Monday, February 13, 2012

समाज विज्ञान की जड़ता

समाज विज्ञान की जड़ता


Monday, 13 February 2012 10:16

नरेश गोस्वामी 
जनसत्ता 13 फरवरी, 2012: मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने समाज विज्ञान में शोध का स्तर उन्नत करने के लिए एक पुरस्कार की घोषणा की है जिसका नामकरण अमर्त्य सेन के नाम पर किया गया है।

पुरस्कार गठित करने के पीछे मकसद शायद यह है कि इससे समाज विज्ञानों को जरूरी प्रोत्साहन मिलेगा और इन विषयों के प्रति मौजूदा सामाजिक उदासीनता दूर की जा सकेगी।   
इस संबंध में अगर देश के तमाम विश्वविद्यालयों में दाखिले के समय आने वाली उन खबरों को भी जोड़ लिया जाए जिनसे पता चलता है कि छात्रों की समाज-अध्ययन से जुड़े विषयों में रुचि कम होती जा रही है, तो इस तरह के प्रोत्साहन और पहल का औचित्य और भी बढ़ा हुआ दिखता है। लेकिन इस पहलकदमी पर प्रफुल्लित होने से पहले उन स्थायी कारणों को देखना होगा जिनके चलते समाज विज्ञान जड़ता और संकट में फंस गया है। गौर करें कि पिछले बीस सालों के दौरान शिक्षा की पूरी संरचना ही बदल चुकी है। हालांकि पहले भी उसका लक्ष्य छात्रों में स्वतंत्र चिंतन और चेतना का निर्माण करना नहीं था। लेकिन इधर के वर्षो में शिक्षा जैसे पूरी तरह एक उपकरण बन गई है। छात्र, अभिभावक और समाज की आम दिशा अब उसी शिक्षा को महत्त्व देती है जिससे तात्कालिक लाभ मिल सके। यह अकारण नहीं है कि आज शिक्षा का औसत अर्थ सूचना प्रौद्योगिकी और प्रबंध शास्त्र (मैनेजमेंट) की पढ़ाई करना हो गया है। इसलिए जिन विषयों में बाजार की रुचि नहीं है या जो बाजार के काम के नहीं हैं उन्हें लोगबाग भी हेय मानने लगे हैं।  
लेकिन ऐसे किसी पुरस्कार की अनुपयोगिता तब तक स्पष्ट नहीं होती जब तक हम पिछले दो दशक में हुए आर्थिक-सामाजिक रूपांतरण की शिनाख्त नहीं कर लेते। यह एक बहुत आमफहम-सी बात है कि सामाजिक विज्ञान की परिधि में आने वाले विषयों को पढ़ने से कोई फौरी आर्थिक लाभ नहीं होता और अगर नौकरी मिल भी जाए तो उसमें कहीं ऊपर पहुंचने की संभावना अधिक नहीं होती। शायद यही वजह है कि इन विषयों के प्रति छात्रों में कोई खास ललक नहीं दिखती। फिर अपने समाज के संपन्न और कई पीढ़ियों से शिक्षित छोटे-से वर्ग को छोड़ दें तो सच यही है कि इन विषयों की तरफ ऐसे ही छात्र जाते हैं जिन्हें विज्ञान की पढ़ाई के लिहाज से कमजोर और फिसड््डी माना जाता है। 
इसलिए समाज विज्ञानों को ऊर्जस्वित करने की यह चिंता और पहल वाजिब है। लेकिन ध्यान से देखें तो फैलोशिप की राशि बढ़ाने या प्रोत्साहन के लिए पुरस्कार शुरू करने का जतन जितना नाकाफी है उससे कहीं ज्यादा अभिजनवादी आग्रहों से ग्रस्त है। उसका मंतव्य भले ही लोकतांत्रिक हो, लेकिन उसके अमल में वही वर्गीय जकड़नें आड़े आती रहेंगी। 
भारत में समाज विज्ञान के विषयों के पठन-पाठन की कुछ संरचनाएं इस कदर जकड़ी हुई हैं कि उनकी पड़ताल किए बिना आगे बढ़ना बेमानी होगा। जबकि सरकार को लगता है कि सिर्फ वित्तीय व्यवस्था करने यानी फैलोशिप की राशि बढ़ाने या पुरस्कार शुरू कर देने से इन विषयों का संकट दूर हो जाएगा। इसलिए इस सिलसिले में सबसे जरूरी बात यह है कि पहले उन संरचनाओं की निशानदेही की जाए जिनके चलते समाज विज्ञान सामाजिक अर्थ में अनुपयोगी माने जाने लगे हैं।  
किसी समाज को जानने और उसकी संस्थाओं के अंतर-संबंधित ढांचे को समझने का बुनियादी काम यह होता है कि उसकी बोली-बानी और भाषा-संसार को समझा जाए। जबकि समाज विज्ञान एक पराई भाषा और सिद्धांत-शास्त्र से घिरा दिखता है। एनसीआरटी जैसे संस्थान भी जब स्कूली पाठ्यक्रम तैयार करते हैं तो मूल लेखन का काम अंग्रेजी में ही होता है। क्षेत्रीय भाषाओं में तो उसका अनुवाद भर कराया जाता है।
यहां एकबारगी मान भी लें कि भले अनुवाद हो, पर पाठ्य सामग्री क्षेत्रीय भाषा में आई तो सही। मगर यह प्रक्रिया भी अंतत: स्कूली शिक्षा पूरी होते ही पलट जाती है। इस स्तर के बाद स्तरीय और मौलिक अध्ययन सामग्री क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध नहीं हो पाती। विडंबना यह है कि क्षेत्रीय या देशज भाषाओं में जो थोड़ी-बहुत सामग्री तैयार भी की जाती है वह परीक्षा पास करने के लिहाज से की जाती है। उसमें मौलिकता की बात तो छोड़िए, अक्सर तो उन्हें पढ़ना एक खीझ भरा काम बन जाता है। 
इसका मतलब क्या यह माना जाए कि क्षेत्रीय भाषाओं की बनावट में ही कुछ ऐसा है, जिसके कारण उनमें मूल और उच्चस्तरीय शोध नहीं किया जा सकता? ध्यान से देखें तो यह शंका पैदा ही इसलिए होती है क्योंकि उसके ऊपर अंग्रेजी की वह वर्चस्वकारी संरचना पसरी है जो भारतीय भाषाओं को ज्ञान-निर्माण और चिंतन में स्वतंत्र या स्वायत्त नहीं होने देती। इन भाषाओं में भी अंग्रेजी से आई अवधारणाएं, सिद्धांत और पद्धतियां ही पढ़ी-पढ़ाई जाती हैं।
समाज विज्ञानों के संदर्भ में इस वर्चस्वकारी संरचना की चाबी और शोध-स्तर या पाठ्य-सामग्री के निर्माण की निर्णायक क्षमता बहुत पहले से ऐसे अकादमिक विद्वानों के पास रही है जिनका क्षेत्रीय भाषाओं से कोई सरोकार नहीं होता। लेकिन इसके लिए विद्वानों को एक सीमा तक ही दोषी ठहराया जा सकता है। क्योंकि ऐसे विद्वानों के उस अभिजन वर्ग को छोड़ दें, जो अंग्रेजी के विश्व का सहज नागरिक हो गया है, तो वैसे लोग भी जो क्षेत्रीय भाषाओं से यात्रा शुरू


