Wednesday, February 8, 2012

ज्ञान के मद में चूर थे कई प्रोफेसर, पर खोखले थे!

ज्ञान के मद में चूर थे कई प्रोफेसर, पर खोखले थे!



आमुखनज़रियामोहल्ला रांची

ज्ञान के मद में चूर थे कई प्रोफेसर, पर खोखले थे!

8 FEBRUARY 2012 NO COMMENT
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♦ विनय भरत

भी पिछले दिनों मैं 2-4 फरवरी सेंट्रल यूनिवर्सिटी, ब्राम्बे में था। एक इंटरनेशनल कांफ्रेंस का हिस्सा बन कर। टॉपिक था,Text, Culture and Performance: Postcolonial Issues। इस इंटरनेशनल कांफ्रेंस में व्‍यवस्‍था वाकई इंटरनेशनल लेवल की थी (इसके लिए आयोजक डॉ बीपी सिन्‍हा का शुक्रिया), पर देश-विदेश से आये प्रतिभागियों (कुछ एक को छोड़ कर) की सोच बिलकुल लोकल। वही क्षेत्रवाद, बंगाली बंधु एक साथ, बिहारी एक साथ, झारखंडी एक साथ, नॉर्थ-इस्ट एक साथ, दिल्ली से आयी मद में इतराती टोली एक साथ। विदेश से आये विदेशी एक साथ, फिर भी साथ-साथ कोई नहीं। पोस्‍ट-कोलोनियल (Post-colonial) जैसे मॉडर्न टॉपिक पर बहस करते हुए भी हम बहुत बैकवर्ड दिखे।

एक दूसरी चीज जो चुभने वाली थी, वह जेएनयू या फिर दिल्ली युनिवर्सिटी वालों की बौडी लैंग्वेज थी। झूठे दंभ में सड़ांध मारती। उनके पपेर्स में उतना दम नहीं दिखा, जितना उन्होंने अपनी हेकड़ी में दिखायी। फॉल्स एक्सेंट में सिर्फ अंग्रेजी बोल भर लेना काफी नहीं है। उनकी टोली मुझे टीएस इलियट के "hollowmen" जैसी दिखी, अंदर से बिलकुल खोखली।

दिल्ली में बैठ कर एक कुनबा बनाकर पूरे देश में अपने आप को विद्वान की तरह परोसे जाने की कवायद अच्छी है, पर इन कुनबों की मार्फत शिक्षा का व्यापारीकरण ठीक नहीं। मैं बगैर IACLALS (Indian assocition for Commonwealth Litearature and Language Studies) की एक शीर्षस्थ पदाधिकारी का नाम लिये, इस संस्था के उस प्रयास की भ्रत्सना करता हूं, जो छोटी जगहों से जुड़े लोगों की मासूमियत पर प्रहार करती है। इस कांफ्रेंस के दौरान IACLALS की एक पदाधिकारी ने कई एस्‍कॉलर्स को पेपर पढ़ने से मन कर दिया, क्योंकि उन्होंने IACLALS का सदयस्ता शुल्क नहीं दिया था, जबकि इस कांफ्रेंस का हिस्सा होने के लिए सेंट्रल युनिवर्सिटी ने पहले से शुल्क ले रखा था। जब बात सेंट्रल युनिवर्सिटी के पदाधिकारियों तक पहुंची, उन्होंने दिल्ली से पहुंची IACLALS टीम की भरपूर भर्त्सना की। आप एक तरफ पोस्ट-कोलोनियल जैसे टॉपिक पर चर्चा करते हैं और मानसिकता वही जस की तस।

आप महानगरों से आते हैं, जहां सपने बेचे जाते हैं, पर आप उन सतरंगी सपनों पर सवार होकर हम जैसे छोटे कस्बों में मां सरस्वती की सेवा में लगे लोगों की आंखों में धूल न झोंकें। इससे आपकी इमेज खराब होती है। उससे कष्टकर ये होता है कि अब हम किधर जाएं? जिन्हें हमने अब तक अपने प्रतिमान मान रखे थे, वे तो खोखले निकले।

