Thursday, February 23, 2012

अरुंधती का लेख कांस्पिरेसी थियरी का नया संस्करण है!

अरुंधती का लेख कांस्पिरेसी थियरी का नया संस्करण है!


नज़रियासंघर्ष

अरुंधती का लेख कांस्पिरेसी थियरी का नया संस्करण है!

25 AUGUST 2011 6 COMMENTS

अन्ना, अरुंधती और देश

♦ प्रणय कृष्‍ण

(पहली किस्‍त के बाद पेश है, अन्ना हजारे की अगुवाई में चल रहे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन पर हालिया बहसों को समेटता, प्रणय कृष्ण की लेखमाला की दूसरी किस्त… मृत्‍युबोध से उधार)

न्ना के अनशन का आठवां दिन। उनकी तबियत बिगड़ी है। प्रधानमंत्री का खत अन्ना को पहुंचा है। अब वे जन लोकपाल को संसदीय समिति के सामने रखने को तैयार हैं। प्रणव मुखर्जी से अन्ना की टीम की वार्ता चल रही है। सोनिया-राहुल आदि के हस्तक्षेप का एक स्वांग घट रहा है, जिसमें कांग्रेस, चिदंबरम, सिब्बल आदि से भिन्न आवाज में बोलते हुए गांधी परिवार के बहाने संकट से उबरने की कोशिश कर रही है। आखिर उसे भी चिंता है कि जिस जन लोकपाल के प्रावधानों के खिलाफ कांग्रेस और भाजपा दोनों का रवैया एक है, उस पर चले जनांदोलन का फायदा कहीं भाजपा को न मिल जाए। ऐसे में कांग्रेस ने सोनिया-राहुल को इस तरह सामने रखा है, मानो वे नैतिकता के उच्च आसन से इसका समाधान कर देंगे और सारी गड़बड़ मानो सोनिया की अनुपस्थिति के कारण हुई। इस कांग्रेसी रणनीति से संभव है कि कोई समझौता हो जाए और कांग्रेस, भाजपा को पटखनी दे फिर से अपनी साख बचाने में कामयाब हो जाए। फिर भी अभी यह स्पष्ट नहीं है कि संसदीय समिति अंतिम रूप से किस किस्म के प्रारूप को हरी झंडी देगी, कब यह बिल सदन में पारित कराने के लिए पेश होगा और अंततः जो पारित होगा, वह क्या होगा? कुल मिलाकर इस आंदोलन का परिणाम अभी भी अनिर्णीत है। यदि जन लोकपाल बिल अपने मूल रूप में पारित होता है तो यह आंदोलन की विजय है अन्यथा अनेक बड़े आंदोलनों की तरह इसका भी अंत समझौते या दमन में हो जाना असंभव नहीं है। आंदोलन का हश्र जो भी हो, उसने जनता की ताकत, बड़े राष्ट्रीय सवालों पर जन उभार की संभावना और जरूरत तथा आगे के दिनों में भूमंडलीकरण, निजीकरण और उदारीकरण के खिलाफ विराट आंदोलनों की उम्मीदों को जगा दिया है।

रालेगांव सिद्धि से पिछले अनशन तक एक दूसरे अन्ना का आविष्कार हो चुका था और पहले अनशन से दूसरे के बीच एक अलग ही अन्ना सामने हैं। ये जन आकांक्षाओं की लहरों और आवर्तों से पैदा हुए अन्ना हैं। ये वही अन्ना नहीं हैं। वे अब चाहकर भी पुराने अन्ना नहीं बन सकते। जन कार्यवाहियों के काल प्रवाह से छूटे हुए कुछ बुद्धिजीवी अन्ना और इस आंदोलन को अतीत की छवियों में देखना चाहते हैं। अन्ना गांधी सचमुच नहीं हैं। गांधी एक संपन्न, विदेश-पलट बैरिस्टर से शुरू कर लोक की स्वाधीनता की आकांक्षाओं के जरिये महात्मा के नए अवतार में ढाल दिये गये। हर जगह की लोक चेतना ने उन्हें अपनी छवि में बार बार गढ़ा- महात्मा से चेथरिया पीर तक। अन्ना सेना में ड्राइवर थे। उन्हें अपने वर्ग अनुभव के साथ गांधी के विचार मिले। इन विचारों की जो अच्‍छाइयां-बुराइयां थीं, वे उनके साथ रहीं। अन्ना जयप्रकाश भी नहीं हैं। जयप्रकाश गरीब घर में जरूर पैदा हुए थे लेकिन उन्होंने अमेरिका में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी। ये अन्ना को नसीब नहीं हुई। रामलीला मैदान में अन्ना ने यह चिंता व्यक्त की कि किसान और मजदूर अभी इस आंदोलन में नहीं आये हैं। उनका आह्वान करते हुए उन्होंने कहा – "आप के आये बगैर यह लड़ाई अधूरी है।" जेपी आंदोलन में ये शक्तियां सचमुच पूरी तरह नहीं आ सकी थीं। बाबा नागार्जुन ने 1978 में लिखा था…

जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा
जीत हुई पटना में, दिल्ली में हारा
क्या करता आखिर, बूढ़ा बेचारा
तरुणों ने साथ दिया, सयानों ने मारा
जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा

लिया नहीं संग्रामी श्रमिकों का सहारा
किसानों ने यह सब संशय में निहारा
छू न सकी उनको प्रवचन की धारा
सेठों ने थमाया हमदर्दी का दुधारा
क्या करता आखिर बूढ़ा बेचारा

कूएं से निकल आया बाघ हत्यारा
फंस गया उलटे हमदर्द बंजारा
उतरा नहीं बाघिन के गुस्से का पारा
दे न पाया हिंसा का उत्तर करारा
क्या करता आखिर बूढ़ा बेचारा

जय हो लोकनायक : भीड़-भाड़ ने पुकारा
मध्यवर्गीय तरुणों ने निष्ठा से निहारा
शिखरमुखी दल नायक पा गये सहारा
बाघिन के मांद में जा फंसा बिचारा
गुफा में बंद है शराफत का मारा

अन्ना ने यह कविता शायद ही पढ़ी हो लेकिन इस आंदोलन में किसान-मजदूरों के आये बगैर अधूरे रह जाने की उनकी बात यह बताती है कि उन्हें खुद भी जनांदोलनों के पिछले इतिहास और खुद उनके द्वारा चलाये जा रहे आंदोलन की कमियों-कमजोरियों का एहसास है। अन्ना सचमुच यदि गांधी और जेपी (उनकी महानता के बावजूद) की नियति को ही प्राप्त होंगे, तो यह कोई अच्छी बात न होगी।

सरकार ने महाराष्ट्र के टाप ब्यूरोक्रेट सारंगी और इंदौर के धर्मगुरु भैय्यू जी महराज को अन्ना के पास इसलिए भेजा था कि अन्ना को उनके थिंक टैंक से अलग कर दिया जाए। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री शिंदे भी बिचौलिया बनने के लिए तैयार बैठे थे। ये लोग उस अन्ना की खोज में निकले थे, जो राजनीतिक रूप से अपरिपक्व थे, जो कुछ का कुछ बोल जाया करते थे, और गुमराह भी किये जा सकते थे। शायद भैय्यू जी आदि को वह अन्ना प्राप्त नहीं हुए, जो अपनी सरलता में गुमराह होकर अपने प्रमुख सहयोगियों का साथ छोड़ कोई मनमाना फैसला कर डालें। लोकपाल बिल के लिए बनी संसदीय समिति में लालू जी जैसे लोग भी हैं। अब यह संसदीय समिति डायलाग के दरवाजे खोले खड़ी है। कांग्रेस सांसद प्रवीण ऐरम ने उसके विचारार्थ जन लोकपाल का मसौदा भेज दिया था। भाजपा के वरुण गांधी जन लोकपाल का प्राइवेट मेंबर बिल लाने को उद्धत थे। कुल मिलाकर कांग्रेस-भाजपा दोनों बड़ी पार्टियां जो जन लोकपाल के खिलाफ हैं, जनता के तेवर भांप अपने एक-एक सांसद के माध्यम से यह संदेश देकर लोगों में भ्रम पैदा करना चाहती थीं कि वे जनता के साथ हैं। एक तरफ सारंगी, भैय्यू जी, शिंदे, ऐरन और वरुण गांधी आदि द्वारा आंदोलन को तोड़ने या फिर अपने पक्ष में इस्तेमाल करने का प्रयास था, तो दूसरी ओर तमाम भ्रष्टाचारी दल और नेताओं द्वारा आंदोलन में घुसपैठ तथा आंदोलन में जा रहे अपने जनाधार को मनाने-फुसलाने-बहकाने की कोशिशें तेज थीं। मुलायम और मायावती द्वारा अन्ना का समर्थन न केवल इस प्रवृत्ति को दिखलाता है बल्कि इस भय को भी कि जनाक्रोश भ्रष्टाचार के खिलाफ जनाक्रोश महज यूपीए के खिलाफ जाकर नहीं रुक जाएगा। उसकी आंच से ये लोग भी झुलस सकते हैं।