करते हैं अंतत: अंग्रेजी के ही शिविर में रह जाते हैं। 
यह त्रासदी शायद इसलिए घटती है क्योंकि तथाकथित अकादमिक कॅरिअर का जहाज अंग्रेजी के रन-वे से ही उड़ान भरता है। इसी सूत्र को थोड़ा आगे बढ़ाएं और देखें कि यह संरचना भारतीय भाषाओं   को किस तरह अपनी गिरफ्त में लेती है। देश में प्रचलित शिक्षा के आम ढांचे की तरह समाज विज्ञान का ढांचा भी केंद्र और परिधि में बंटा हुआ है। पाठयक्रम-निर्माण की पहल और नीतिगत निर्णय हमेशा केंद्र से शुरू होते हैं जो परिधि के शिक्षकों और संस्थानों के लिए आदर्श या नीति-निर्देशक की तरह काम करते हैं। केंद्र का समस्त बौद्धिक कर्म अंग्रेजी में होता है। और परिधि के संस्थानों का क्षेत्रीय भाषाओं में। लेकिन इसे काम का बंटवारा समझना भूल होगी। यह मूलत: और अंतत: सत्ता का संबंध है जिसका ज्ञान-निर्माण से कोई ताल्लुक नहीं है।
गौरतलब है कि देश के महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले शिक्षा-केंद्रों में सामाजिक विज्ञानों के विभाग लगातार अभिजन समूहों में सिमटते गए हैं। तसदीक के लिए देख लें कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों में ऐसे ही विद्वानों का वर्चस्व है जिन्होंने इंग्लैंड या अमेरिका के संस्थानों में शिक्षा पाई है। और समाज विज्ञान में इन्हीं विद्वानों के काम को मानक माना जाता है। कथित तौर पर उत्कृष्टता के केंद्र समझे जाने वाले संस्थानों में आज भी ग्रामीण और निम्नवर्गीय पृष्ठभूमि से आने वाले अध्यापकों की मौजूदगी न के बराबर है। देश के अंचलों में बिखरे महाविद्यालयों में बेशक हाशिये से उठ कर आए शिक्षकों को देखा जा सकता है, लेकिन नीति-निर्माण या पाठ्यक्रम निर्माण जैसे दूरगामी महत्त्व के मसलों पर कोई भी अंतिम निर्णय विद्वानों के इसी अभिजन समूह के हाथ में रहता है।
विडंबना यह है कि यह प्रक्रिया केवल ज्ञान के निर्माण और उसका ढांचा तैयार करने वालों और शिक्षकों तक सीमित नहीं है बल्कि उसमें छात्र भी प्रतिभावान और फिसड््डी की नकली श्रेणियों में बांट दिए जाते हैं। जो छात्र केंद्र की अंग्रेजी-भाषी, विशिष्ट और उच्चवर्गीय संस्थाओं में पढ़ाई करते हैं उन्हें कुशाग्र और अग्रगामी माना जाता है और जो आंचलिक या क्षेत्रीय महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ते हैं उन्हें कमतर और दोयम दर्जे का विद्यार्थी मान लिया जाता है।
