उन दिनों हमने एक समानान्तर दुनिया के सपने रचे
लेखक : लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही' :: अंक: 10 || 01 जनवरी से 14 जनवरी 2012:: वर्ष :: 35 :January 18, 2012 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/tribute-to-bhagat-da-by-batrohi/
उन दिनों हमने एक समानान्तर दुनिया के सपने रचे
लेखक : लक्ष्मण सिंह बिष्ट 'बटरोही' :: अंक: 10 || 01 जनवरी से 14 जनवरी 2012:: वर्ष :: 35 :January 18, 2012 पर प्रकाशित
चौदह दिसंबर की सुबह जब राजीव लोचन साह का मोबाइल पर संदेश आया कि नंदकिशोर भगत नहीं रहे, तो मैं उसकी शक्ल याद करने लगा। इतने दिनों से उसके साथ संपर्क छूटा हुआ था कि मुझे शक्ल तलाशने में वक्त लगा। एक दुबले-पतले इंसान का भारहीन पुतला आँखों के आगे तैरने लगा, जिसे सक्रिय चेहरे के रूप में तलाशने में मैं लगभग असफल रहा। बार-बार मैं खुद से सवाल करता था कि साहित्य और सामाजिक सरोकारों के प्रति बेहद अंतरंगता के साथ जुड़े इस व्यक्ति को मैं अपनी जिंदगी के किस मोड़ पर छोड़ आया था ? लगातार याद करते हुए, सक्रिय नंदकिशोर को पकड़ने में मुझे करीब तीस-चालीस साल पीछे लौटना पड़ा। तब हम लोग नैनीताल में पढ़ते थे और मालरोड में घूमते हुए साहित्यिक विषयों पर अंतहीन बहसें किया करते। हमारे लिए उन बहसों का कोई अंत नहीं होता था, मानो उन बहसों का उद्देश्य अपने मन में फैले हुए विचारों के गुंझलक को साफ करना रहा हो! ऐसी बातों का भला कहीं समाधान होता है!
उन दिनों जंगलात दफ्तर के परिसर में उसके घर भी लगभग नियमित जाना होता था। कई कहानियाँ उस अस्तव्यस्त कमरे में सुनी थीं और उन्हें लेकर खूब लंबी-चौड़ी बहसें भी की थीं। अब वे बहसें याद नहीं हैं, मगर इतना याद है कि उन कहानियों में कुछ ऐसा अवश्य होता था, जिसे मैं उतने प्रभावशाली ढंग से व्यक्त कर सकने की योग्यता खुद में भी नहीं महसूस करता था। नंदकिशोर आज जीवित होता, और मैं उससे उन बहसों के बारे में पूछता तो मुझे शक है कि उसे भी वे याद होतीं। हालांकि नैनीताल में कितनी ही बार उसके साथ भेंट हुई, अनेक बार हम लोग एक-दूसरे के घर भी गए, मगर मुझे याद नहीं पड़ता कि हमने अपने उन रचनात्मक संबंधों के बारे में कभी बातें की हों। बाद के दिनों में उसकी रुचि शाम या रात की उन बैठकों की ओर ज्यादा सरकने लगी थीं, जिसमें मैं उसके साथ बहुत कम शामिल हो पाया था। मेरे साथ दिक्कत यह है कि लिकर शरीर में घुसने के बाद मुझे नींद आने लगती है और बहस करने की न तो ऊर्जा बचती और न तर्कसम्मत विवेक! जब कि अनेक लोगों के साथ इसका उल्टा होता है, जिसमें एक नंदकिशोर भी था। ऐसे लोगों को बहस की ऊर्जा ही उस हालत में पहुँचने के बाद मिल पाती है। इसके बावजूद नंदकिशोर की बहस का अंदाज़ खासा आकर्षक होता था। कुछ देर तक वह समस्या के साथ जूझता था, अपने तर्कों के द्वारा दूसरों को प्रभावित करने की कोशिश करता, मगर जब उसे लगता कि वह अपने तर्कों से दूसरे के तर्क नहीं काट पा रहा है, वह वीतरागी संत के अंदाज़ में 'स्वाहा' की तरह अपनी बीच की दो अंगुलियों में बहस के प्रसंग को अंगूठे से दबाए हुए हवा में उछाल देता, 'फूको, हो….!'
