भाषा का रिश्ता केवल पढ़ने-पढ़ाने वालों से नहीं जुड़ा रहता है, पूरे समाज से उस विषय का रिश्ता होता है। चिकित्सा विज्ञान, कानून, अर्थशास्त्र के तंत्र से पूरा समाज ठगा जाता है तो इसकी एक वजह इन विषयों को अंग्रेजी तक सीमित रखना है। इसका लाभ जो वर्ग उठाता है, उसका जोर हमेशा अंग्रेजी के ज्ञान पर होता है, क्योंकि इससे मुट्ठी भर लोगों को ही तंत्र में समायोजित करने की तकलीफ उठानी पड़ती है। इस तर्क से तो अर्थशास्त्र, वाणिज्य, विज्ञान, समाजशास्त्र सभी विषयों के विद्यार्थियों के लिए अंग्रेजी की विशेष कक्षाएं शुरू की जानी चाहिए। उससे तो आम लोगों के पैसे पर अंग्रेजी का बड़ा ढांचा खड़ा करने की योजना को ही कामयाब किया जा सकता है। |
Sunday, March 18, 2012
उत्पीड़न का हथियार
उत्पीड़न का हथियार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment