Sunday, 12 February 2012 14:30 |
पवन कुमार गुप्त अमेरिका से निकले विचारों का मूल स्रोत तो बर्बादी और हिंसा से भरा पड़ा है। क्या इन विचारों को बारीकी से जांचने की जरूरत नहीं? पुतिन अमेरिका और पश्चिम के इस तंत्र को समझते हैं। वे राष्ट्र-प्रेम और देश-प्रेम के फर्क को भी समझते हैं। वे विविधता का महत्त्व भी समझते हैं और साथ ही उसका सहारा लेकर पश्चिम जो षड्यंत्र रचता रहता है और दूसरे राष्ट्रों को तोड़ने का प्रयास करता है उससे भी वाकिफ हैं। अमेरिका ने रूस को तोड़ा, पर अब भी चैन नहीं है उसे, और तोड़ने की कोशिश जारी है। ऐसा ही कुछ हमारे यहां भी होता है, चाहे वह हिंदू-मुसलमान का मसला हो, चाहे कश्मीर का हो, चाहे जातियों या खापों का हो। सारे मसलों को हम अपनी नजर से देखना ही जैसे भूल गए हैं, सभी मुद्दों पर बहस पश्चिमी या अमेरिकी तर्ज पर ही ज्यादा होती है। रूस में भी अनेक धर्मों, रंगों और विशेष जातीय पहचान के लोग रहते हैं और सदियों से रहते आए हैं। अमेरिका तो मूल निवासियों का रहा नहीं। जिन्होंने उसे अपना घोषित किया हुआ है वे तो सब बाहर से घुसे हुए विदेशी हैं, उन्हें विस्थापित कहना ज्यादा ठीक है। इसलिए वहां की जातिगत और रंग की विविधता के पैमाने और वे उस विविधता से कैसे जूझते हैं यह उन देशों के लिए मायने नहीं रखता जहां विविधता होते हुए भी वह उनकी अपनी है और वैसी ही हमेशा से रही है, जैसे भारत और रूस। विविधता और विविधता में भेद होता और यह भेद सभ्यतागत होता है। पुतिन रूसी सांस्कृतिक पहचान को अहमियत देते हैं और इसकी बिना पर सारी विविधता को स्वीकार करते हैं, परस्पर सम्मान के साथ। भारत की विविधता को भी यहां की सांस्कृतिक पहचान के साथ जोड़ कर देखा जाए तो यह देश जुड़ सकता है और इसमें शक्ति आ सकती है। पर अगर हम अमेरिका के विश्वविद्यालयों से निकले विचारों की जकड़न से अपने को नहीं छुड़ा पाते तो विविधता के मसले और जटिल होते जाएंगे। अमेरिका की सांस्कृतिक और सभ्यतागत बुनियादकमजोर है, इसलिए अगर वे स्रोत तक जाने की कोशिश करें तो राष्ट्रीयता के अलावा और कुछ वहां दिखाई नहीं पड़ता। पांच सौ वर्ष पहले दूसरे की जमीन को हड़पने के बाद इन घुसपैठियों को राष्ट्रीयता का ही सहारा लेना पड़ा अपने को खड़ा करने और जिन यूरोपीय मुल्कों से वे आए थे उनसे अलग अपनी पहचान बनाने के लिए। जबकि हमारे यहां वैसी बात नहीं है। राष्ट्रीयता से ऊंची, हमारी सभ्यतागत पहचान बहुत मजबूत और पुरानी है। हमारी राष्ट्रीयता नई है, जबकि हमारी सभ्यतागत पहचान बहुत पुरानी। इसलिए हमें उनके बनाए पैमानों से मुक्त होने की जरूरत है। उनके मसले अलग हैं, हमारे अलग। हम उनसे कुछ सीख नहीं सकते, तकनीक और कुछ ऊपर-ऊपर की छोटी-छोटी चीजों के अलावा। उनसे सीखने में हम और उलझते और टूटते चले जाएंगे। पुतिन इस बात से वाकिफ हैं। काश, हमारा नेतृत्व भी इतना विवेक रखता। |
Monday, February 20, 2012
सभ्यतागत पहचान की जरूरत
सभ्यतागत पहचान की जरूरत
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