नंदकिशोर का यह 'फूको' शब्द दार्शनिक फूको और देरिदा के विखंडनवाद की तरह का ही होता था। फर्क यह है कि विखंडनवादी फूको अपने नाम से जुड़े इस शब्द से 'विचार' की ताकत ग्रहण करता था, जिसने उसे शब्द की शक्ति पहचानने के अनेक नए संदर्भ दिए, जब कि नंदकिशोर उसके माध्यम से विचारों से मुक्ति प्राप्त करता था।
आज नंदकिशोर के बारे में सोचते हुए एकाएक भावुक हो जाने के पीछे शायद यह अहसास है कि उसने अपनी मृत्यु के रूप में अपनी ओर से मानो मेरी ओर कोई संकेत फेंका था, बिलकुल 'फूको हो' के अंदाज में…. ''चल यार, जिंदगी का एक पड़ाव बीता!…. तीस-चालीस साल से टूटती-जुड़ती दोस्ती का एक हिस्सा तो बीत ही गया…. कोई जरूरी है कि दूसरे की शुरूआत भी करें ही।''
क्या हुआ इस वाक्य का मतलब ? कौन-सा हिस्सा बीता और किसकी शुरूआत नंदकिशोर करना चाहता था ? वास्तविकता तो यह है कि जिंदगी के जिस हिस्से के बीतने के बारे में नंदकिशोर अपनी मौत के बाद मुझे बता रहा है, वह तो कब-का बीत चुका था! उसके बाद उसने किसी दूसरी शुरूआत का जिक्र तो कभी किया नहीं था! कहीं उसका इशारा लोक-दार्शनिक कबीर की ओर तो नहीं है….. माली आवत देखकर कलियन करी पुकारि, फूले-फूले चुन लिए कालि हमारी बारि!…..
बात में दम लगता है! हम सभी लोग एक जिंदगी में कम-से-कम दो जिंदगियाँ तो जीते ही हैं….. एक भगवान के द्वारा दी गई जिंदगी और दूसरी, हमारे अपने प्रयत्नों से निर्मित जिंदगी। हम सब लोग भगवान् के द्वारा दी गई जिंदगी के समानांतर अपनी रुचियों, आकांक्षाओं और सपनों के माध्यम से एक समानांतर संसार रचते हैं…… और इसके लिए भगवान् द्वारा हमें दी गई सारी नियामतें झोंक देते हैं। वास्तविकता यह है कि इस सृष्टि का सच यही दूसरी दुनिया है, और जितनी ही स्वायत्त और स्वतंत्र यह दुनिया होती है, हमारा जीवन उतना ही धन्य होता है। धन्यता के पीछे कारण भी यही है कि इस दूसरी दुनिया के 'ईश्वर' हम होते हैं, केवल हम, हमारे ऊपर आरोपित वह काल्पनिक 'ईश्वर' नहीं!
हम सब लोग, चाहे गरीब हों या अमीर, आदिवासी हों या आधुनिक ढंग के शिक्षित, गोरे हों या काले, मर्द हों या औरत, अपने जीवन काल में अनिवार्य रूप से दो दुनियाएँ रचते हैं, मगर अज्ञानतावश अपने द्वारा निर्मित वास्तविक दुनिया की तो उपेक्षा करते हैं, जबकि भगवान के द्वारा दी गई इस अवास्तविक दुनिया को सच मान रहे होते हैं।….. यह नहीं जानते कि हमारे जीवन की सार्थकता इसी बात में है कि हम भगवान की रचना के समानांतर अपनी दुनिया को कितना रच पाते हैं! यही होती है हमारी रचना की दुनिया, जिसकी शुरूआत मैंने करीब आधी सदी पहले नंदकिशोर भगत के साथ की थी। ध्यान रहे, इस मुकाम पर भगतदा के 'फूको' से काम नहीं चलता, क्योंकि यह शुरूआत हमारे पैदा होने के साथ ही आरंभ हो चुकी होती है। अब देखिए न, एक तो हमको दिया गया भगवान् का क्रम है…..हमारा कद बढ़ता है, बाल, नाखून और हथेली की रेखाएँ बढ़ती हैं, हम खाना खाते हैं, सोते हैं, बैंक में खाता खोलते हैं, उसमें इजाफा करते हैं, शादी करते हैं, बच्चे पैदा करते हैं, उनकी अच्छी बातें हमें गुदगुदाती हैं और बुरी बातों से हमारी रातों की नींद हराम हो जाती है!…..हमारे प्रमोशन में कोई अड़ंगा लगाता है तो हम उसकी जान के दुश्मन बन जाते हैं!….. मगर एक और दुनिया भी तो है!…. अपनी बीवी, बच्चों या माँ-बाप के अलावा भी दूसरे लोगों के साथ उसी तरह के रिश्ते कायम करते हैं…ऐसे आदमी के लिए आँसू बहाने लगते हैं, जिसके साथ दूर-दूर तक हमारा कोई संबंध नहीं होता, ऐसे आदमी की जान ले बैठते हैं, जिसने हमारा कुछ भी नहीं बिगाड़ा होता!