एक और चौंकाने वाली बात ये थी कि विदेशों से आये हुए एक्सपर्ट भी attitude में बिलकुल लोकल ही निकले। वो चीजों को इतने पर्सनालाइज और सब्जेक्टिव नजरिये से देख रहे थे कि मुझे ताज्‍जुब हो रहा था कि कहीं हम, अभी भी उनकी बसायी गयी "कॉलोनी" का हिस्सा तो नहीं। जब मैंने स्टोक्ली करमैकेल को कोट किया, "The West with its guns and its power and its might came into Africa, Asia, Latin America and the USA and raped it. And while they raped it they used beautiful terms. They told the Indians 'we're civilizing you, and we're taming the West. And if you won't be civilized, we'll kill you.' So, they committed genocide and stole the land, and put the Indians on reservations, and they said that they had civilized the country." तो मैंने मेरे सत्र के चेयरमैन Mr Paul Sharrad (University of Wollongong, Australia) की भौहें चढ़ते देखीं। मेरा पेपर कल्चरल पाइरेसी पर था। उन्होंने इसे पर्सनलाइज कर लिया। मेरे पेपर के बाद मुझसे बहस भी हुई। ये एक अच्छी पहल थी। पर बुरा ये लगा कि जब वे बाहर लंच में मिले, मेरे दो-चार बार टोकने के बावजूद मेरी तरफ देखा तक नहीं। चोट गहरी लगी थी। हमारे 250 सालों की गुलामी से भी ज्यादा चोटिल वो दिख रहे थे। पर मि पॉल, मैं आपके खिलाफ नहीं था। मैं तो उस दर्द का हमदर्द था, जो भारत जैसे मुल्क में रहने वालों ने, लोगों ने सहा है। भारत की अपनी तहजीब रही है। बाहर से आये हुए मेहमानों कि इज्‍जत-अफजाई में कोई भी कसर हम नहीं छोड़ते। मेरा मकसद भी आपको ठेस पहुंचाने का नहीं था। पर आप इतने तंगदिल निकलेंगे, सोचा न था।

कुल मिला कर इस इंटरनेशनल कांफ्रेंस की कंडिशन बिलकुल लोकल ही लग रही थी। मैं एक बहुत अच्छे निष्कर्ष पर पहुंच पाया। विद्वान चाहे कहीं का भी हो, चमड़ी चाहे गोरी हो या काली हो, सोच बिलकुल अपने तक ही सिमटा रहता है।

दूसरा निष्कर्ष ये कि अगर यूजीसी प्रोमोशन के लिए ऐसे सेमिनार/कांफ्रेंस की जरूरत को खत्म कर दे तो शायद इस कांफ्रेंस में जुटे "विशाल" 150 लोगों का जमावड़ा भी 10-15 तक सिमट जाए।

पर अंत में मैं अपने गुरुदेव डॉ बी पी सिन्हा जी को थैंक्स देना चाहता हूं, जिन्होंने मैनेजमेंट का लेवल वर्ल्ड क्लास रखा था और जिनकी टीम ने अपनी हॉस्पिटैलिटी से सबका मन मोह रखा था, "दिल्ली वालों" का भी…

(विनय भरत। पेशे से प्राध्‍यापक, मि‍जाज से पत्रकार। फिलहाल मारवाड़ी कॉलेज, रांची में अंग्रेजी के असिस्‍टेंट प्रोफेसर। सामाजिक कामों में भी गहरी दिलचस्‍पी। अखबारों में लगातार समाज और राजनीति के मसलों पर लिखते रहते हैं। राजकीय उच्‍च विद्यालय, बरियातू, रांची से माध्‍यमिक शिक्षा और संत जेवियर कॉलेज से उच्‍च शिक्षा प्राप्‍त की। उनसे vinaybharat@ymail.com पर संपर्क कर सकते हैं।)

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