Wednesday, 22 February 2012 10:19 |
सत्येंद्र रंजन यह कथन कि व्यावहारिक राजनीति की मजबूरियां भाजपा को एक सामान्य राजनीतिक दल बना देती हैं और सत्ता की चाह में उसकी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा अप्रासंगिक हो जाती है, अनुभव से सिद्ध नहीं है। बल्कि आज भी यह गौरतलब है कि भाजपा किन मुद्दों पर वोट मांगती है? उसके मुख्य मुद्दे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, समान नागरिक संहिता और संविधान की धारा 370 की समाप्ति हैं। उत्तर प्रदेश के मौजूदा चुनाव में भी पार्टी के वादों में अयोध्या में विशाल राम मंदिर के निर्माण की बात शामिल है। इसके अलावा गो-रक्षा, स्कूलों में सूर्य नमस्कार और गीता की पढ़ाई थोपना, पाठ्यक्रम में अंधविश्वास भरी विषयवस्तुओं को जगह देना और विकास की धारणा को पूर्णत: अभिजात्य हितों के मुताबिक प्रस्तुत करना भाजपा शासन में रोजमर्रा के अनुभव हैं। दरअसल, खुद भाजपा इन मुद्दों को अपनी खास पहचान मानती है। जाहिर है, इनके आधार पर ही बहुमत जुटा कर वह सत्ता में आना चाहती है। इस परिप्रेक्ष्य में नरेंद्र मोदी पार्टी में कोई अपवाद नहीं, बल्कि उसके सबसे स्पष्ट प्रतीक हैं। इस राजनीति में जोर-जबर्दस्ती का तत्त्व नैसर्गिक रूप से शामिल है, क्योंकि उसके जरिए ही कोई जीवन-शैली या संस्कृति किसी अन्य पर थोपी जा सकती है। इसलिए वेलेंटाइन डे मना रहे लोगों पर हमला या कला-संस्कृति या अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों की आजादी को प्रतिबंधित करने की प्रवृत्ति कोई अलग-थलग रुझान नहीं, बल्कि इस विचारधारा का अभिन्न अंग है। सन 1980 के दशक तक भाजपा की ताकत हाशिये पर थी। लेकिन राम जन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद बनी परिस्थितियों में वह देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गई। इसके साथ राजनीति में वह विभाजन रेखा (फॉल्टलाइन) सबसे प्रमुख हो गई, जिसके आधार पर भाजपा एक तरफ और बहुसंख्यक वर्चस्ववाद विरोधी ताकतें दूसरी तरफ खड़ी दिखती हैं। चूंकि 1990 के दशक के घटनाक्रम ने भाजपा को केंद्र की सत्ता में पहुंचा दिया और सत्ता का अपना गतिशास्त्र होता है, इसलिए बहुत-से ऐसे दल, जो मूल रूप से संघी राष्ट्रवाद से सहमत नहीं हैं, भाजपा के सहयोगी बन गए। सांप्रदायिकता की विभाजन रेखा की इस अनदेखी ने सबको न्याय और सबको साथ लेकर चलने वाले राष्ट्रवाद के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी। चूंकि यह स्थिति आज भी कायम है, इसीलिए भारतीय जनता के व्यापक और दीर्घकालिक हित में संसदीय राजनीति के भीतर उस धुरी की प्रासंगिकता कायम है, जिसका नेतृत्व कांग्रेस करती है। अगर देश में दो धर्मनिरपेक्ष विकल्प होते, तो निस्संदेह जन-पक्षीय नीतियों और व्यापक जनतांत्रिक कार्यक्रम से तय होने वाली विभाजन रेखा के आधार पर राजनीतिक रुख या मतदान का फैसला करने की सुविधाजनक स्थिति होती। उस निर्णय में अपनी मौजूदा नीतियों और वर्ग-चरित्र के कारण कांग्रेस संभवत: किसी प्रगतिशील शक्ति की पसंद नहीं होती। मगर मुश्किल यह है कि 1990 के दशक में जब भाजपा के नेतृत्व में सांप्रदायिक-धुर दक्षिणपंथी शक्तियां उभार पर थीं, उस समय भी अपना किला मजबूत रखने वाली वामपंथी ताकतें आज कमजोर हो चुकी हैं। ऐसे में शासन की नीतियों को वाम झुकाव देने की चुनौती और गहरी हो गई है। इस परिस्थिति में आधुनिकता और प्रगतिशीलता के अर्थ में राष्ट्र-भक्त और जन-पक्षीय लोगों के सामने पहला लक्ष्य भारत के आधुनिक विचार की रक्षा और भारतीय राज्य-व्यवस्था को राष्ट्रवाद के उस सिद्धांत पर टिकाए रखना है, जो न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की एक अनिवार्य शर्त है। कम्युनिस्ट विचारधारा में वस्तुगत परिस्थितियों के वस्तुगत विश्लेषण का सिद्धांत बहुमूल्य माना जाता है। इस सिद्धांत को अगर आज हम अपने हालात पर लागू करें, तो उससे यही समझ निकलती है कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा और समाज के उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण के संदर्भ में उन तमाम शक्तियों की आवश्यकता बनी हुई है, जो भाजपा के खेमे में नहीं हैं। जब तक भाजपा के राष्ट्रवाद को परास्त नहीं कर दिया जाता, भारतीय राष्ट्रवाद की यह मजबूरी बनी रहेगी। मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति की इस प्रमुख विभाजन रेखा की प्रासंगिकता की समझ कांग्रेस और अन्य धर्मनिरपेक्ष शक्तियों में हाल के वर्षों में धुंधली होती गई है। इसके लिए काफी हद तक कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए की नीतियां जिम्मेदार हैं, लेकिन इसकी कुछ जिम्मेदारी उन पार्टियों की भी है जिन्होंने फौरी राजनीतिक फायदों को दीर्घकालिक उद्देश्यों पर ज्यादा तरजीह दी है। बहरहाल, यह पूरे धर्मनिरेपक्ष खेमे के लिए विचारणीय प्रश्न है कि क्या इस क्रम में भारत की आधुनिक-लोकतांत्रिक और प्रगतिशील संकल्पना के लिए खतरा और संगीन नहीं होता जा रहा है? |
Wednesday, February 22, 2012
भाजपा का राष्ट्रवाद बनाम भारत
भाजपा का राष्ट्रवाद बनाम भारत
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