Tuesday, March 20, 2012

राष्‍ट्रीयता के लिए हमेशा खतरा रहेगा रा. स्‍वयं सेवक संघ

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राष्‍ट्रीयता के लिए हमेशा खतरा रहेगा रा. स्‍वयं सेवक संघ

20 MARCH 2012 7 COMMENTS

♦ सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन अज्ञेय

अज्ञेय के बारे में तथ्‍यों के साथ लगातार की समझाईश के बाद भी प्रगतिशीलों का एक संकीर्ण तबका उन्‍हें यथास्थितिवाद का समर्थक और हिंदू हितकारी बताने, प्रचारित करने से चूक नहीं रहा। इमर्जेंसी के दौरान इंदिरा की तानाशाही के खिलाफ अज्ञेय की प्रतिबद्धता जगजाहिर है। जनक जानकी यात्रा के बारे में भी खुद अज्ञेय बता चुके थे कि यह स्त्रियों की सामाजिक हालात को समझते हुए और प्रतिरोध में निकाली गयी एक सांस्‍कृतिक यात्रा थी, उसका मर्यादा पुरुषोत्तम राम और हिंदू धर्म से दूर-दूर तक भी वास्‍ता न था। बल्कि अज्ञेय के समय में उनकी वैचारिक उपेक्षा करने वाले धीरे-धीरे अब समझदार हो रहे हैं, फिर भी कुछ लोग चाहते हैं कि अज्ञेय को न समझा जाए। उनको समझ लेने से एक भरे-पूरे-खिले हुए दौर का षड्यंत्र सामने आ सकता है। बहरहाल, जिन पंकज विष्‍ट ने, जन्‍मशती के आरंभ में अपनी पत्रिका समयांतर में लिख कर अज्ञेय से जुड़े किसी समारोह में रचनाकारों से न शामिल होने की अपील की थी, वही पंकज विष्‍ट पिछले दिनों अज्ञेय पर कोलकाता में हुए आयोजन में भाग लेने के लिए हवाई जहाज गये, लौटे। पंकज विष्‍ट जैसे लोग अज्ञेय को जो भी समझें, अज्ञेय का लिखा बयान करता है कि वे क्‍या थे। अभी कुछ महीने पहले ही प्रगतिशील चेतना की हिंदी मासिक पत्रिका हंस ने अज्ञेय का एक संपादकीय प्रकाशित किया, जो उन्‍होंने दिनमान के आठ दिसंबर 1968 के अंक में लिखा था। इस संपादकीय में उन्‍होंने हिंदू धर्म और आरएसएस के बारे में अपनी राय जाहिर की है। काश कि उन दिनों किसी भी प्रगतिशील कम्‍युनिस्‍ट का आरएसएस के खिलाफ कोई लेख हमारी पीढ़ी के साथ साझा करता!

अविनाश, मॉडरेटर

ध्यावधि चुनाव ज्यों-ज्यों निकटतर आते जा रहे हैं और राजनीतिक दलों की सरगर्मियां बढ़ रही हैं, त्यों-त्यों एक और प्रवृत्ति भी अधिक साफ उभर कर आ रही है, जिससे लगता है कि आजादी के बीस बरस या आधुनिक राजनीतिक आंदोलन ने सौ बरस में तो क्या, हमने हजार बरस के इतिहास में भी बहुत कम सीखा है : या सीखा है तो केवल नया तंत्रकौशल – पुरानी मनोवृत्तियों की पुष्टि के लिए। कोई भी चुनाव सांप्रदायिक अथवा जातिगत चिंतन से मुक्त नहीं रहा है, प्रत्येक में ऐसे फिरकेवाराना स्वार्थों को उभार कर या उनकी दुहाई देकर वोट पाने का प्रयत्न किया गया है। फिर भी राजनीतिक लक्ष्यों के प्रति लगाव भी रहा है – जो प्रत्येक चुनाव में कमतर होता गया जान पड़ता है।

'दिनमान' एक समतावादी, स्वाधीन लोकतंत्र भारत के आदर्श के प्रति समर्पित है और मानता है कि यह एक लौकिक राजनीतिक आदर्श है, जिसके लिए लौकिक राजनीतिक साधन ही काम में लाये जाने चाहिए। केवल इसलिए नहीं कि वही नैतिक हैं, इसलिए भी कि वही इस लक्ष्य को पूरे और स्‍थायी ढंग से प्राप्त कर सकते हैं : और सब में धोखा है और अगर किसी में जल्दी सफलता की मरीचिका दीखती है तो वह अधिक खतरनाक है, अपनी ओट में अधिक भयावह संभावनाएं लिये हुए है।

