Thursday, February 16, 2012

आधुनिक भारत में जाति का सवाल

आधुनिक भारत में जाति का सवाल


Thursday, 16 February 2012 09:41

आनंद कुमार 
जनसत्ता 16 फरवरी, 2012: भारतीय समाज और राजनीति में जाति को लेकर इधर कुछ दिनों से एक नई चेतना बन रही है। कुछ लोगों का मानना है कि हमारा समाज, खासकर हमारी सरकार और राजनीतिक समुदाय जातिविहीन समाज की रचना के संकल्प को कुचल रहे हैं। वे सब मिल कर तात्कालिक लाभ की दृष्टि से ऐसे उपाय कर रहे हैं, जिनसे जाति वापस आ रही है। दूसरी तरफ, समाज वैज्ञानिकों का बहुत बड़ा समूह स्वीकार कर रहा है कि जाति-व्यवस्था के पारंपरिक ढांचे की, जो छुआछूत, पवित्र-अपवित्र, जजमान-पुरोहित जैसे सांचों से बना था, प्रासंगिकता लगातार घटती जा रही है, क्योंकि अब हम धीरे-धीरे नियमबद्ध संबंधों के जरिए अपने आसपास के संसार को रचने की क्षमता विकसित कर रहे हैं। इसके पीछे जनतंत्र और आधुनिकीकरण का बड़ा योगदान है। लेकिन यह समूह इस बात से इनकार नहीं करता कि जाति का नया अवतार हुआ है, जिसमें सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष की तुलना में राजनीतिक पक्ष प्रासंगिक है। 
हालांकि अब जाति और हिंदू धर्म का संबंध धर्म के दायरे से ऊपर उठ कर, जाति और सभी धर्मों के बीच के संबंध के रूप में देखा जाने लगा है। दलित ईसाई आंदोलन, मुसलमानों में पसमांदा समाज का आंदोलन, सिखों में मजहबी सिखों का आंदोलन और बौद्धों में नवबौद्धों की समस्याएं जाति की धर्मनिरपेक्ष वास्तविकता को पहचानने का सवाल उठा रही हैं। 
इधर अस्सी वर्ष बाद सरकार को भी समाज की बनावट समझने के लिए जाति जनगणना की जरूरत महसूस हुई। अगर जाति-व्यवस्था के अलग-अलग रूपों और संदर्भों से जोड़े बिना हम जाति के बारे में चर्चा करेंगे तो कुछ सामान्य और सतही निष्कर्षों तक ही पहुंच सकते हैं, जिसमें दोनों तरह का सच गैरजरूरी बन जाता है- जाति खत्म हो रही है, जाति बढ़ रही है। शुरू से ही जाति-व्यवस्था का ग्रामीण और नगरीय स्वरूप अलग-अलग रहा है। गांव में जाति का पेशे और सामाजिक हैसियत के साथ अभिन्न संबंध रहा है। हर जाति का एक निश्चित पेशा और उस पेशे की एक सामाजिक हैसियत। 
ग्रामीण समाज में कुछ जातियां संपत्तिवान होने की क्षमता रखती थीं और कई जातियों को इससे लगातार दूर रखा गया। ग्रामीण समाज में धर्म एक होने पर जाति के आधार पर अंतर्गत और बहिष्कृत की दो कोटियां हुआ करती थीं, जो सांस्कृतिक जीवन के नियम-कानून का आधार बनती थीं और जिनके पीछे पवित्रता और अपवित्रता का ढांचा बनाया जाता था। 
इसके समांतर नगरीय समाज में जाति का स्वरूप व्यवसाय से तो जुड़ा था, लेकिन नगर का औद्योगिक और आधुनिक पक्ष जाति के लिए हमेशा एक चुनौती का स्रोत रहता था। इसलिए यह आकस्मिक नहीं था कि भक्ति आंदोलन के सभी बड़े प्रणेता या तो यायावर थे या नगरों में गैर-खेतिहर पेशों से जुड़े लोग। 