इन वर्षों में लोकतंत्र की जड़ें बेशक गहरी हुई हों, लेकिन समाज विज्ञानों में अभी लोक स्थापित नहीं हो पाया है। दूसरे शब्दों में कहें तो बौद्धिकता के इस पिरामिड पर सत्ता के लोकतांत्रिक पुनर्गठन का बहुत कम असर पड़ा है। आमतौर पर समाज और राजनीति के विचलनों से सुरक्षित रहने वाले समाज विज्ञानियों के वैचारिक आदर्श हाल के वर्षों में मौटे तौर पर अमेरिकी बौद्धिक फैशन से तय होने लगे हैं। इस संबंध में गौर करें, पिछले दो-तीन दशकों में समाज विज्ञान के क्षेत्र में उन विषयों पर ज्यादा शोध हुआ है जिनका खेती-किसानी, गैर-बराबरी और ग्रामीण अर्थव्यवस्था से बहुत संबध नहीं रहा है। 'माइक्रो स्टडीज' के नाम पर शोध की एक ऐसी दिशा बनी है जिससे अपने समाज में बढ़ती असमानताओं और अमानवीयताओं को समझने में कोई मदद नहीं मिलती। इसे आखिर किस तरह का समाज विज्ञान कहा जाए, जिसमें प्रखर प्रतिभा उसे ही माना जाता है जो अमेरिकी और यूरोपीय शोध-दृष्टि और पद्धति को भारतीय संदर्भों में बिठाने में सक्षम हो। शिक्षकों और शोधकर्ताओं को अगर इतने भर से विराट महत्त्व मिल जाए तो फिर उन्हें मौलिक सोचने-विचारने की जरूरत ही कहां रह जाती है! 
समाज विज्ञानों के इस संकट के बारे में यह भी लक्षित करें कि उच्च शिक्षा के केंद्र धीरे-धीरे स्वतंत्र टापुओं में तब्दील होते गए हैं। उनकी यह अनिवार्य परिणति है, क्योंकि उन्हें विशिष्टता के जिस आदर्श या विचार के तहत रोपा गया था उसमें आम जनता की जरूरतें और आकांक्षाएं शामिल नहीं थीं। विडंबना यह है कि इस उच्चवर्गीय समाज विज्ञान ने आम लोगों के वर्ग से खुद को अलग भी कर लिया है। यह दिलचस्प है कि इसके बावजूद वह जनता की पक्षधरता, आंतरिक शोषण की गहरी संरचनाओं को उजागर करने, अवसर और बराबरी के आदर्शों का दम भी भरता है।
इस बात का मकसद अकादमिक जगत को आहत करना नहीं है, लेकिन इस सच्चाई से मुंह नहीं फेरा जा सकता कि वर्तमान भारतीय बौद्धिकता का प्रतिनिधि माना जाने वाला वर्ग अपनी समस्त प्रखरता के बावजूद विकसित देशों की ज्ञानशास्त्रीय प्रस्थापनाओं का पिष्टपेषण ही करता रहा है। स्थायी सुरक्षा की आश्वस्ति में जी रहे इस वर्ग का अधिकांश शोध अपने समाज की जरूरतों से नहीं बल्कि नौकरी के दबावों से निर्धारित होता है। 
अब जरा इन सारे सूत्रों को एक साथ जोड़ कर देखें कि यह वास्तव में समाज विज्ञान के पठन-पाठन का मसला है या फिर उसमें व्याप्त असमानता और बहिष्करण की संरचना का। इसलिए यहां अलग से कहने की जरूरत नहीं रह जाती कि जब मानव संसाधन विकास मंत्रालय समाज विज्ञानों में शोध का स्तर उन्नत बना कर उसे सामाजिक नीति-निर्माण से जोड़ने की बात करता है तो वह असल में आधी-अधूरी और रिवायती चिंता होती है। अभी तो समाज विज्ञानों में पूरा समाज ही शामिल नहीं है। उसके केंद्र में मूलत: अभिजनों की चिंताएं हैं। इसलिए फैलोशिप की राशि बढ़ाने और पुरस्कार शुरू करने से समाज विज्ञान की शिक्षण-व्यवस्था में पैबस्त सामाजिक असमानता दूर नहीं होगी। इसका लाभ अंतत: उन्हें ही मिलेगा जिनका सशक्तीकरण बहुत पहले हो चुका है।

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