Monday, 20 February 2012 09:56 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' सुरेंद्र सिंघल जनसत्ता 20 फरवरी, 2012: पांच प्रांतों- उत्तर प्रदेश, मणिपुर, पंजाब, उत्तराखंड और गोवा- के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश का विशेष महत्त्व है, क्योंकि अस्सी लोकसभा सीटों वाले इस राज्य में कांग्रेस महामंत्री राहुल गांधी ने अपनी राजनीतिक साख और भविष्य को दांव पर लगा दिया है। चुनाव प्रक्रिया शुरू होने से पहले अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का हल्ला और हौवा मौजूद था। उससे विचलित मायावती ने एक-एक कर बीस-बाईस मंत्रियों को बर्खास्त कर पार्टी से भी निकाल दिया। निष्कासित मंत्रियों में एक नाम बाबूसिंह कुशवाहा का था। संजय जोशी चुनावी इतिहास और कथित 'सोशल इंजीनियरिंग' के अच्छे जानकार दिखाई पड़ते हैं, क्योंकि उन्होंने समय गंवाए बिना इस मोहरे को लपक लिया। अगर यह काम पार्टी के भीतर सहज भाव से हो जाता तो यह सुनिश्चित था कि भाजपा इस चुनाव में बड़ी जीत दर्ज कराती और हिंदुत्व की लहर उस स्तर पर भी चल जाती जहां दिखाई भी न पड़ती और गहरा असर भी कर पाती। अन्य पार्टियों के चीखने-चिल्लाने का कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि यह जगजाहिर है कि बसपा-राज में भ्रष्टाचार का स्रोत कहां था। विंध्याचल से उत्तर के हिंदुस्तान में राजसूय यज्ञ की दो कुंजियां हैं। एक कुंजी अति पिछड़े हैं और दूसरी कुंजी मुसलमान हैं। कम से कम 1990 के बाद से उत्तर प्रदेश में यह सूत्र काफी मजबूती से लागू होता है। अति पिछड़े हिंदू और पसमांदा मुसलमानों में वर्ग-चरित्र के अनुरूप गठबंधन विकसित हो गया है। हालांकि अति पिछड़ा हिंदू स्वभाव से हिंदुत्ववादी है। यह वस्तुस्थिति उत्तर भारतीय राजनीति का अत्यंत रोचक तथ्य है, जिस पर तथाकथित समाजशास्त्रियों, रायशुमारी विशेषज्ञों ने ध्यान नहीं दिया है। 2007 में बसपा को मिला स्पष्ट बहुमत इसी तबके के समर्थन का नतीजा था। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सफलता और ईमानदार छवि का सूत्र यही है कि वे एक बार इस दांव को ठीक से खेल गए। फिर याद दिला दें कि इसी सूत्र के भरोसे 1992 से 2004 तक भाजपा के पक्ष में हिंदुत्व की लहर चल रही थी। इस बार भी उत्तर प्रदेश में उमा भारती (लोध) का चेहरा और बाबूसिंह कुशवाहा का अथक प्रयास भाजपा को घोर संकट से बचा लेगा। वरना केवल स्थापित नेतृत्व यानी लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वेंकैया नायडू आदि के ही भरोसे भाजपा चलती तो शायद कहीं की न रहती। आकलन के मुताबिक भाजपा में अंतर्कलह और भितरघात का कोई सहज समाधान नहीं है। बुनियादी अंतर्विरोध वर्ग-चरित्र का है। पार्टी का हाईकमान-नेतृत्व शहरी मध्यवर्गीय और अगड़ी जाति वालों का है। सत्ता में भागीदारी दिला सके, ऐसा वोट पिछड़ों और अति पिछड़ों के नेतृत्व और कार्य-कौशल के बलबूते मिलता है। उत्तर भारत में कल्याण सिंह और उमा भारती पार्टी के राष्ट्रीय चेहरे बने रहते तो देश और उत्तर प्रदेश में भाजपा आज भी सत्ताधारी पार्टी होती। पिछले सात-आठ बरसों में राहुल गांधी ने इस अति पिछड़े वर्ग में पैठ बनाने का प्रयास किया है। जो सलाहकार-सहयोगी उन्होंने अपने टीम में जुटाए हैं, वे भी जानते हैं कि अति पिछड़े वर्ग का भारतीय राजनीति की चौसर में क्या महत्त्व है। मिशन-85 (सुरक्षित चुनाव क्षेत्रों में बसपा के प्रभाव में सेंध लगाने का प्रयास) इसी रणनीति का विस्तार है। राहुल गांधी अति पिछड़े वर्ग को किसी तरह कांग्रेस से जोड़ने में सफल साबित हुए तो अगले दो दशक तक कांग्रेस मुख्य सत्ताधारी पार्टी बनी रहेगी। पर यह अति पिछड़ों के घर कुछ देर बैठने या वहां भोजन करने जैसे चोचलों से संभव नहीं होगा। इस तबके के साथ भावनात्मक स्तर पर जुड़ना होगा, जैसे 1960 के दशक में समाजवादी चिंतक राममनोहर लोहिया पिछड़ों के साथ एकाकार हो गए थे। सिर्फ सत्ता में वाजिब हिस्सा नहीं, विकास की रणनीति में भी उनके संदर्भ को विधिवत संश्लिष्ट कर आमूलचूल दिशा-परिवर्तन अनिवार्य होगा। इस बार उत्तर प्रदेश की चुनाव चर्चा का प्रमुख मुद्दा मायावती का भविष्य है। यह बात सभी तरह के व्याख्याकारों, आलोचकों-समीक्षकों की दृष्टि से ओझल है कि 2007 में चुनी गई विधानसभा, जो पूरे पांच बरस चली, भारतीय इतिहास की विलक्षण घटना है। एक सर्वाधिक पिछड़े प्रदेश की जनता ने स्वेच्छा से एक दलित महिला का राजतिलक किया था। 2007 में मायावती की जीत एक युग परिवर्तनकारी जैसी घटना थी। पच्चीस से अट्ठाईस प्रतिशत दलित तो अनेक प्रदेशों में हैं। पर दलित वर्चस्व की बात छोड़ दीजिए, किसी और प्रदेश में दलित वर्ग की मामूली राजनीतिक हैसियत भी दिखाई नहीं पड़ती। लेकिन मायावती ने अपनी कार्यशैली से सिर्फ आमजन की अपेक्षाओं की अनदेखी नहीं की, दलित वर्ग के साथ भी वैसा ही किया। उत्तर प्रदेश की जनता ने पिछले पांच बरस जो परिताप-संताप जिया है, उसकी मतदान की वेला में क्या अभिव्यक्ति होगी, उसका अनुमान सहज नहीं। मशीनों में बंद नतीजों के प्रकट होने पर ही पता चलेगा कि मतदाता निज व्यथा-कथा को किस भाषा में कहता है। |
Monday, February 20, 2012
उत्तर प्रदेश की बाजी
उत्तर प्रदेश की बाजी
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