अरुणा राय, जो कांग्रेस आलाकमान की नजदीकी हैं, एक और लोकपाल बिल लेकर आयी हैं। उनका कहना है कि प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में इस शर्त पर लाया जाए कि उस पर कार्यवाही के लिए सुप्रीम कोर्ट की रजामंदी जरूरी हो। शुरू से ही कांग्रेस का यह प्रयास रहा है कि जन लोकपाल के विरुद्ध वह न्यायपालिका को अपने पक्ष में खींच लाये, क्योंकि जन लोकपाल में न्यायपालिका के भ्रष्टाचार को भी लोकपाल के अधीन माना गया है। बहरहाल, संसद न्यायपालिका को लोकपाल से बचा ले और न्यायपालिका संसद और प्रधानमंत्री को लोकपाल से बचा ले, इस लेन-देन का पूर्वाभ्यास लंबे समय से चल रहा है। 'ज्युडीशियल स्टैंडर्ट्स एंड एकाउंटेबिलिटी बिल' जिसे पारित किया जाना है, उसके बहाने अरुणा राय लोकपाल के दायरे से न्यायपालिका को अलग रखने का प्रस्ताव करते हुए प्रधानमंत्री के मामले में सुप्रीम कोर्ट की सहमति का एक लेन-देन भरा पैकेज तैयार कर लायी हैं। ज्युडीशियल कमीशन के सवाल पर संसदीय वाम दलों सहित वे नौ पार्टियां भी सहमत हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने का समर्थन किया है। भाजपा इस मुद्दे पर अभी भी चुप है। अब तक वह प्रधानमंत्री को लोकपाल के दायरे में लाने के विरुद्ध कांग्रेस जैसी ही पोजीशन लेती रही है। शायद उसे अभी भी यह लोभ है कि अगला प्रधानमंत्री उसका होगा। वह न्यायपालिका को भी लोकपाल के दायरे में लाने के सवाल पर अपने पिछले नकारात्मक रवैये पर किसी पुनर्विचार का संकेत नहीं दे रही। इसीलिए अन्ना के सहयोगियों ने भाजपा से अपना रुख स्पष्ट करने की मांग की है।

अरुणा राय ने जन लोकपाल के दायरे से भ्रष्टाचार के निचले और जमीनी मुद्दों को अलग कर सेंट्रल विजिलेंस कमीशन के अधीन लाये जाने का प्रस्ताव किया है। सवाल यह है कि क्या सीवीसी के चयन की प्रक्रिया और भ्रष्टाचारियों को दंडित करने का उसका अधिकार कानूनी संशोधन के जरिये वैसा ही प्रभावी बनाया जाएगा, जैसा कि जन लोकपाल बिल में है? अरुणा राय ने जन लोकपाल बिल को संसद और न्यायपालिका से ऊपर एक सुपर पुलिसमैन की भूमिका निभाने वाली संस्था के रूप में उसके संविधान विरोधी होने की निंदा की है। उनके अनुसार जन लोकपाल के लिए खुद एक विराट मशीनरी की जरूरत होगी और इतनी विराट मशीनरी को चलाने वाले जो बहुत सारे लोग होंगे, वे सभी खुद भ्रष्टाचार से मुक्त होंगे, इसकी गारंटी नहीं की जा सकती। आश्चर्य है कि बहन अरुंधती राय ने भी लगभग ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं। उनके हाल के एक लेख में अन्ना के आंदोलन के विरोध में अब तक जो कुछ भी कहा जा रहा था, उस सबको एक साथ उपस्थित किया गया है।

