Monday, 06 February 2012 09:55 |
प्रयाग पांडे, नैनीताल नैनीताल, 6 फरवरी। दिशाहीन और सत्ता लोलुप नेतृत्व ने उत्तारखंड क्रांति दल को उत्तराखंड की सियासत में अप्रासंगिक बना दिया है। निजी अहम और महत्वाकांक्षा के कारण दल के नेताओं ने खुद उक्रांद का गला घोटा। राज्य में क्षेत्रीय सियासी पार्टियों के लिए लोगों के मन में गहरा अविश्वास भी पैदा कर दिया है। राज्य की सियासत में क्षेत्रीय दलों की ताकत घटने का फायदा उन राष्टÑीय सियासी दलों को हो रहा है, जिनकी उपेक्षा की वजह से अलग राज्य की अवधारणा का जन्म हुआ और दशकों के संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य वजूद में आया। अलग राज्य आंदोलन के दौरान भी उक्रांद के नेताओं में दशा और दिशा भ्रम लगातार बना रहा। उक्रांद ने 1996 के लोकसभा चुनाव में 'राज्य नहीं तो चुनाव नहीं' का नारा दिया। लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया। लेकिन विधानसभा चुनाव में कूद गए। उक्रांद नेताओं में क्षेत्रीय मुद्दों को लेकर तीखे और लड़ाकू तेवर कम ही नजर आए। लेकिन प्रगतिशील आंदोलनों के मंचो पर उक्रांद के कुछ नेताओं की मौजूदगी और भागीदारी से पहाड़ में उक्रांद को जुझारू तेवरों वाले दल के रूप में पहचान हासिल करने में मदद मिली। राज्य आंदोलन जब चरम पर था, तब राज्य की नब्बे फीसद जनता उक्रांद के पीछे खड़ी थी। भारी जन आंदोलन के दबाव के चलते नवंबर, 2000 में अलग उत्तराखंड राज्य बन गया। राज्य बनते ही उक्रांद ने जनसरोकारों से जुड़े मुद्दों को तिलांजलि दे दी। राज्य के 2002 के पहले चुनाव में उक्रांद सिर्फ चार सीटें ही जीत पाया। तब उक्रांद के काशी सिंह ऐरी, विपिन त्रिपाठी, नारायण सिंह जंतवाल और प्रीतम सिंह पंवार पहली विधान सभा में विधायक बने। दल विधान सभा के भीतर और बाहर अलग राज्य आंदोलन से जुड़े मुद्दों की वाजिब पैरोकारी कर पाने में पूरी तरह नाकाम रहा। नतीजन 2007 के विधानसभा चुनाव में उक्रांद चार के बजाय तीन सीटों पर सिमट गया। जिन राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का विरोध कर उक्रांद जवान हुआ था, 2007 में बेशर्मी के साथ उन्हीं में से एक भाजपा की गोद में जा बैठा। तभी से उत्तराखंड की क्षेत्रीय सियासत में उक्रांद की उल्टी गिनती शुरू हो गई। इसका नतीजा जनवरी, 2011 में उक्रांद के दो फाड़ के रूप में सामने आया। उक्रांद के विघटन से दल ने अपना चुनाव निशान 'कुर्सी' तो गवाई ही, साथ में पहाड़ के लोगों का भरोसा भी गंवाया है। अब पहाड़ के लोगों के सामने दो उक्रांद है। पहला उक्रांद (प्रगतिशील), जिसका चुनाव निशान कप और प्लेट है। दूसरा उक्रांद (जनतांत्रिक), जिसका चुनाव निशान पतंग है। उक्रांद (प्रगतिशील) तो इस बार विधानसभा चुनाव में पचास से अधिक सीटों पर चुनाव लड़ने की हिम्मत जुटा पाया है। लेकिन उक्रांद (जनतांत्रिक) के नेता दिवाकर भट्ट देवप्रयाग से और ओम गोपाल नरेंद्र नगर से भाजपा के चुनाव निशान से चुनाव लड़े हैं। उक्रांद के नेताओं की इस अवसरवादी सियासत से पहाड़ के आम लोग बेहद आहत हैं। जाहिर है कि छह मार्च को चुनाव नतीजे आने के बाद लोगों की यह नाराजगी जगजाहिर हो जाएगी। मुमकिन है कि लोग सत्ता लोलुप नेताओं को माफ भी कर दें। लेकिन क्षेत्रीय राजनीति का इतिहास उन्हें शायद ही माफ कर पाएगा। |
Monday, February 6, 2012
जनवादी नीतियों को छोड़ उत्तराखंड की सियासत में अप्रासंगिक बना उक्रांद
जनवादी नीतियों को छोड़ उत्तराखंड की सियासत में अप्रासंगिक बना उक्रांद
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