अंग्रेजी राज आने के बाद जाति में हुए परिवर्तनों को हम जनतांत्रिक भारत में हो रहे परिवर्तनों के संदर्भ में अत्यंत उपयोगी मानते हैं, क्योंकि अंग्रेजी राज में ही पहली बार जाति का क्षेत्रीय सच जनगणनाओं के जरिए एक स्थिर और अलंघ्य व्यवस्था बन गया। जाति जनगणना के हर दशक में जाति की परिभाषा भी लगातार परिवर्तित-परिवर्द्धित होती रही। कई समाजशास्त्रियों की मान्यता है कि जाति का सच औपनिवेशिक भारत में जड़ता की हद तक सामाजिक जीवन के संदर्भ में राज्य-व्यवस्था द्वारा संरक्षित किया गया। यह मान्यता कई समाज सुधारकों के इस सोच से अलग जाती है कि अंग्रेजी राज में जाति का ढांचा कमजोर हुआ, क्योंकि इस दौर में आधुनिक शिक्षा, जाति विरोधी आंदोलनों को प्रश्रय और जाति संबंधी कई निषेधों को गैर-कानूनी ठहराने का काम किया गया। 
आज जाति की व्याख्या करते समय प्राय: चुनाव के समय हो रही जातिगत गोलबंदी और दलों के बीच विभिन्न जातियों के अंदर अपना वोट बैंक बनाने की होड़ सबसे ज्यादा चर्चा का विषय बनते हैं। लेकिन हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह जाति-व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन के कारण संभव हुआ है कि ब्राह्मणों, दलितों और यादवों की गोल एक दूसरे से सीधी कानूनी व्यवस्था के अंतर्गत आधुनिक राज्यतंत्र पर कब्जा करने के लिए होड़ में आ गई हैं। जाति-व्यवस्था होड़ का निषेध करती है। जाति में लोगों की जगह पारंपरिक, पौराणिक और समकालीन शक्तियों की मदद से स्थिर रखी जाती थी। आज का जाति समूह और उससे जुड़ी हुई राजनीतिक व्यूह-रचना जाति के आधुनिकीकरण का परिणाम है। 
इस तरह हमारी जाति-व्यवस्था आधुनिकता के दो दौर से गुजरी है। इन दोनों के अलग-अलग परिणाम हैं। इनको समझे बिना हम जाति के नए अवतार की ठीक से व्याख्या नहीं कर सकते।
जाति के आधुनिकीकरण का पहला दौर एक तरह से प्रतिक्रियावादी था, क्योंकि उसमें शास्त्रीय आधारों पर जातियों की परिभाषा गढ़ने और शास्त्रों में उल्लिखित वर्ण-व्यवस्था के इर्द-गिर्द हजारों जातियों को जोड़ने की कोशिश की गई। उनके अधिकारों और दावों की पहचान बनाई गई। नतीजा यह हुआ कि जाति की पिघलने की क्षमता, जिसे समाजशास्त्रियों ने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया कहा, और जाति के अंतर्गत एक स्थान से दूसरे स्थान पर निर्वासन या प्रवास के कारण होने वाली संभावनाएं सीमित हो गर्इं। जबकि अंग्रेजी राज से पहले जाति की सीमाएं भाषा और क्षेत्रीय इतिहास से जुड़ी होती थीं। 
दूसरे, अंग्रेजी राज ने जाति की औपनिवेशिक आधुनिकता का संक्रमण पैदा किया- जिसमें उनकी गिनती हुई, उनकी परस्पर दूरियों का निर्धारण हुआ और जिसके दौरान कुछ जातियों को वंचित समूह के रूप में पहचान का अधिकार मिला।   अंग्रेजी राज के दौरान लगभग डेढ़ सदी में कई कोनों से जाति-व्यवस्था के विरुद्ध आंदोलन उठे और इन्होंने भक्ति आंदोलन से लेकर गैर-हिंदू धर्मों से वैधता प्राप्त की।  