अरुंधती राय का कहना है कि मूल बात सामाजिक ढांचे की है और उसमें निहित आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक विषमताओं की। बात सही है लेकिन तमाम कानूनी संशोधनों के जरिये जनता को अधिकार दिलाने की लड़ाई इस लक्ष्य की पूरक है, उसके खिलाफ नहीं। अरुंधती ने इस आंदोलन के कुछ कर्ता-धर्ताओं पर भी टिप्पणी की है। उनका कहना है कि केजरीवाल आदि एनजीओ चलाने वाले लोग जो करोड़ों की विदेशी सहायती प्राप्त करते हैं, उन्होंने लोकपाल के दायरे से एनजीओ को बचाने के लिए और सारा दोष सरकार पर मढ़ने के लिए जन लोकपाल का जंजाल तैयार किया है। अब सांसत यह है कि जो लाखों की संख्या में देश के तमाम हिस्सों में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं, क्या वे सब केजरीवाल और एनजीओ को बचाने के लिए उतर पड़े हैं? रही एनजीओ की बात तो वर्ल्ड सोशल फोरम से लेकर अमेरिका और यूरोपीय देशों में इराक युद्ध और नव उदारवाद आदि तमाम मसलों पर सिविल सोसाइटी के जो भी आंदोलन हाल के वर्षों में चले हैं, उनमें एनजीओ की विराट शिरकत रही है। क्या इन आंदोलनों में बहन अरुंधती शामिल नहीं हुईं? क्या इनमें शरीक होने से उन्होंने इसलिए इनकार कर दिया कि इनमें एनजीओ भी शरीक हैं? जाहिर है कि नहीं किया और मेरी अल्पबुद्धि के अनुसार उन्होंने ठीक किया। इसमें कोई संदेह नहीं कि एनजीओ स्वयं नव उदारवादी विश्व व्यवस्था से जन्मी संस्थाएं हैं। इनकी फंडिंग के स्रोत भी पूंजी के गढ़ों में मौजूद हैं। इनका उपयोग भी प्रायः आमूल-चूल बदलाव को रोकने में किया जाता है। इनकी फंडिंग की कड़ी जांच हो, यह भी जरूरी है। लेकिन किसी भी व्यापक जनांदोलन में इनके शरीक होने मात्र से हम सभी जो इनके आलोचक हैं, वे शरीक न हों तो यह आम जनता की ओर पीठ देना ही कहलाएगा। बहन अरुंधती का लेख पुरानी कांस्पिरेसी थियरी का नया संस्करण है। कुछ जरूरी बातें उन्होंने ऐसी अवश्य उठायी हैं, जो विचारणीय हैं। लेकिन देश भर में चल रहे तमाम जनांदोलनों को चाहे वह जैतापुर का हो, विस्थापन के खिलाफ हो, खनन माफिया और भू-अधिग्रहण के खिलाफ हो, पास्को जैसी मल्टीनेशनल के खिलाफ हो या इरोम शर्मिला का अनशन हो – इन सभी को अन्ना के आंदोलन के बरक्स खड़ा कर यह कहना कि अन्ना का आंदोलन मीडिया-कॉरपोरेट-एनजीओ गठजोड़ की करतूत है, और वास्तविक आंदोलन नहीं है, जनांदोलनों की प्रकृति के बारे में एक कमजर्फ दृष्टिकोण को दिखलाता है। अन्ना के आंदोलन में अच्छी खासी तादाद में वे लोग भी शरीक हैं, जो इन सभी आंदोलनों में शरीक रहे हैं। किसी व्यक्ति का नाम ही लेना हो (दलों को छोड़ दिया जाए तो) तो मेधा पाटेकर का नाम ही काफी है। मेधा अन्ना के भी आंदोलन में हैं, और अरुंधती भी मेधा के आंदोलन में शरीक रही हैं।