इनमें वह प्रवृत्ति प्रधान है, जो धर्ममन की दुहाई देकर संकीर्णता और वैमनस्य को उभारती है। फरीदी साहब की मुस्लिम मजलिस भी यह करती है और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी; और इससे बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ता कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेता कुछ ऐसी बातें भी कहते हैं कि जो अधिक आदर्शोन्मुख जान पड़ती हैं, या कि उनका संगठन अधिक व्यापक और अनुशासित है। दोनों संगठन, जैसा कि अन्य संगठन, अपने को 'शुद्ध सांस्कृतिक कार्य' में लगे बताते हैं; स्वयं इस बात की अनदेखी करते हुए (और दूसरों को कदाचित इतना बुद्धू समझते हुए?) कि यह पिछले विश्वयुद्ध से ही साबित हो चुका है कि संस्कृति को राजनीति का एक कारगर हथियार बनाया जा सकता है और आज संसार की सभी बड़ी शक्तियां ठीक इसी काम में लगी हैं – और कोई भी किसी अच्छे उद्देश्य से नहीं, अगर खालिस सत्ता की दौड़ ही 'अच्छा उद्देश्य' नहीं है! संस्कृति का नाम लेकर लोगों को अधिक आसानी से भड़काया और बरगलाया जा सकता है, तो ऐसा 'सांस्कृतिक' कार्य स्पष्ट आत्मस्वीकारी 'राजनीतिक' कार्य से अधिक खतरनाक ही होता है। फरीदी साहब ने कहीं यह भी कहा कि उनका संगठन 'अल्पसंख्यकों' की सांस्कृतिक उन्नति का काम करता है, और यह भी कि अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी सरगर्मियां बंद कर दे तो वह भी अपना काम बंद कर देंगे। क्यों? क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निष्क्रिय हो जाने से अल्पसंख्यकों को भी 'संस्कृति' की आवश्यकता न रहेगी?

मुस्लिम मजलिस की कार्रवाइयों और मनोवृत्ति की हम भर्त्सना करते हैं। बिना किसी लाग-लपेट के हम उसे संकीर्ण, समाजविरोधी और राष्ट्रीयता के विकास में बाधक मानते हैं। उसकी कार्रवाई बंद करने की बात के साथ कोई शर्त्त हो, यह हम ठीक नहीं समझते क्योंकि वह काम हर अवस्था में गलत है।

और क्योंकि हम ऐसा कहते हैं, इसलिए हम यह भी मानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अनुशासन के मूल में भी वही दूषित, संकीर्ण और कठमुल्लई मनोवृत्ति है, और वह भी एक लौकिक भारतीय समाज के और खरी राष्ट्रीयता के विकास में उतनी ही बाधक होगी – बल्कि इसलिए कुछ अधिक ही कि वह बहुसंख्यक वर्ग का संगठन है।

'दिनमान' के पिछले अंकों में मत-सम्मत के अंतर्गत इस संबंध में कई पत्र छपे हैं, इस अंक में भी। स्वाभाविक है कि कुछ लोग हमसे सहमत हों, कुछ चिंतित या प्रश्नाकुल हों; पर पूर्वग्रहों में दो-एक का खंडन हम आवश्यक मानते हैं। 'दिनमान' के (और कई पत्रों में उसके वर्त्तमान संपादक के) बारे में कहा गया है (या प्रश्न उठाया गया है) कि वह हिंदू-द्वेषी है। दोनों ही की ओर से इस बात का खंडन आवश्यक है। इन पंक्तियों के लेखक को अपने को हिंदू मानने में न केवल संकोच है, वरन वह इस पर गर्व भी करता है; क्योंकि इस नाते वह मानव की श्रेष्ठ उपलब्धियों के एक विशाल पुंज का उत्तराधिकारी होता है। उस संपत्ति को वह खोना, बिखरने या नष्ट होने देना, या उसका प्रत्याख्यान करना नहीं चाहता। इसके बावजूद वह – और वैसा ही सोचने वाले अनेक प्रबुद्धचेता हिंदू – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सरगर्मियों को अहितकर मानते हैं तो इसलिए नहीं कि वे हिंदू-द्वेषी या हिंदू धर्म द्वेषी हैं, वरन इसीलिए कि वे हिंदू हैं और बने रहना चाहते हैं। संघ का ऐब यह नहीं है कि वह 'हिंदू' है; ऐब यह है कि वह हिंदुत्व को संकीर्ण और द्वेषमूलक रूप देकर उसका अहित करता है, उसके हजारों वर्ष के अर्जन को स्खलित करता है, सार्वभौम सत्यों को तोड़-मरोड़ कर देशज या प्रदेशज रूप देना चाहता है यानी झूठा कर देना चाहता है।

