Friday, 10 February 2012 10:00 |
शंकर शरण यह सभी स्तरों पर हो रहा है। इसीलिए हो रहा है, क्योंकि लगभग सौ वर्ष से यही दोहरेपन का मॉडल चल रहा है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं कि सोनिया गांधी और महात्मा गांधी की शासन शैली में समानताएं हैं, जिसमें संसदीय और अध्यक्षीय प्रणाली का अघोषित घाल-मेल है। इस कारण वर्तमान भारतीय संसदीय तंत्र एक अकार्यकुशल, पर अत्यंत खर्चीला बोझ हो गया है। अधिकतर सांसद, विधायक सुसंगत नीति और कानून-निर्माण के अलावा सारे काम करते रहते हैं। कई प्रधानमंत्री सालों भर अपनी खैर ही मनाते रहे हैं, क्योंकि उनका पदस्थापन किसी अदृश्य आला या दलीय समीकरणों का मोहताज रहता है। इस प्रकार, महंगी चुनाव प्रक्रिया के बाद देश को एक समर्थ शासक के बजाय प्राय: एक उच्च वेतन-सुविधा भोगी साधारण व्यक्ति मिलता है। दलीय उठापटक और मोर्चेबंदी के दौर में सांसदों, मंत्रियों और नेताओं का पूरा ध्यान इसी पर रहता है और शासन-कार्य उपेक्षित, बाधित रहता है। इस बीच, राजकीय नौकरशाही का विशाल तंत्र मानो स्वायत्त रहा है। वह स्वयं अपनी इच्छा से चलता है, और अपना पूरा खयाल रखना ही उसका प्रमुख कार्य है। आईएएस और आईएफएस कॉडरों का अपना शक्ति-क्षेत्र है जिन्हें किसी अकर्मण्यता, कमी या गलती का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। इससे उनकी दक्षता पर भी असर पड़ता है। सांसदों की अयोग्यता और अनिच्छा के कारण नीति-निर्माण प्राय: उच्च नौकरशाह ही करते रहते हैं। कई नीतियों के प्रारूप वही जैसे-तैसे बनवाते हैं, और संसद में बिना गहरी, वास्तविक छानबीन के वही निर्णय बन जाते हैं। शिक्षा, संस्कृति आदि मामले इसके सर्वाधिक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण हैं, जब उसी लापरवाह प्रक्रिया से मामूली एक्टिविस्टों की हानिकारक, राजनीति-प्रेरित बकवास भी 'नीति-दस्तावेज' बनती रहती है। यह भी एक तरह से स्वतंत्र भारत में आरंभ से ही हुआ। मगर इस खिचड़ी, उत्तरदायित्वहीन व्यवस्था से कई विषयों में अराजक स्थिति पैदा हो गई है, जिसका लाभ धूर्त और देशी-विदेशी शत्रु उठा रहे हैं। कोई नहीं जानता कि किस काम के लिए, किस नीति या निर्णय के लिए कौन उत्तरदायी है। आंतरिक सुरक्षा, वैदेशिक संबंध, शिक्षा आदि क्षेत्र इससे बहुत प्रभावित होते रहे हैं। एनजीओ तंत्र का एक नया विशाल तानाबाना बना है जिनके माध्यम से अदृश्य शक्तियां नीति-निर्माण, महत्त्वपूर्ण नियुक्तियों तक को अपने हाथ में ले रही हैं। सजायाफ्ता और संदिग्ध लोग सर्वोच्च नीति-निर्मात्री संस्थाओं के सदस्य बन जाते हैं, जबकि उन पर बड़ी अदालतों में कार्रवाइयां चल रही हैं। यह सब उसी उत्तरदायित्वहीन प्रणाली में संभव हो रहा है, जिसमें सत्ता की सुख-सुविधा का भोग करने वाले हजारों बन गए हैं, लेकिन किसी दोषपूर्ण निर्णय के लिए दंडित होने वाला कोई नहीं मिलता। मिल नहीं सकता। यहां पुन: स्मरण करें कि ऐसा परिदृश्य यूरोपीय लोकतंत्र में नहीं मिल सकता, जिसका कोट हमने पहन लिया है। भारत में अपने ही बनाए, स्वीकार किए कानूनों का मजाक बनाना इसी बात का परिणाम है कि हमने केवल उधार का कोट पहना था, अपने स्वभाव के अनुकूल शासन-विधान नहीं बनाया। यूरोपीय तंत्र में इस तरह अपने ही कानून, संविधान का मजाक नहीं बनाया जाता, क्योंकि वह उनका अपना है, उधार का नहीं। अभी जैसी संसदीय प्रणाली यहां चल रही है, इसकी तुलना में घोषित अध्यक्षीय प्रणाली अधिक पारदर्शी, उत्तरदायित्वपूर्ण और कम खर्चीली रहती। आशय यह नहीं कि अध्यक्षीय प्रणाली होते ही सब ठीक हो जाएगा। पर बहुतेरे छद््म तरीके, दोहराव और उत्तरदायित्व-विहीनता समाप्त हो जाएगी। उस प्रणाली में अध्यक्ष को सभी निर्णय लेने और उनका पालन करवाने के लिए सीधे ही चुना जाता है। उसी के हाथ अधिकार भी रहते हैं। वह अपने सभी सहायक और पूरा अधिकारी तंत्र स्वयं नियुक्त करता है। कार्यकाल नियत रहने, उसकी संख्या भी सीमित रहने से वह अनावश्यक दबावों से नितांत मुक्त रहता है। साथ ही उसे अपने उत्तरदायित्व का सीधा भान रहता है। क्योंकि संसद ही नहीं, देश के सामने भी वही हर सही-गलत का उत्तरदायी होता है। अध्यक्षीय प्रणाली में सांसदों की भूमिका सुनिश्चित, सीमित होने से राज्यतंत्र में बिखराव और भ्रष्टाचार की संभावना बहुत घट जाती है। इन बिंदुओं को राष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में लाने की आवश्यकता है। ये सभी आपस में संबंधित हैं। इसलिए निदान भी परस्पर संबंधित है। हालांकि समय के साथ ऊपर से नीचे तक निहित स्वार्थों का बड़ा सशक्त जमावड़ा बन गया है। वह ऐसे किसी परिवर्तन की बात भी नहीं करने देगा, जो उनके सुखद, पर उत्तरदायित्वहीन राजनीतिक प्रभाव को आंच पहुंचाए। मगर रोग की पहचान तो रखनी चाहिए। |
Friday, February 10, 2012
संसदीय लोकतंत्र का मुखौटा
संसदीय लोकतंत्र का मुखौटा
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