नंदकिशोर होता तो यह जरूर कहता, 'फूको यार, इतना क्या सोचना हुआ…. जो होना था, हो गया, अब चैन की साँस लो!
मगर उस 'चित्रगुप्त' को हम क्या जवाब देंगे, जो हमारे अंदर बैठा है और हमारे हर पल का हिसाब-किताब लिख रहा है। इस चित्रगुप्त को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि हमने अपनी संतानों के लिए कितनी जायदाद एकत्र की, कितना बैंक बैलेंस समेटा, देश और समाज को क्या दिया, कितना सच बोला और कितना झूठ!…. हमारे अंदर बैठे उस चित्रगुप्त को तो सिर्फ एक ही बात से मतलब है कि हमने अपने लिए क्या रचा ? भगवान् ने तो हमें पैदा करके अपने लिए रचना की, हमने अपने लिए क्या रचा ?…. मुझे याद आ रहा है, नंदकिशोर और मैं अपने उस शुरूआती दौर में कुछ इसी तरह की बातें किया करते थे। अपनी इस समानांतर दुनिया को रचने की कोशिश करते थे और हर बहस के बाद अंत में इसी निष्कर्ष में पहुँचते थे कि संसार में रचना से बड़ा सुख और कुछ भी नहीं है।
नंदकिशोर भगत, जिसकी मृत्यु 14 दिसंबर 2011 को सुबह के चार बजे भवाली-महरागाँव के बीच धार में बसे गाँव फरसौली में हुई थी, मेरे मन में इसीलिए अमर है क्योंकि उसने मुझे और खुद को ही नहीं, समूची सृष्टि को एक नई अंतर्दृष्टि दी, रचना की अंतर्दृष्टि, जो उसके अलावा और कोई नहीं दे सकता था।
संबंधित लेख....
- मेरे सारे गुरुओं में सबसे अलग थे….
पिछले एक-दो साल से ऐसा बार-बार होने लगा है कि कुछ-कुछ दिनों बाद किसी न किसी करीबी के बिछुड़ने की खबर... - वे हमें समर्थ देखना चाहते थे
नंद किशोर भगत (वीरेन डंगवाल के नन्दू बॉस और हमारे भगतदा) 14 दिसम्बर 2011 को हमें अलविदा कह गये। नैनी... - स्वस्ती श्री : शैलेश मटियानी जी को जानना आवश्यक…..
करीब सात-आठ साल पहले, मटियानी जी की मृत्यु के बाद साहित्य अकादेमी ने मटियानी जी के संपूर्ण साहित्य क... - भगत दा ! मेरे हमदम मेरे दोस्त
'अपने भीतर और बाहर की नमी और हरियाली खो देने के बावजूद मनुष्य के लिये सर्वाधिक निरापद है धरती ... - भगत दा का रचना कर्म…
(भगत दा द्वारा सम्पादित/प्रकाशित 'बनरखा' के प्रवेशांक का शकीय वक्तव्य। - सम्पादक) प्रकाशकीय 'वनरखा...
No comments:
Post a Comment