नहीं रहा रहने लायक नैनीताल शहर
लेखक : भुवन बिष्ट :: अंक: 17 || 15 अप्रेल से 30 अप्रेल 2011:: वर्ष :: 34 :May 29, 2011 पर प्रकाशित
''बड़ी पॉलिटिक्स है नैनीताल में। ये शहर अब रहने लायक नहीं रहा। मैं आज ही ये शहर छोड़कर जा रहा हूँ।'' दयाशंकर झल्लाया हुआ कमरे में आया और अपना सामान बाँधने लगा। दयाशंकर मेरा दोस्त है। पढ़ा-लिखा बेरोजगार है, भगवान की दया से अब 'ओवर ऐज' भी हो गया है। थोड़ा चिड़चिड़ा है पर दिल का अच्छा है। ''क्या बात है बड़े गुस्से में नजर आ रहे हो। तुम्हीं कभी कहा करते थे नैनीताल तो स्वर्ग है और आज इसे छोड़कर जा रहे हो?''
''हाँ, मुझे अपनी जान से प्यारा है नैनीताल। इसीलिये मुझसे इसकी ये दुर्गति देखी नहीं जाती। सारा गू-मूत का पानी ताल में जाता है। बरसात में मालरोड के गटर बहे तो ठीक है लेकिन ये जू रोड में आज तक कोई गटर नहीं बहा। आजकल न तो बरसात है न ही मानसून की चेतावनी। फिर इस ढलान पर ये गंदगी क्यों फैली है। बरसात में तो मालरोड की गंदगी बह जाती है लेकिन यहाँ तो कई दिनों तक ये ऐसे ही पड़ी रहेगी। अगर मैं इस स्वर्ग में ज्यादा दिन रहा तो स्वर्गवासी जरूर हो जाऊंगा।'' वो लगभग चिल्लाते हुए बोला।
''सीधी बात है, कहीं लाइन ब्लॉक हो गयी होगी। अब कोई न कोई गटर तो खुलेगा ही। ये नहीं खुलता तो दूसरा कोई खुलता। लोग अपने बाथरूम में पानी भी ज्यादा डाल देते है। कहीं जमा हो गया होगा। इसमें शहर छोड़कर जाने वाली कौन सी बात है। तुम थोड़ी सी बात में नाराज हो जाते हो। अपनी आदत बदलो। आखिर प्रशासन भी तो कोई चीज है।''
''यहाँ पानी आता ही कितना है। आ भी गया तो पीने से पहले उबालने की चिन्ता रहती है। नालियाँ ताल में कूड़ा बिखेरती रहती हैं। तल्लीताल 'दर्शन घर' से देखो तो मल्लीताल नयनादेवी मंदिर का नाला कूड़े से अटा रहता है। लाखों खर्च होता है ताल से कूड़ा निकालने में। हजारों रुपये घण्टे के हिसाब से मशीनें आती हैं। पिछली बार एक मशीन ताल में धँस गयी थी। उसे निकालने चार मशीनें और आयीं। सफाई का खर्चा चार गुना और बढ़ गया। ये ताल साल भर में कितनी लाशें उगलता है ? कितनों की शिनाख्त होती है ? कितनी हत्याएँ होती हैं और कितनी आत्महत्याएँ ? कुछ लोग इस ताल के पानी में डूब कर मरते हैं और कुछ लोग इसको पीकर।'' वो गुस्से में आधे जग से ज्यादा नल का पानी पी गया।
''तुम सोचते ज्यादा हो। कोई कुछ भी करे। तुम्हें उससे क्या मतलब। मैं तो यहाँ आराम से रहता हूँ। मेरे ही लिये तो यहाँ की मालरोड, भोटिया मार्केट, राजभवन, हाईकोर्ट है।''
''एक और इमारत का नाम भी तो लो, सिविल कोर्ट,'' वो मेरी बात को बीच में ही काट कर बोला-''जब वहाँ आग लगी तो सायरन तक नहीं बजा। सारा माहौल खराब है। वो भी दिन में बजने के अलग से पैसे माँग रहा होगा। सामान तो ऐसे फैंका जा रहा था कि अखरोट फैंको तो वो भी साबुत न बचे। ये 'शार्ट सर्किट' हमेशा सस्पेंसफुल क्यों होते है।'' वो गरम तवे पर भट्ट जैसा चटकने लगा।
''देखो यार जैसा तुम सोचते हो। वैसी दुनियाँ तो सपने में ही होती है। तुम प्रशासन पर विश्वास रखो।'' मैंने उसे दिलासा दिया।
''हम विश्वास ही तो कर सकते हैं, बदलाव नहीं। सुबह मालरोड में 'मार्निग वाक' करने जाओ तो लोग कुत्ते घुमाते हुए मिलते हैं। मालरोड में फ्रेश कुत्ता होता है और सन्तुष्टि का भाव मालिक के चेहरे पर होता है। कभी कोई ऐसी सुबह नहीं होती जब एक-दो बार जूता न सने। इस शहर में चील, कौवे तो गायब होते जा रहे हैं, बढ़ रही है तो सिर्फ आवारा कुत्तों की संख्या। बंदर, लंगूरों ने बच्चों का स्कूल जाना मुश्किल कर रखा है। रेबीज के इंजेक्शन अस्पताल में नहीं, बाजार में मिलते हैं, वो भी चार सौ का एक। एक आम आदमी यहाँ जीये भी तो कैसे जीये ?'' उसकी आँखों में पीड़ा थी या न जाने कीड़ा घुस गया था। वो अपनी आँखें मसलने लगा।
''तुम नैनीताल छोड़कर चले भी जाओगे तो भी तुम्हें ऐसा ही मिलेगा। यहाँ कितनी शांति है, कितना तमीज है। रिक्शे के लिये और कहीं लाइन लगते देखी है कभी ?''
