Saturday, 17 March 2012 11:59 |
आनंद प्रधान मगर निजी क्षेत्र विभिन्न कारणों से निवेश बढ़ाने में हिचकिचा रहा है तो यह जिम्मेदारी सरकार को उठानी होगी। यह देखा गया है कि जब निजी निवेश में ठहराव या गतिरोध हो तो सार्वजनिक निवेश में वृद्धि से निजी निवेश भी उत्साहित होता है। मगर वित्तमंत्री का रोना है कि सरकार के पास संसाधन नहीं हैं और वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। यह आधा सच है। सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बशर्ते वह नव उदारवादी अर्थनीति के दबावों और वित्तीय घाटे के हौवे से बाहर निकल सके। तथ्य यह है कि केंद्र सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय दो लाख करोड़ रुपए से अधिक का नगद और बैंक-जमा पड़ा हुआ है। सरकार अगर इन कंपनियों को प्रेरित करे तो वे निवेश बढ़ा सकती हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वित्तमंत्री बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और विश्व बैंक-अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को खुश करने के लिए निवेश के बजाय विनिवेश की बात कर रहे हैं। उन्होंने पिछले वर्ष के बजट में विनिवेश से चालीस हजार करोड़ रुपए जुगाड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया था। हालांकि सरकार किसी तरह इस लक्ष्य का तीस फीसद ही जुगाड़ पाई है। इसके बावजूद एक बार फिर बजट में टोटके की तरह विनिवेश से तीस हजार करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया है। साफ है कि नव उदारवादी सुधारों से मोहग्रस्त यूपीए सरकार सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है। इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है। इसके लिए तर्क यह रहता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी कारोबार को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है। इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है। यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशक में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है। मगर मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे से रूबरू है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है। असल में, इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए। इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी, जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी। लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है, जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए। यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है। अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ दिखाई पड़ रही है। यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कंपनियों के पास इस समय 205255 करोड़ रुपए का नगद और बैंक-जमा है। लेकिन ये कंपनियां इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं। उलटे सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है। अगर इन कंपनियों को निवेश खासकर बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाए तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने बजट में यह मौका गंवा दिया। इसकी कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है। यही नहीं, इससे महंगाई की आग और भी भड़क सकती है। अगर ऐसा हुआ तो वे वित्तीय घाटे को भी काबू करने में नाकाम रहेंगे, क्योंकि वे सरकार की आय में गिरावट को नहीं रोक पाएंगे। यूरोप में यही हो रहा है। आशंका यह है कि इस बजट से भारतीय अर्थव्यवस्था भी उसी रास्ते न बढ़ जाए। |
Saturday, March 17, 2012
अर्थव्यवस्था की जरूरतों को नकारता बजट
अर्थव्यवस्था की जरूरतों को नकारता बजट
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