जब हम जाति की आधुनिकता के दूसरे दौर में पहुंचे, यानी स्वाधीनोत्तर भारत में जाति का स्थान तय करने का अवसर आया, तो संविधानसभा ने तीन साल की लंबी बहस के बाद सर्वसम्मति से भविष्य के भारत के लक्ष्य के तौर पर जातिविहीन और वर्गविहीन समाज की रचना का संकल्प लिया। 
आजाद भारत के आरंभिक दशकों में जाति-व्यवस्था के आधार पर होने वाले भेदभाव को न केवल अवैध करार देना, बल्कि जाति के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अवसरों से वंचित लोगों के लिए विशेषाधिकारों की व्यवस्था, यानी आरक्षण का प्रावधान किसी क्रांति से कम नहीं था। 
लेकिन आज आरक्षण की नीति एक नए मोड़ पर पहुंच गई है। यह जाति के जनतांत्रीकरण और आधुनिकीकरण का निर्णायक परिणाम है। आज आरक्षण की नीति को लेकर वंचित समूहों से ज्यादा आरक्षण के दायरे में समेटे गए समूहों के बीच अंतर्विरोध प्रकट हो रहा है। इसके चार स्तर सभी को दिखाई पड़ रहे हैं- पहला, स्त्री और पुरुष का अंतर। एक ही जाति में, जिसे आरक्षण का लाभ दिया गया है, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के लिए सीमित अवसर हैं। इसके लिए समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिम्मेदार है, जो जाति-व्यवस्था को पुष्ट करती रही है। आरक्षण की नीति से इसे टूटना चाहिए था, लेकिन कई कारणों से आज आरक्षण से लाभान्वित जातियों में भी इस प्रश्न का एक अलग स्थान है। 
आज जाति के संदर्भ में दलितों के बीच दलित और महादलित का ध्रुवीकरण पूरे देश में हो चुका है। फिर, अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आरक्षण के पिछले बीस बरस के सामाजिक परिवर्तन के प्रयोगों के फलस्वरूप एक तरफ कई समूह राजनीतिक, शैक्षणिक मामले और सरकारी नौकरियों में अपनी उपस्थिति बढ़ाने में सफल हुए हैं। लेकिन अब इस वर्ग के नेतृत्व को लेकर दबंग या प्रभु जातियों में होड़ चल रही है। 
दूसरी तरफ धर्मों के दायरे में पल रही जाति-व्यवस्था पर प्रहार के लिए आज आरक्षण नीति के इस्तेमाल का आग्रह बढ़ा है। इसकी अगुआई दलित-ईसाई आंदोलन से हुई और अब हिंदुओं और मुसलमानों में भी कई समूह या तो खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कराने का आंदोलन चला या आरक्षण के अंदर उप-आरक्षण की मांग कर रहे हैं। 
यह सब समाज में महामंथन पैदा कर रहा है, क्योंकि हम स्त्री-पुरुष, जाति प्रसंग, धार्मिक समूहों में निहित विषमता, गांव और शहर के बीच का अंतर; द्विजों और गैर-द्विजों के बीच के फासले को गहराई तक देखने के लिए आत्मविश्वास पैदा कर चुके हैं। इसी के समांतर यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में आज 'जाति तोड़ो' या जातिविरोधी आंदोलनों की क्या दशा है। शुरू में इन आंदोलनों को हमने दक्षिण भारत में ब्राह्मण विरोधी मोर्चा और पश्चिम भारत में गैर-ब्राह्मण मोर्चे के रूप में उभरते देखा था, जिसमें ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को जाति-व्यवस्था का मूलाधार मानते हुए उसका निषेध और उससे आगे समाज को ले जाने की कोशिश पहला लक्ष्य माना गया था। लेकिन आज जातिविरोधी आंदोलनों के पुराने वाहक थके से लगते हैं। मध्यम जातियों में पूरे भारत में जाति को लेकर कोई विशेष नकारात्मक आग्रह नहीं दिखाई दे रहा है। इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दलितों को अपने हितों की रक्षा और राजनीतिक क्षेत्रफल के विस्तार के लिए ब्राह्मणों के साथ खुला मोर्चा बना कर सर्वजन समाज की राजनीति शुरू करने का दबाव स्वीकार करना पड़ा है। 
क्या कारण है कि आज जाति-विरोधी आंदोलन के मूल वाहक, यानी मध्य और दलित जातियां परस्पर सहयोग में असमर्थ हैं? क्या कारण है कि जाति-व्यवस्था से सबसे ज्यादा पीड़ित- स्त्रियां एक दूसरे के साथ मिल कर महिला आरक्षण का आंदोलन तो चला रही हैं, लेकिन उन्हें मंडलवादी ताकतों का सीधा मुकाबला करना पड़ रहा है। क्या कारण है कि आरक्षण नीति के विस्तार के लिए सर्वोच्च न्यायालय के खुले निर्देशों के बावजूद हम परस्पर सहयोग और साझेदारी के भाव के बजाय हिस्से और बंटवारे की बात ज्यादा कर रहे हैं। 
आज सभी पुरानी जाति तोड़ो शक्तियों का लक्ष्य आरक्षण में आरक्षण बन गया है। इससे जाति को एक नया आधार मिलता दिखाई दे रहा है। क्योंकि अगर हमारी जातीय पहचान घुली-मिली रहेगी तो आरक्षण के अंदर आरक्षण का दावा पूरा नहीं हो सकता। नतीजतन, जाने-अनजाने जाति की पीड़ित जमातें कई कारणों से जातिगत पहचानों को नया आधार और आकार देने की संवैधानिक व्यवस्था के लाभ के लिए विवशता महसूस कर रही हैं। 
क्या भूमंडलीकरण के कारण जाति-व्यवस्था पर कुछ प्रभाव पड़ रहा है? क्या रोजगार की तलाश में लाखों की तादाद में एक इलाके से दूसरे इलाके जा रहे लोगों का सच जाति-व्यवस्था को कमजोर करने, यानी अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ाने में कुछ मदद कर रहा है? इन सबसे ऊपर आधुनिक शिक्षा और सूचना क्रांति से जाति की सीमाओं और समस्याओं को लेकर हम कुछ ज्यादा आत्मालोचक बनने की क्षमता विकसित कर रहे हैं। 
इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक को  इन सभी प्रश्नों का उत्तर देना पड़ेगा, क्योंकि अब न तो पुरानी जाति-व्यवस्था चल सकती है और न ही जातिविहीन समाज बनाने का पुराना आदर्श आकर्षक रह गया है। फिर तीसरा रास्ता क्या होगा, जिसमें स्त्री, दलित, अतिपिछड़ा, अल्पसंख्यकों का पिछड़ा और आदिवासी खुल कर जनतंत्र की व्यवस्था में निहित त्रिमुखी न्याय का लाभ उठा सकें और सारा   समाज परस्पर सहमति के आधार पर जातिविहीन और वर्गविहीन दुनिया की रचना के ऐतिहासिक संकल्प के साथ ईमानदारी से अपना संबंध बनाए रख सके।

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