''लाइन तो तमीज से लगती है पर क्या रिक्शे भी तमीज से चलते हैं। कितनों के दुपट्टे ही फाँसी के फंदे का काम करते हैं। मालरोड में चिल्लाता रहता हूँ, बहन जी आपका दुपट्टा फँसने वाला है। तो लोग मुझे ऐसे देखते हैं कि जैसे मैं पाप कर रहा हूँ। छोटा आदमी एक झोपड़ा नहीं बना सकता। बड़े लोगो के बड़े-बड़े मकान, होटल बनते जा रहे हैं। प्राधिकरण दल-बल के साथ इस बार अवैध इमारत को ध्वस्त भी कर आयेगा तो अगली बार उस बिल्डिंग में एक मंजिल बढ़ाकर वह वैध बन जती है। मालरोड के सुलभ शौचालय रात को नौ बजे बंद हो जाते हैं। क्या नौ बजे के बाद आदमी शौच के लिए नहीं जाता। मैं आज ही ये शहर छोड़कर जा रहा हूँ।''
उसने खिड़की से बाहर देखा। बाहर जू-रोड में जाम लगा देखकर वो ऐसा बिदका जैसे शुद्ध शाकाहारी भोजनालय की दाल में से हड्डी निकल आये। ''देखो कैसा जाम लगता है इस रोड में, पैदल जाने की जगह भी नहीं बचती है। यहाँ गाडि़याँ कैसे खड़ी कर जाते हैं लोग। शहर में गाडि़याँ ज्यादा हो गयी हैं और ड्रायवर कम।'' तभी शर्मा जी की बेटी हाथ में गाड़ी की चाबी लिये आयी और दयाशंकर से बोली, ''हमारी गाड़ी थोड़ा आगे लगा दीजिये अंकल। मम्मी कहीं गई हैं और पापा को गाड़ी चलानी नहीं आती।'' दयाशंकर चाबी लेकर जाम खोलने चला गया।
वो जब कमरे में आया तो मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं उससे कुछ पूछूँ। मैं उसका सामान उठाने में उसकी मदद करने लगा। मुझे उसे देखकर बड़ी दया आने लगी। मैंने उससे कहा, ''ये शहर वाकई तुम्हारे रहने लायक नहीं है। क्योंकि तुम हमेशा दूसरे के बारे में सोचते हो। तुम्हारे फिजूल के सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है। तुम शहर के बारे में सोच कर क्यों खुद को परेशान करते हो ? तुम्हारे सोचने से कुछ नहीं होगा। तुम ये शहर छोड़ कर चले भी गये तो क्या ये बदल जायेगा। इतने लोग रहते हैं इस शहर में। एक तुम्हीं हो जो जल में रहकर मगर से बैर ले रहे हो। तुम्हारे लिए यही अच्छा है कि तुम ये शहर छोड़कर चले जाओ।'' मुझे न जाने क्यों ऐसा लगा कि दयाशंकर के जाते ही शहर की रौनक भी चली जायेगी।
मैंने उसे बस में बैठाया। न जाने कहाँ से अचानक बहुत सारे कीड़े उसकी आँखों के सामने मँडराने लगे। कहीं फिर से उसकी आँखों में न घुस जाये, ये सोचकर उसने एक बड़े रुमाल से अपने चेहरे को ढक लिया। बस स्टार्ट हुई, मैंने उससे विदा ली। तब भी उसका चेहरा रुमाल से ढँका था।
उसके जाने के बाद एक अजीब सी उथल-पुथल मैंने अपने भीतर महसूस की। कोई दस मिनट के बाद मेरे मोबाइल की घण्टी बजी। दयाशंकर का फोन आया था। मैंने फोन उठाया, दूसरी तरफ से उसकी आवाज आयी, ''मैं वापस आ रहा हूँ। बड़ा कमीना शहर है, छोड़कर जाने भी नहीं देता। आगे सड़क टूट गयी है, न जाने कब खुले। शाम के खाने का इन्तजाम करके रखना…।''
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