जिस दाय की बात हम कर रहे हैं, वास्तव में 'हिंदू' नाम उसके लिए छोटा पड़ता है : वह नाम न उतना पुराना है, न उतना व्यापक अर्थ रखने वाला, न उसके द्वारा स्वयं चुना हुआ। यह उत्तर मध्यकाल की, और इस्लाम से साक्षात्कार की देन है। इसके बोध से ही आर्य समाज में यह भावना प्रकट हुई थी कि अपने को हिंदू न कह कर 'आर्य' कहें : 'हिंदू' धर्म 'आर्यधर्म' की एक परवर्त्ती शाखा-भर थी। जो हो नाम एक बिल्ला-भर है और जिस वस्तु को चाहे जिसने, चाहे जब नाम दिया, महत्त्व वस्तु का ही है। और उसके बारे में इस आधार पर भेद करना कि कौन 'इसी मिट्टी में' उपजी, कौन बाहर से आयी, गलत है। हिंदू या आर्यधर्म की मूल संपत्ति का – ऋग्वेद का – एक महत्त्वपूर्ण अंश ऐसे प्रदेश की देन है जो न अब भारत का अंग है, न अतीत में समूचा कभी रहा। किसी के मन में यह भ्रांत कल्पना हो भी सकती है कि पाकिस्तान आखिर भारत ही है और फिर उसमें आ मिलेगा : पर महाभारत के या गुप्तों के समय का गांधार जो आज अफगानिस्तान है, क्या उसे भी भारत में मिलाने का कोई स्वप्न देखता है? या ईरान के भाग को? अगर हां, तो उसकी बुद्धि को क्या कहा जाए? अगर नहीं, तो इस 'देशज धर्म' वाले तर्क का क्या अर्थ रह जाता है? वेदों के अधिभाग को हम इसलिए अमान्य कर दें कि वह उस भूमि पर नहीं बना, जो भारत है? क्यों? क्या सत्य इसीलिए अग्राह्य होगा कि वह अमुक मिट्टी का नहीं है? तब सार्वभौम सत्य क्या होता है? और समूचे आधुनिक ज्ञान-विज्ञान का हम क्या करेंगे? कि सब अग्राह्य है क्योंकि इस मिट्टी की उपज नहीं है?

और फिर उसका हम (और दूसरे) क्या करेंगे जो यहां पैदा हुआ और अन्यत्र गया? क्या हम इसका समर्थन करेंगे कि श्रीलंका, बर्मा, तिब्बत, नेपाल, लाओस, कंबोदिया आदि बौद्ध धर्म को खदेड़ कर भारत भेज दें क्योंकि वह उन देशों की उपज नहीं है? शायद हम कहेंगे कि सिंहली या भोट बौद्ध धर्म अलग है, इसका स्वतंत्र विकास हुआ है। पर एक तो मूल वही रहेगा, दूसरे क्या इस्लाम का स्वतंत्र विकास भारत में नहीं हुआ? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान, अरब या ईरानी मुसलमान से उतना ही भिन्न नहीं है जितना सिंहली बौद्ध हिंदुस्तानी बौद्ध से?

नहीं, ऐसी 'देशज' अंधता को हम राष्ट्रीयता नहीं मान सकते; न हम हिंदुत्व पर इस नाते गर्व करते हैं कि वह इस मिट्टी की देन है, बल्कि मिट्टी पर इसलिए गर्व कर सकते हैं कि उसमें ऐसे सत्य उपजे जो सार्वभौम हैं। एक हिंदू धर्म ने ही धर्म-विश्वासों और धर्ममतों से ऊपर आचरित धर्म को; ऋत के अर्थात सार्वभौम सत्य के अनुकूल आचरण को महत्त्व दिया। अन्य धर्मों के उदारतर पक्ष अब उस आदर्श की ओर बढ़ रहे हैं और उसी में मानव मात्र के भविष्य की उज्ज्वल संभावनाएं हैं : नहीं तो 'अंधेन नीयमाना अंधा:' के लिए उपनिषद् कह गया है:

असुर्या नाम ते लोक अंधेन तमसावृता:।
तांस्ते प्रेत्यभिगच्छंति ये के चात्महनो जना:।।


ऐसे आत्महंताओं की संख्या हम न बढ़ावें : चुनाव जीतने के लिए भी नहीं।

(सच्चिदानंद हीरानंद वात्‍स्‍यायन अज्ञेय। 7 मार्च 1911 – 4 अप्रैल 1987 … शेखर एक जीवनी जैसी रचना के उपन्‍यासकार। कितनी नावों में कितनी बार जैसे कविता संग्रह के कवि। तार सप्‍तक, दूसरा सप्‍तक, तीसरा सप्‍तक जैसे युगांतकारी काव्‍य संकलनों और दिनमान जैसी ऐतिहासिक पत्रिका के संपादक। साहित्‍य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्‍कार से सम्‍मानित विलक्षण रचनाकार।)

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