अरुंधती ने अन्ना हजारे के ग्राम स्वराज की धारणा की भी आलोचना की है और यह आरोप भी लगाया है कि अन्ना पचीस वर्षों से अपने गांव रालेगांव-सिद्धि के ग्राम निकाय के प्रधान बने हुए हैं। वहां चुनाव नहीं होता, लिहाजा अन्ना स्वयं गांधी जी की विकेंद्रीकरण की धारणा के विरुद्ध केंद्रीकरण के प्रतीक हैं। अरुंधती की पद्धति विचार से व्यक्ति की आलोचना तक पहुंचने की है। अन्ना तानाशाह हैं और विकेंद्रीकरण के खिलाफ, ऐसा मुझे तो नहीं लगता, लेकिन ऐसी आलोचना का हक अरुंधती को अवश्य है। अरुंधती ने मीडिया द्वारा इस पूरे आंदोलन को भारी कवरेज देने और तिहाड़ में अन्ना की तमाम सरकारी आवभगत को भी कांस्पिरेसी थियरी के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है। यह सच है कि मीडिया तमाम जनांदोलनों की पूरी उपेक्षा करता है। जंतर-मंतर पर जब अन्ना अनशन कर रहे थे तब मेधा पाटेकर ने भी कहा था कि उनकी बड़ी-बड़ी रैलियों को मीडिया ने नजरअंदाज किया। हमें खुद भी अनुभव है कि दिल्ली में लाल झंडे की ताकतों की एक-एक लाख से ऊपर की रैलियों को मीडिया षड्यंत्रपूर्वक दबा गया। ऐसे में इस आंदोलन को इतना कवरेज देने के पीछे मीडिया की मंशा पर शक तो जरूर किया जा सकता है, लेकिन इसका भी ठीकरा आंदोलन के सर पर फोड़ देने का कोई औचित्य नहीं समझ में आता है। सच तो यह है कि मीडिया ने इस आंदोलन में शरीक गरीबों, शहरी निम्न मध्यमवर्ग, दलित और अल्पसंख्यकों के चेहरे गायब कर दिये हैं। उसने इस आंदोलन की मुखालफत करने वालों को काफी जगह बख्शी हुई है। तमाम अखबारों के संपादकीय संसद की सर्वोच्चता के तर्क से व्यवस्था के बचाव में अन्ना को उपदेश देते रहे हैं। इसलिए यह कहना कि मीडिया आंदोलन का समर्थन कर रहा है, भ्रांतिपूर्ण है। मीडिया कितना भी ताकतवर हो गया हो, अभी वह जनांदोलन चलाने के काबिल नहीं हुआ है। ज्यादा सही बात यह है कि जो आंदोलन सरकार और विपक्ष दोनों को किसी हद तह झुका ले जाने में कामयाब हुआ है, उसकी अवहेलना कॉरपोरेट मीडिया के लिए भी संभव नहीं है। अन्यथा वह अपनी जो भी गलत-सही विश्वसनीयता है, वह खो देगा।

अरुंधती ने 'वन्दे मातरम', 'भारत माता की जय', 'अन्ना इज इंडिया एंड इंडिया इज अन्ना' और 'जय हिंद' जैसे नारों को लक्ष्य कर आंदोलन पर सवर्ण और आरक्षण विरोधी राष्ट्रवाद का आरोप जड़ा है। सचमुच अगर ऐसा ही होता, तो मुलायम और मायावती को क्रमशः अपने पिछड़ा और दलित जनाधार को बचाने के लिए तथा भ्रष्टाचार विरोधी जनाक्रोश से बचने के लिए आंदोलन का समर्थन न करना पड़ता। यह सच है कि इन दोनों ने आंदोलन का समर्थन इस कारण भी किया है कि भले ही वे केंद्र में यूपीए का समर्थन कर रहे हों, उत्तर प्रदेश में उन्हें एक दूसरे से ही नहीं, बल्कि कांग्रेस से भी लड़ना है। लिहाजा समर्थन के पीछे कांग्रेस विरोधी लहर का फायदा उठाने का भी एक मकसद जरूर है। अब इसका क्या कीजिएगा कि जंतर मंतर पर अन्ना के पिछले अनशन के समय आरक्षण विरोधी यूथ फार इक्वालिटी के लोग भी दिखे और वाल्मीकि समाज, रिपब्लिकन पार्टी, नोनिया समाज आदि भी अपने-अपने बैनरों के साथ दिखे। इस आंदोलन में सर्वाधिक दलित महाराष्ट्र से शामिल हैं। बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठ कर आये बड़े-बड़े लोग भी दिखे और चाय का ढाबा चलाने वाले तथा ऑटो रिक्शा चालक भी।

