Saturday, March 17, 2012

अर्थव्यवस्था की जरूरतों को नकारता बजट

अर्थव्यवस्था की जरूरतों को नकारता बजट 

Saturday, 17 March 2012 11:59

आनंद प्रधान 
जनसत्ता 17 मार्च, 2012: एक ऐसे समय में जब पूरी दुनिया में नव उदारवादी आर्थिक नीतियों और बाजारवादी सुधारों पर गंभीर सवाल उठाए जा रहे हैं और खासकर यूरोप और अमेरिका में आर्थिक संकट और गतिरुद्धता से निपटने में उसकी विफलता स्पष्ट होती जा रही है। उस समय वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी ने भारतीय अर्थव्यवस्था में आई गिरावट से निपटने के लिए नए बजट में एक बार फिर उसी अर्थनीति और पिटे हुए आर्थिक सुधारों पर भरोसा जताया है। यह हैरान करने वाला है। वित्तमंत्री से यह अपेक्षा थी कि वे महंगाई को काबू में रखते हुए न सिर्फ अर्थव्यवस्था की रफ्तार को तेज करने के उपाय करेंगे, बल्कि इस विकास का लाभ आम लोगों खासकर गरीबों तक पहुंचाने की कोशिश करेंगे। 
लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने मान लिया कि महंगाई अब कोई बड़ी चुनौती नहीं रह गई है। दूसरे, महंगाई से निपटने के लिए उन्होंने मांग को नियंत्रित करने पर ज्यादा जोर दिया है। इसका नतीजा यह हुआ है कि उनका सारा ध्यान वित्तीय घाटे को कम करने और इसके लिए सरकारी खर्चों में कटौती पर रहा। इसके लिए उन्होंने बजट में उत्पाद और सेवा करों में दो फीसद की बढ़ोतरी से लेकर सबसिडी में कटौती की तलवार चलाई है। साफ है कि वे मान कर चल रहे हैं कि वित्तीय घाटे में कमी करने और इसके जरिए ब्याज दरों में कटौती का रास्ता साफ  करने से निजी देशी-विदेशी कॉरपोरेट निवेश बढ़ेगा। इससे अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट आएगी और एक बार फिर तेज गति से दौड़ने लगेगी। 
क्या ऐसा होगा? पहली बात तो यह है कि इस समय जब बाजार में मांग पर पहले से ही दबाव है, उत्पाद और सेवा करों में वृद्धि और उर्वरक और पेट्रोलियम सबसिडी में भारी कटौती के प्रस्ताव से महंगाई की आग और भड़क सकती है। इससे औद्योगिक वस्तुओं की मांग में गिरावट का खतरा बढ़ गया है। इससे पहले से ही मंदी की मार झेल रहे औद्योगिक क्षेत्र पर दबाव और बढ़ जाएगा। इस समय यूरोप में यही हो रहा है। वहां सरकारों ने मंदी और आर्थिक संकट से निपटने के लिए जिस तरह से किफायतशारी के उपायों पर अत्यधिक जोर दिया, उसका नतीजा यह हुआ है कि मंदी और आर्थिक संकट और गहरा हो गया है। 
लेकिन लगता है कि यूपीए सरकार ने उससे कोई सबक नहीं लिया है। वह भी उन्हीं यूरोपीय सरकारों की राह पर चल रही है जिन्होंने वित्तीय घाटे को ही सारी समस्या मान कर उसके इलाज के लिए आम लोगों को किफायतशारी की कड़वी दवा पिलाने की कोशिश की। लेकिन सच्चाई यह है कि वित्तीय घाटा मर्ज नहीं है, बल्कि मर्ज का लक्षण भर है। अर्थव्यवस्था के बदतर प्रदर्शन से सरकार की आय घट गई और घाटा बढ़ गया। ऐसे में, इस मर्ज का इलाज अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन को सुधारना होना चाहिए। 
ताजा आर्थिक समीक्षा भी मानती है कि भारतीय अर्थव्यवस्था के उम्मीद से खराब प्रदर्शन के कारण करों की उगाही पर बुरा असर पड़ा है जिससे घाटा बेकाबू हो गया है। अर्थव्यवस्था के खराब प्रदर्शन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण कारण निवेश में आई गिरावट है। आर्थिक समीक्षा के मुताबिक, चालू वित्तीय वर्ष में अर्थव्यवस्था में निवेश 2007-08 के जीडीपी के पैंतीस फीसद की तुलना में घट कर मात्र तीस फीसद रह गया है। निवेश में कमी की एक वजह लोगों की बचत में आई कमी भी है। खुद आर्थिक समीक्षा मानती है कि बचत दर में आई कमी की एक प्रमुख वजह महंगाई है। कहने की जरूरत नहीं कि पिछले दो-ढाई वर्षों से ऊंची महंगाई दर ने न सिर्फ लोगों का बजट बिगाड़ दिया, बल्कि उनकी बचत पर भी इसका बुरा असर पड़ा है। इससे मांग पर भी नकारात्मक असर पड़ा है। 
इस दुश्चक्र को तोड़ने के लिए जरूरी था कि सरकार निवेश को प्रोत्साहित करे। सच पूछिए तो इस मामले में प्रणब मुखर्जी और यूपीए सरकार से एक साहसिक बजट की उम्मीद थी जो अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने के लिए न सिर्फ साहसिक पहल करता, बल्कि कुछ समय के लिए वित्तीय घाटे की चिंता को भूल जाता। इस मामले में उसे कृषि, आधारभूत संरचना और सामाजिक क्षेत्र में भारी सार्वजनिक निवेश के लिए आगे आना चाहिए था। लेकिन बजट में वित्तमंत्री ने योजना मद में केवल अठारह फीसद की वृद्धि की है, जो मौजूदा चुनौतियों के मुकाबले नाकाफी है। 
असल में, वे यह मान कर चल रहे हैं कि निवेश के लिए निजी पूंजी आगे आएगी। सरकार का काम सिर्फ उसके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करना है। लेकिन यह एक बड़ा जोखिम है। अगर उनकी उम्मीद के मुताबिक निवेश के लिए निजी देशी-विदेशी पूंजी आगे नहीं आई तो अर्थव्यवस्था और गहरे संकट में फंस सकती है। साफ है कि देश के नीति-नियंताओं से लेकर आर्थिक मैनेजरों तक की आंख पर नव उदारवादी आर्थिक नीतियों का ऐसा चश्मा चढ़ा हुआ है कि उन्हें देशी-विदेशी कॉरपोरेट पूंजी में ही देश और अर्थव्यवस्था की सभी समस्याओं का हल और मुक्ति दिखाई देती है। इस कारण उन्हें देश के अंदर मौजूद संभावनाएं नहीं दिखाई देतीं, या वे जान-बूझ कर उससे आंखें मूंदे रहते हैं।
उदाहरण के लिए, अर्थव्यवस्था में निवेश बढ़ाने की चुनौती को ही लीजिए। यह कितना जरूरी है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि चालू वित्तवर्ष में औद्योगिक उत्पादन की दर मात्र 3.9 फीसद रहने का अनुमान है। पिछले साल भर में कई महीने औद्योगिक उत्पादन की दर नकारात्मक भी रही। इसमें भी खासकर पूंजीगत सामानों की उत्पादन दर लगातार कई महीने नकारात्मक रही है।   यह इस बात का सबूत है कि औद्योगिक क्षेत्र में नया निवेश नहीं हो रहा है। 

