दर्शकों तक कैसे पहुँचें ?
लेखक : राजीव लोचन साह :: अंक: 07 || 15 नवंबर से 30 नवंबर 2011:: वर्ष :: 35 :December 1, 2011 पर प्रकाशित
नैनीताल फिल्म फेस्टिवल के तीसरे संस्करण के बाद यह उम्मीद की जानी चाहिये कि नैनीताल स्थायी रूप से वैकल्पिक फिल्मों के प्रदर्शन का एक महत्वपूर्ण केन्द्र बन कर उभरेगा और समानान्तर सिनेमा के सभी महत्वपूर्ण व्यक्ति यहाँ के फिल्म समारोह में शामिल होकर अपने आप को गौरवान्वित महसूस करेंगे। यह आसान काम नहीं है। समारोह के आयोजक जहूर आलम और संजय जोशी बतायेंगे कि उन्हें कितने पापड़ बेलने पड़े। किसी तरह का सहयोग देने की बात तो दूर रही, पाँच सौ कार्ड बाँट कर डेढ़ सौ लोग (स्कूली बच्चों को छोड़ दें तो) बमुश्किल मुफ्त में फिल्में देखने को तैयार हुए। घटिया सिनेमा और टी.वी. चैनलों के माध्यम से जो अप संस्कृति हमारी रग-रग में घुस गई है, उससे नैनीताल कैसे अछूता रह सकता है ?
यहीं पर प्रतिरोध के सिनेमा को ज्यादा कारगर बनाने का सवाल सामने आता है। दरअसल कुछ वर्ष पहले सिनेकर्मी सुदर्शन जुयाल ने जो एक विचार मेरे दिमाग में डाला था, वह बार-बार मुझे परेशान करता है। इस बार भी 'व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू क्रिसेंट मून' देख कर राजा बहुगुणा के इस कथन ने मुझे नये सिरे से उद्वेलित कर दिया कि इस फिल्म को तो जगह-जगह दिखाया जाना चाहिये।
नाटक को प्रतिरोध का औजार बनाने के लिये नुक्कड़ नाटक की विधा खोजी गई। आज भले ही नुक्कड़ नाटक उतने बड़े पैमाने पर न हो रहे हों, लेकिन जहाँ भी वे होते हैं अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहते। दर्शक नाटक के पास नहीं आता तो हम नुक्कड़ नाटक के माध्यम से जबरन उसके पास पहुँचते हैं और अपनी बात पूरी तरह उसे समझा कर ही छोड़ते हैं। सिनेमा में भी हमें यही करना होगा। एक जमाना था, जब फिल्म निर्माण इतना महंगा था कि धंधा करने के अतिरिक्त और किसी प्रयोजन के लिये फिल्में बनाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। अब वह स्थिति बदल गई है। इसी समारोह में दिखाई गई 'मालेगांव का सुपरमैन' कुछ शौकीन मिजाज नौजवानों द्वारा फिल्म बनाने की कहानी को मजेदार ढंग से बताती है। इस तरह से अच्छा सिनेमा बना तो लिया जा रहा है, लेकिन उसे आम आदमी तक पहुँचाने के लिये ज्यादा प्रयत्न नहीं किये जा रहे हैं। ऊपर मैंने 'व्हेयर हैव यू हिडन माई न्यू क्रिसेंट मून' फिल्म का जिक्र किया है। कश्मीर समस्या पर सामान्य लोग बहुत कम जानते हैं। घोर दक्षिणपंथी मानसिकता ने उनके दिमाग में जो कुछ रोप दिया है, उसके अलावा वे और कुछ सुनना ही नहीं चाहते। पिछले दिनों प्रशान्त भूषण पर किया गया हमला इसका एक उदाहरण है। यह फिल्म कश्मीर समस्या को इतने मार्मिक रूप से छूती है कि कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसके प्रभाव से बच नहीं सकता। मगर सामान्य आदमी तो यह फिल्म देख नहीं पायेगा। उस रोज शैले हॉल में बैठे हम चार-पाँच दर्जन दर्शक तो कश्मीर की इस सच्चाई से वाकिफ थे ही, शायद इससे भी ज्यादा जानते रहे थे। हमारे इस फिल्म को देखने न देखने से क्या फर्क पड़ता है ? यदि सामान्य भारतीय इस फिल्म को देखे तो कश्मीर के बारे में समझदारी बढ़े और शायद समस्या का कोई हल भी निकले। फिल्में इस तरह का काम बेहद कारगर ढंग से कर सकती हैं। मगर यदि वे डब्बाबंद रह गईं तो उनके बनने का मकसद क्या रहा ? यह सच है कि वैकल्पिक सिनेमा का निर्माता या निर्देशक व्यापारी नहीं हो सकता, मगर उसके लिये अलग से टीम होनी चाहिये।
तो कुल मिला कर फिल्मों के प्रदर्शन की वैकल्पिक व्यवस्था के बारे सोचा जाना चाहिये। जिस तरह से किताबों की मोबाइल प्रदर्शनी लगा अच्छा साहित्य बेचा जा रहा है, उसी तरह छोटी गाडि़यों में प्रदर्शन के लिये निकला जाये। पहले एक गाड़ी प्रचार के लिये निकले। फिर उसके पीछे एक गाड़ी प्रदर्शन के लिये। प्राइमरी स्कूल और पंचायत घर जैसे सार्वजनिक स्थान सर्वत्र हैं और प्रदर्शन के लिये उपयुक्त हो सकते हैं। इस तरह के काम में जोखिम कम नहीं होंगे, मगर लाभ बहुत होगा। नुक्कड़ नाटक करते हुए सफदर हाशमी की प्रतिक्रियावादियों ने हत्या कर दी थी। वैसे ही खतरे इस काम में भी होंगे। मगर विचार जन-जन तक पहुँचेगा और फिल्म बनाने का खर्च भी निकल आयेगा। दर्जनों चैनलों से अघाये हुए शहरों के दर्शक मुफ्त में भी ऐसी फिल्में देखने नहीं आते, देहात में वे पैसे देकर भी आयेंगे। उन्हीं की हमें जरूरत भी है। देश में अगर बदलाव आना है तो वह गाँवों से ही आयेगा। अन्ततः लड़ाई गाँव बनाम शहर की ही होनी है। देश की तमाम समस्याओं का सबसे सरल इलाज ही यही है कि देश के तमाम प्रबुद्ध और सक्रिय लोग वापस उन गाँवों में जाकर रहने लगें, जहाँ से वे निकले थे। लेकिन क्या यह सम्भव है ?
बहरहाल, एक आन्दोलन के रूप में फिल्म प्रदर्शन का यह प्रयोग तो किया ही जाना चाहिये।
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