प्रकारांतर से अरुंधती ने नारों के माध्यम से आंदोलन में संघ की भूमिका को भी देखा है। मुश्किल यह है कि इन नारों को लगाने वाले तबके ज्यादा वोकल हैं और मीडिया के लिए अधिक ग्राह्य। इनसे अलग नारों और लोगों की आंदोलन में कोई कमी नहीं। आंदोलन के गैर-दलीय चरित्र के चलते ही लाल झंडे की ताकतों को इसी सवाल पर अपनी अलग रैलियां, अपनी पहचान के साथ निकालनी पड़ रही हैं। संघ को छिप कर खेलना है क्योंकि भाजपा खुद जन लोकपाल के खिलाफ रही है और अब तक पुनर्विचार के संकेत नहीं दे रही है। ऐसे में कांग्रेस के खिलाफ आक्रोश को भुनाने के लिए संघ आंदोलन में घुसपैठ कर रहा है जबकि भाजपा जन लोकपाल पर कांग्रेस के ही स्टैंड पर खड़ी है। यानी संघ-भाजपा का उद्देश्य यह है कि वह जन लोकपाल पर कोई कमिटमेंट भी न दे लेकिन आंदोलन का अपने फायदे में इस्तेमाल कर ले जाए। दूसरे शब्दों में 'चित हम जीते, पट तुम हारे'। संघ क्यों नहीं अपनी पहचान के साथ स्वतंत्र रूप से इस सवाल पर रैलियां निकाल रहा है, जैसा कि लाल झंडे की ताकतें कर रही हैं? संघ को अपनी पहचान आंदोलन के पीछे छिपानी इसलिए पड़ रही है क्योंकि वह अपने राजनैतिक विंग भाजपा को संकट में नहीं डाल सकता। लेकिन किसी राष्ट्रव्यापी, गैर-दलीय, विचार-बहुल आंदोलन में संघ अगर घुसपैठ करता है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ऐसा भला कोई भी राजनीति करने वाला क्यों नहीं करेगा! जिन्हें इस आंदोलन के संघ द्वारा अपहरण की चिंता है, वे खुद क्यों किनारे बैठ कर तूफान के गुजरने का इंतज़ार करते हुए 'तटस्थ बौद्धिक वस्तुपरक वैज्ञानिक विश्लेषण' में लगे हुए हैं? आपके वैज्ञानिक विश्लेषण से भविष्य की पीढियां लाभान्वित हो सकती हैं, लेकिन जनता की वर्तमान आकांक्षाओं की लहरों और आवर्तों पर इनका प्रभाव तभी पड़ सकता है, जब आप भी लहर में कूदें। तट पर बैठकर यानी तटस्थ रहकर सिर्फ उपदेश न दें। आंदोलन की लहर को संघ की ओर न जाने देकर रैडिकल परिवर्तन की ओर ले जाने का रास्ता भी आंदोलन के भीतर से ही जाता है। तटस्थ विश्लेषण बाद में भी हो सकते हैं। लेकिन यदि कोई यह माने ही बैठा हो कि आंदोलन एक षड्यंत्र है जिसे संघ अथवा कांग्रेस, कॉरपोरेट घरानों, एनजीओ या मीडिया ने रचा है तो फिर उसे समझाने का क्या उपाय है? ऐसे लोग किसी नजूमी की तरह आंदोलन क्या, हरेक चीज का अतीत-वर्तमान-भविष्य जानते हैं। वे त्रिकालदर्शी हैं और आंदोलन खत्म होने के बाद अपनी पीठ भी ठोंक सकते हैं कि 'देखो, हम जो कह रहे थे वही हुआ न!'

अन्ना का यह आह्वान कि जनता अपने सांसदों को घेरे, बेहद रचनात्मक है। उत्तर प्रदेश में इस आंदोलन की धार को कांग्रेस ही नहीं, बल्कि मुलायम और मायावती के भीषण भ्रष्टाचार की ओर मोड़ा जाना चाहिए। यही छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और गुजरात में भाजपा के विरुद्ध किया जाना चाहिए। कांग्रेस शासित प्रदेश तो स्वभावतः इसके निशाने पर हैं। बिहार में इसे लालू और नितीश, दोनों के विरुद्ध निर्देशित किया जाना चाहिए। ग्रामीण गरीबों, शहरी गरीबों, छात्र-छात्राओं, संगठित मजदूरों और आदिवासियों के बीच सक्रिय संगठनों को अपने-अपने हिसाब से अपने-अपने सेक्टर में हो रहे भ्रष्टाचार पर स्वतंत्र रूप से केंद्रित करना चाहिए। बौद्धिकों को भविष्यवक्ता और नजूमी बनने से बाज आना चाहिए, अन्यथा वे अपनी विश्वसनीयता ही खोएंगे।

(प्रणय कृष्‍ण। इलाहाबाद युनिवर्सिटी और जेएनयू से अध्‍ययन। प्रखर हिंदी आलोचक। जन संस्‍कृति मंच के महासचिव। समग्र रचनाधर्मिता के लिए देवीशंकर अवस्‍थी सम्‍मान।)

No comments: