Thursday, 16 February 2012 09:41 |
आनंद कुमार आजाद भारत के आरंभिक दशकों में जाति-व्यवस्था के आधार पर होने वाले भेदभाव को न केवल अवैध करार देना, बल्कि जाति के कारण सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक अवसरों से वंचित लोगों के लिए विशेषाधिकारों की व्यवस्था, यानी आरक्षण का प्रावधान किसी क्रांति से कम नहीं था। लेकिन आज आरक्षण की नीति एक नए मोड़ पर पहुंच गई है। यह जाति के जनतांत्रीकरण और आधुनिकीकरण का निर्णायक परिणाम है। आज आरक्षण की नीति को लेकर वंचित समूहों से ज्यादा आरक्षण के दायरे में समेटे गए समूहों के बीच अंतर्विरोध प्रकट हो रहा है। इसके चार स्तर सभी को दिखाई पड़ रहे हैं- पहला, स्त्री और पुरुष का अंतर। एक ही जाति में, जिसे आरक्षण का लाभ दिया गया है, पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के लिए सीमित अवसर हैं। इसके लिए समाज की पितृसत्तात्मक व्यवस्था जिम्मेदार है, जो जाति-व्यवस्था को पुष्ट करती रही है। आरक्षण की नीति से इसे टूटना चाहिए था, लेकिन कई कारणों से आज आरक्षण से लाभान्वित जातियों में भी इस प्रश्न का एक अलग स्थान है। आज जाति के संदर्भ में दलितों के बीच दलित और महादलित का ध्रुवीकरण पूरे देश में हो चुका है। फिर, अन्य पिछड़ा वर्ग से संबंधित आरक्षण के पिछले बीस बरस के सामाजिक परिवर्तन के प्रयोगों के फलस्वरूप एक तरफ कई समूह राजनीतिक, शैक्षणिक मामले और सरकारी नौकरियों में अपनी उपस्थिति बढ़ाने में सफल हुए हैं। लेकिन अब इस वर्ग के नेतृत्व को लेकर दबंग या प्रभु जातियों में होड़ चल रही है। दूसरी तरफ धर्मों के दायरे में पल रही जाति-व्यवस्था पर प्रहार के लिए आज आरक्षण नीति के इस्तेमाल का आग्रह बढ़ा है। इसकी अगुआई दलित-ईसाई आंदोलन से हुई और अब हिंदुओं और मुसलमानों में भी कई समूह या तो खुद को अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल कराने का आंदोलन चला या आरक्षण के अंदर उप-आरक्षण की मांग कर रहे हैं। यह सब समाज में महामंथन पैदा कर रहा है, क्योंकि हम स्त्री-पुरुष, जाति प्रसंग, धार्मिक समूहों में निहित विषमता, गांव और शहर के बीच का अंतर; द्विजों और गैर-द्विजों के बीच के फासले को गहराई तक देखने के लिए आत्मविश्वास पैदा कर चुके हैं। इसी के समांतर यह भी देखने की जरूरत है कि भारत में आज 'जाति तोड़ो' या जातिविरोधी आंदोलनों की क्या दशा है। शुरू में इन आंदोलनों को हमने दक्षिण भारत में ब्राह्मण विरोधी मोर्चा और पश्चिम भारत में गैर-ब्राह्मण मोर्चे के रूप में उभरते देखा था, जिसमें ब्राह्मणों की सर्वोच्चता को जाति-व्यवस्था का मूलाधार मानते हुए उसका निषेध और उससे आगे समाज को ले जाने की कोशिश पहला लक्ष्य माना गया था। लेकिन आज जातिविरोधी आंदोलनों के पुराने वाहक थके से लगते हैं। मध्यम जातियों में पूरे भारत में जाति को लेकर कोई विशेष नकारात्मक आग्रह नहीं दिखाई दे रहा है। इसके परिणामस्वरूप उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में दलितों को अपने हितों की रक्षा और राजनीतिक क्षेत्रफल के विस्तार के लिए ब्राह्मणों के साथ खुला मोर्चा बना कर सर्वजन समाज की राजनीति शुरू करने का दबाव स्वीकार करना पड़ा है। क्या कारण है कि आज जाति-विरोधी आंदोलन के मूल वाहक, यानी मध्य और दलित जातियां परस्पर सहयोग में असमर्थ हैं? क्या कारण है कि जाति-व्यवस्था से सबसे ज्यादा पीड़ित- स्त्रियां एक दूसरे के साथ मिल कर महिला आरक्षण का आंदोलन तो चला रही हैं, लेकिन उन्हें मंडलवादी ताकतों का सीधा मुकाबला करना पड़ रहा है। क्या कारण है कि आरक्षण नीति के विस्तार के लिए सर्वोच्च न्यायालय के खुले निर्देशों के बावजूद हम परस्पर सहयोग और साझेदारी के भाव के बजाय हिस्से और बंटवारे की बात ज्यादा कर रहे हैं। आज सभी पुरानी जाति तोड़ो शक्तियों का लक्ष्य आरक्षण में आरक्षण बन गया है। इससे जाति को एक नया आधार मिलता दिखाई दे रहा है। क्योंकि अगर हमारी जातीय पहचान घुली-मिली रहेगी तो आरक्षण के अंदर आरक्षण का दावा पूरा नहीं हो सकता। नतीजतन, जाने-अनजाने जाति की पीड़ित जमातें कई कारणों से जातिगत पहचानों को नया आधार और आकार देने की संवैधानिक व्यवस्था के लाभ के लिए विवशता महसूस कर रही हैं। क्या भूमंडलीकरण के कारण जाति-व्यवस्था पर कुछ प्रभाव पड़ रहा है? क्या रोजगार की तलाश में लाखों की तादाद में एक इलाके से दूसरे इलाके जा रहे लोगों का सच जाति-व्यवस्था को कमजोर करने, यानी अंतर्जातीय विवाहों को बढ़ाने में कुछ मदद कर रहा है? इन सबसे ऊपर आधुनिक शिक्षा और सूचना क्रांति से जाति की सीमाओं और समस्याओं को लेकर हम कुछ ज्यादा आत्मालोचक बनने की क्षमता विकसित कर रहे हैं। इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक को इन सभी प्रश्नों का उत्तर देना पड़ेगा, क्योंकि अब न तो पुरानी जाति-व्यवस्था चल सकती है और न ही जातिविहीन समाज बनाने का पुराना आदर्श आकर्षक रह गया है। फिर तीसरा रास्ता क्या होगा, जिसमें स्त्री, दलित, अतिपिछड़ा, अल्पसंख्यकों का पिछड़ा और आदिवासी खुल कर जनतंत्र की व्यवस्था में निहित त्रिमुखी न्याय का लाभ उठा सकें और सारा समाज परस्पर सहमति के आधार पर जातिविहीन और वर्गविहीन दुनिया की रचना के ऐतिहासिक संकल्प के साथ ईमानदारी से अपना संबंध बनाए रख सके। |
Thursday, February 16, 2012
आधुनिक भारत में जाति का सवाल
आधुनिक भारत में जाति का सवाल
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