Saturday, 18 February 2012 11:36 |
पुण्य प्रसून वाजपेयी जनसत्ता 18 फरवरी, 2012: बजट के जरिए देश को समझना और देश को समझ कर बजट बनाना, दोनों दो स्थितियां हैं। नया अर्थशास्त्र इसकी इजाजत नहीं देता कि समूचे देश को साथ लेकर चला जाए। अर्थशास्त्री यह मान रहे हैं कि आजादी के बाद न्यूनतम जरूरतों को बुनियादी ढांचे के दायरे में लाने का जितना काम होना था, वह या तो हो गया या फिर आधारभूत संरचना को नए तरीके से परिभाषित करने की जरूरत है। इसलिए अर्थशास्त्रियों का सुझाव है कि अब रियल इस्टेट के जरिए नगर-क्षेत्र के विकास को बुनियादी ढांचे से जोड़ दिया जाए। निजी कंपनियों की हवाई उड़ानों से जो एअरलाइंस बाजार फल-फूल रहा है उसमें तेजी लाने के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर के दायरे में एअरलाइंस को भी ले आया जाए। मनमोहन सिंह भले परमाणु ऊर्जा को लेकर काफी आशावान हों, लेकिन दुनिया के तमाम देश यह जान चुके हैं कि एक वक्त के बाद सूर्य और हवा के जरिए पैदा होने वाली ऊर्जा खासी जरूरी भी होगी और मुनाफा भी देगी। यों भारत में वैकल्पिक ऊर्जा के नाम पर एक अलग मंत्रालय काम कर रहा है, लेकिन उसका काम वैकल्पिक ऊर्जा वाले क्षेत्रों को कमीशन लेकर बेचना भर है। समुद्री इलाके की वह सारी जमीन जहां पवनचक्की चल सकती है और जहां सूर्य की प्रचुर ऊर्जा होती है, निजी कंपनियों को बेची जा चुकी है। वे सभी अभी से एनटीपीसी को बिजली बेचती हैं। दस बरस बाद जब इसकी जरूरत और कीमत दोनों आसमान छूएंगी तो सरकार निजी कंपनियों की मनमानी कीमत के सामने वैसे ही नतमस्तक होगी जैसे आज अंबानी के हाथ में गैस और कई अन्य निजी कंपनियों को पेट्रोल-डीजल सौंप कर देश की जरूरत की सौदेबाजी कर रही है। ऐसे बहुतेरे तथ्य यह सवाल खड़ा कर सकते हैं कि क्या सरकार के पास कोई अपना अर्थशास्त्र नहीं है, जिसके जरिए लोगों की जरूरतों के अनुरूप देश को आगे बढ़ाया जा सके? आर्थिक विकास का जो स्वरूप बन गया है उसे उलटने की जरूरत है। राजनीतिक सत्ता के दिशा-निर्देशों या उसके अपने अर्थशास्त्र ने ही इस पिरामिड को बनाया है। इसके पीछे हो सकता है अर्थशास्त्र के कई नियम काम कर रहे हों, लेकिन इसकी जरूरत सत्ताधारी के सत्ता में बने रहने की जरूरत से शुरू हुई इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता। जाहिर है यहां सवाल लोकतंत्र की उन मान्यताओं पर उठेंगे जो संसदीय चुनाव को ही लोकतंत्र का पर्याय बताते हैं, उसी तरह जैसे अर्थशास्त्रियों ने विकास दर को ही पूरे देश की आर्थिक प्रगति का मापदंड बना दिया है। चुनाव का फैसला भले मतों के संख्याबल से होता हो, लेकिन इसके पीछे का सच यह भी है कि वही कॉरपोरेट कंपनियां पार्टियों को पैसा दे रही हैं जिन्हें उम्मीद है कि चुनाव बाद उन्हीं के अनुकूल नीतियां बनेंगी और फैसले होंगे। कहा जाता है कि हर व्यक्ति के वोट की बराबरी है, लेकिन नए अर्थशास्त्र को इस चुनावी लोकतंत्र में मिला दिया जाए तो कई सवाल एक साथ खडेÞ होंगे। मसलन, मतदाताओं का जो समूह खेती के सहारे पेट पाल रहा है उसकी जरूरत एक अदद स्कूल या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की है। अगर वहां की खेती की जमीन पर कोई उद्योगपति बिजली संयंत्र लगाना चाहता है तो सत्ता क्या करेगी? जाहिर है, यहां सत्ता की प्राथमिकता में वे लाखों मतदाता नहीं होते, बल्कि एक कॉरपोरेट घराना होता है जो संयंत्र लगाना चाहता है। विकास के नाम पर हजारों परिवारों की खेती की जमीन मुआवजे के जरिए सरकार निजी कंपनियों को दे देती है। किसान को रोजी-रोटी के लिए गांव छोड़ना पड़ता है और जो लोग वहां बच जाते हैं वे मजदूर होकर उसी संयंत्र में काम करने लगते हैं। सरकार इसके बाद बताती है कि गांव के शहरीकरण की दिशा में उसने क्या-क्या कमाल किया। उत्तर प्रदेश को ही लें तो जो भी सत्ता में आएगा उसे बिजली, खनन, इन्फ्रास्ट्रचर, टाउनशिप, इस्पात, चीनी मिल से लेकर शिक्षा और स्वास्थ्य सरीखे क्षेत्र में पहले छह महीने के भीतर ही कुल साठ लाख करोड़ से ज्यादा के लाइसेंस बांटने हैं। कह सकते हैं कि परियोजनाओं की बंदरबांट करनी है। इसके अलावा, छोटे-बडेÞ धंधों के जरिए कैसे अरबों का खेल होता है यह मायावती के दौर में पोंटी चड्ढा को मिले छह हजार करोड़ के शराब-ठेके या बीस लाख करोड़ की जमीन पर मालिकाना हक से समझा जा सकता है। इसी तरह सत्ता के अनुकूल होते ही चालीस हजार करोड़ वाला गंगा एक्सप्रेस-वे का धंधा भी जेपी ग्रुप के हाथ में आ जाता है और साठ हजार करोड़ की कई बिजली परियोजनाएं भी। सत्ता की महत्ता किसके लिए कितनी है और सत्ता की जरूरत किसके लिए ज्यादा है यह समझना अब मुश्किल नहीं है, क्योंकि राजनीतिक अर्थशास्त्र के नए पाठ ही शिक्षा के नए मापदंड भी बनाए जा रहे हैं। आइबीएम और आइआइटी में इसकी पढ़ाई होने लगी है कि कैसे कॉरपोरेट कंपनियों का चुनाव पर प्रभाव बढ़ रहा है और यह प्रभाव देश में विकास की रफ्तार को कैसे बढ़ा रहा है। मानो भारत अब पूरी तरह बाजार में तब्दील हो चुका है। ऐसे में आम आदमी टिकेगा कैसे, क्योंकि विकल्प के विचार या जन-सरोकार से उपजे अर्थशास्त्र की जरूरत अब देश की सत्ता को नहीं है। इसलिए नया सवाल विकास के पिरामिड को वैकल्पिक समझ के साथ उलटने का भी है। |
Friday, February 17, 2012
सरोकारों से कटा अर्थशास्त्र
सरोकारों से कटा अर्थशास्त्र
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/11890-2012-02-18-06-07-05
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