इसके कारण पूरी अर्थव्यवस्था लड़खड़ा रही है। लेकिन निवेश न बढ़ने का सारा दोष ऊंची ब्याज दरों पर डाल कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से बच रही है। ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था में निवेश की गुंजाइश नहीं है। अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों, खासकर कृषि, बुनियादी ढांचे, सामाजिक क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश की गुंजाइश और उससे बढ़ कर भारी जरूरत है। सच पूछिए तो अर्थव्यवस्था इसके लिए भूखी है। लेकिन निजी क्षेत्र इन क्षेत्रों में आने के लिए बहुत उत्सुक नहीं है। इसकी वजह यह है कि अर्थव्यवस्था में मांग में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है। सच यह है कि मांग में वृद्धि और उसकी निरंतरता सुनिश्चित किए बगैर निवेश के लिए निजी पूंजी आगे नहीं आएगी। लेकिन अर्थव्यवस्था में मांग में वृद्धि के लिए जरूरी है कि लोगों को नए रोजगार मिलें और उनकी आय में वृद्धि हो। इसके लिए औद्योगिक और संरचनागत क्षेत्र में निवेश बढ़ाना अनिवार्य है। 
मगर निजी क्षेत्र विभिन्न कारणों से निवेश बढ़ाने में हिचकिचा रहा है तो यह जिम्मेदारी सरकार को उठानी होगी। यह देखा गया है कि जब निजी निवेश में ठहराव या गतिरोध हो तो सार्वजनिक निवेश में वृद्धि से निजी निवेश भी उत्साहित होता है। मगर वित्तमंत्री का रोना है कि सरकार के पास संसाधन नहीं हैं और वित्तीय घाटा बढ़ रहा है। यह आधा सच है। सच यह है कि सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है, बशर्ते वह नव उदारवादी अर्थनीति के दबावों और वित्तीय घाटे के हौवे से बाहर निकल सके। 
तथ्य यह है कि केंद्र सरकार की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के पास इस समय दो लाख करोड़ रुपए से अधिक का नगद और बैंक-जमा पड़ा हुआ है। सरकार अगर इन कंपनियों को प्रेरित करे तो वे निवेश बढ़ा सकती हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि वित्तमंत्री बड़ी देशी-विदेशी पूंजी और विश्व बैंक-अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष को खुश करने के लिए निवेश के बजाय विनिवेश की बात कर रहे हैं। उन्होंने पिछले वर्ष के बजट में विनिवेश से चालीस हजार करोड़ रुपए जुगाड़ने का लक्ष्य निर्धारित किया था। हालांकि सरकार किसी तरह इस लक्ष्य का तीस फीसद ही जुगाड़ पाई है। इसके बावजूद एक बार फिर बजट में टोटके की तरह विनिवेश से तीस हजार करोड़ रुपए जुटाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया गया है।  
साफ  है कि नव उदारवादी सुधारों से मोहग्रस्त यूपीए सरकार सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के लिए तैयार नहीं है। इसकी वजह यह है कि नव उदारवादी आर्थिक सैद्धांतिकी में अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका घटाने और निजी क्षेत्र को प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दिया जाता है। इसके लिए तर्क यह रहता है कि सार्वजनिक क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र किसी कारोबार को चलाने में ज्यादा सक्षम और प्रभावी होता है। इनकी नजर में सार्वजनिक क्षेत्र भ्रष्टाचार और काहिली का पर्याय है। यही कारण है कि आर्थिक सुधारों के पिछले डेढ़-दो दशक में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को विनिवेश के नाम पर औने-पौने दामों पर निजी क्षेत्र को सौंप दिया गया है। 
मगर मनमोहन सिंह सरकार यह भूल रही है कि इस समय जब देश औद्योगिक मंदी के खतरे से रूबरू है और निजी क्षेत्र निवेश के लिए आगे नहीं आ रहा है तो उस समय निवेश के बजाय विनिवेश की कोशिश अर्थव्यवस्था के लिए बहुत घातक साबित हो सकती है। असल में, इस समय निजी निवेश को भी प्रोत्साहित करने के लिए जरूरी है कि सार्वजनिक निवेश को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाया जाए। इससे अर्थव्यवस्था में पूंजीगत से लेकर अन्य औद्योगिक उत्पादों की मांग बढ़ेगी, जो निजी क्षेत्र को नए निवेश के लिए आकर्षित करेगी। 
लगता है कि यह सरकार पूंजीवादी अर्थशास्त्र में कीन्स के इस महत्त्वपूर्ण सिद्धांत को भूल गई है, जो कहता है कि मंदी के समय निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सार्वजनिक निवेश को बढ़ाना चाहिए। यही नहीं, सरकार के पास संसाधनों की भी कमी नहीं है। अलबत्ता, मनमोहन सिंह सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी साफ दिखाई पड़ रही है। यह सचमुच हैरानी की बात है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कोई दो दर्जन कंपनियों के पास इस समय 205255 करोड़ रुपए का नगद और बैंक-जमा है। लेकिन ये कंपनियां इसे नई परियोजनाओं में निवेश नहीं कर रही हैं। उलटे सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का विनिवेश करने पर तुली हुई है। 
अगर इन कंपनियों को निवेश खासकर बुनियादी ढांचा क्षेत्र में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया जाए तो औद्योगिक विकास में आ रही गिरावट को रोका जा सकता है। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने बजट में यह मौका गंवा दिया। इसकी कीमत अर्थव्यवस्था को चुकानी पड़ सकती है। यही नहीं, इससे महंगाई की आग और भी भड़क सकती है। अगर ऐसा हुआ तो वे वित्तीय घाटे को भी काबू करने में नाकाम रहेंगे, क्योंकि वे सरकार की आय में गिरावट को नहीं रोक पाएंगे। यूरोप में यही हो रहा है। आशंका यह है कि इस बजट से भारतीय अर्थव्यवस्था भी उसी रास्ते न बढ़ जाए।

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